अकलंक-स्तोत्र I Akalank Stotra

अकलंक-स्तोत्र

त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोक-मालोकितम्, साक्षाद्येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं साङ्गुलि।
रागद्वेषभया-मयान्तकजरालोलत्व-लोभादयो, नालं यत्पद-लंघनाय स महादेवो मया वन्द्यते ।।१।।

अन्वयार्थ:- (येन) जिसने (सागुंलि) अंगुलियों के साथ, (स्वयं करतले) अपने हाथ की हथेली में रहने वाली, (रेखात्रयं) तीनों रेखाओं के (यथा) समान (सालोकम्) अलोकाकाश के साथ (सकलं) समस्त (त्रिकालविषयं) त्रिकालवर्ती (त्रैलोक्यं) तीनों लोकों को (साक्षात्) प्रत्यक्षरूप से (आलोकितम्) देख लिया और जान लिया है और (यत्पदलंघनाय) जिसके पद को उल्लंघन करने के लिए (रागद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयः) राग-द्वेष, भय, रोग, बुढ़ापा, चञ्चलता, लोभ, मोह आदि कोई भी (अलं) समर्थ (न) नहीं (अस्ति) है (स) वहीं (महादेव:) महादेव (मया) मेरे द्वारा (वन्द्यते) वन्दना किया जाता है।

दग्धं येन पुरत्रयं शरभुवा तीव्रार्चिषा वह्निना, यो वा नृत्यति मत्तवत् पितृवने यस्यात्मजो वा गुह:।
सोऽयं किं मम शंकरो भयतृषारोषार्तिमोह-क्षयं, कृत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमंकरः शंकरः ॥२॥

अन्वयार्थ :- (येन)जिसने (शरभुवा)कामरूप बाणों से उत्पन्न हुई,(तीव्रार्चिषा)भयंकर ज्वालाओं वाली(वह्निना) अग्नि के द्वारा (पुरत्रयं) तीनों नगरों में (दग्धं) जलाया (वा) और (यः) जो (पितृवने) श्मशान में (मत्तवत्) उन्मत्त पुरुष के समान (नृत्यति) नृत्य करता है (वा) और (यस्य) जिसका (आत्मजः) पुत्र (गुह:) गुह (अस्ति) है (किं) क्या (स:) वह (अयम्) यह (मम) मेरा (शंकर:) शंकर (स्यात् ) हो सकता है अर्थात् नहीं (तु) किन्तु (य:) जो (भयतृषारोषार्तिमोहक्षयं) भय, तृषा, रोष, क्रोध सम्बंधी पीड़ा और का मोह विनाश करके (सर्ववित्) सर्वज्ञता को प्राप्त कर चुका है, (तनुभृतां क्षेमंकर: स: शंकर:) वही समस्त प्राणीमात्र का कल्याण कर्त्ता शान्ति विधाता शंकर हो मेरा शंकर हो सकता है, अन्य नहीं ।

यत्नाद्येन विदारितं कररुहै: दैत्येन्द्रवक्ष:स्थलं, सारथ्येन-धनञ्जयस्य समरे यो मारयत्कौरवान्। नासौ विष्णुरनेककालविषयं यञ्ज्ञानमव्याहतं, विश्वं व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णुः सदेष्टो मम ॥३॥
अन्वयार्थ:- (येन) जिसने (यत्नात्) बड़े प्रयत्न से (कररुहै:) नाखूनों के द्वारा (दैत्येन्द्रवक्ष:स्थलम्) दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वक्षःस्थल-सीने को (विदारितम्) छिन्न-भिन्न किया और (य:) जिसने (समरे) युद्ध में (धनञ्जयस्य) अर्जुन का (सारथ्येन) सारथी होकर (कौरवान्) कौरवों को (अमारयत्) मरवाया (असौ) वह (विष्णुः) विष्णु (न) नहीं (भवेत्) हो सकता है किन्तु (यज्ज्ञानं) जिसका ज्ञान (अव्याहतं) निरावरण (त्रिकालविषयं) तीनों कालों के समस्त पदार्थों को जानने वाला है (विश्वं) समस्त जगत्त्रय को (व्याप्य) व्याप्त करके (विजृम्भते) वृद्धि को प्राप्त होता है। (स:) वही (महाविष्णुः) महाविष्णु (सदा) सर्वदा-हमेशा (मम) मेरे (इष्टः) इष्ट हैं, मान्य हैं ।

उर्वश्या-मुदपादिरागबहुलं चेतो यदीयं पुनः, पात्रीदण्डकमण्डलु-प्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिं।
आविर्भावयितुं भवन्ति सकथं ब्रह्माभवेन्मादृशां, क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्माकृतार्थोऽस्तु नः ॥४॥

अन्वयार्थ:- (यदीयं) जिसके (चेत:) चित्त ने (उर्वश्याम्) उर्वशी नाम की देवागंना में (रागबहुलम्) राग की अधिकता को, कामवासना को (उपपादि) उत्पन्न किया (पुन:) और (पात्रीदण्डकमण्डलुप्रभृतयः) पात्र, दण्ड, कमण्डलु आदि बाह्य परिग्रहरूप पदार्थ (यस्य) जिसकी (अकृतार्थस्थितिम्) अंतरंग परिग्रह की दशा को (आविर्भावयितुं) प्रकट करने में (भवन्ति) समर्थ हैं । (स) वह (मादृशां) मुझ जैसों का (ब्रह्मा) ब्रह्मा (कथं) कैसे (भवेत्) हो सकता है अर्थात् नहीं किंतु (क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितः) भूख, प्यास, थकावट, राग व्याधि आदि समस्त दोषों से रहित (कृतार्थ) कृतकृत्य-सब कुछ कर चुका अब जिसे कछ भी करना शेष नहीं रहा (स:) वही (न:) हमारा (ब्रह्मा) ब्रह्मा ( भवेत्) हो सकता (अस्तु) है।

यो जग्ध्वा पिसितं समत्स्यकवलम् जीवं च शून्यं वदन्, कर्त्ता कर्मफलं न भुक्तं इति यो वक्ता सबुद्धः कथम्। यञ्ज्ञानं क्षणवर्तिवस्तुसकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा, यो जानन्-युगपज्जगत्त्रयमिदं साक्षात् स बुद्धो मम ।।५।।
अन्वयार्थ:- (य:) जो (समत्स्यकवलं) मगरमच्छों के ग्रासवाले (पिशितं) मांस को (जग्ध्वा ) खाता है (च) और (यः) जो (जीवं) जीव को (शून्यं) शून्यं (वदन्) कहता है। (च) और (यः) जो (कर्ता) कर्म करने वाले (कर्मफलं) कमों के फल को (न) नहीं ( भुक्तं) भोगता है (इति) ऐसा (यः) जो (वक्ता) कहता है, और (यज्ज्ञानम्) जिसका ज्ञान (क्षणवर्ति) क्षणिक है अतएव (सकलं वस्तु) समस्त पदार्थसमूह को (ज्ञातुम्) जानने के लिए (शक्तम्) समर्थ (न) नहीं है । (स) वह (बुद्धः) बुद्ध (कथं) कैसे (भवेत्) हो सकता है, अर्थात् नहीं । किन्तु (यः) जो (सदा ) निरन्तर (युगपत्) एक साथ (इदं) इस (जगत्त्रयं) तीन जगत् को (साक्षात्) प्रत्यक्ष (जानन्) जानता है (स:) वह (मम) मेरा (बुद्ध:) बुद्ध है, मेरे द्वारा पूज्य है, मान्य है ,उपास्य है।

ईश: किं छिन्नलिंगो यदि विगतभयः शूलपाणिः कथं स्यात्, नाथ किं भैक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मजश्च । आर्द्राजः किन्त्वजन्मा सकलविदिति किं वेत्ति नात्मान्तरायं, संक्षेपात्सम्यगुक्तं पशुपतिमपशुः कोऽत्र धीमानुपास्ते ॥६॥
अन्वयार्थ :- यदि महादेव (ईशः) ईश है, स्वामी है या परमेश्वर है तो (छिन्नलिंग:) छिन्नलिंग वाला (किं) क्यों है (यदि) यदि (सः) वह (विगतभयः) भयरहित (अस्ति) है (तर्हि) तो (शूलपाणि:) त्रिशूल है हाथ में जिसके अर्थात् त्रिशूलधारी (कथं) कैसे (स्यात्) हो सकता है। यदि वह (नाथ:) नाथ है, स्वामी है, (तर्हि) तो (भैक्ष्यचारी) भिक्षाभोजी (किं) क्यों (अस्ति) है (स) वह (यति) साधु या मुनि (अस्ति) है (तर्हि ) तो (स:) वह (सांगन:) अंगना
सहित-अर्धांग में स्त्री को धारण करने वाला (कथं) कैसे (स्यात्) हो सकता है। यदि (स:) वह ( आर्द्राजः) आर्द्रा से, उत्पन्न हुआ है, अर्थात् आर्द्र का पुत्र है (तर्हि) तो (अजन्मा) जन्मरहित-जन्म नहीं लेनेवाला (किं) क्यों (अस्ति) है, यदि (स:) वही (सकलवित्) सभी पदार्थों को जाननेवाला अर्थात् सर्वज्ञ है, (तर्हि) तो (आत्मान्तरायम्) अपनी आत्मा की भीतरी दशा को (किं) क्यों (न) नहीं (वेत्ति) जानता है । (संक्षेपात्) संक्षेप रूप से (सम्यक्) भली प्रकार (उक्तम्) कहे गए, (पशुपतिम्) पशुपति को अर्थात् ज्ञान को (कः) कौन (अपशुः) ज्ञानी (धीमान्) सत् और असत्, सच्चे और झूठे को समझने की बुद्धि रखने वाला, (अत्र) इस संसार में (उपास्ते) उपासना, आराधना या पूजा करेगा अर्थात् कोई भी नहीं ।

ब्रह्मा चर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेशविभ्रांतचेताः, शम्भुः खट्वांगधारी गिरिपतितनया-पांगलीलानुविद्धः। विष्णुश्चक्राधिय: सन् दुहितरमगमद् गोपनाथस्य मोहादर्हन्
विध्वस्त-रागोजितसकलभयः कोऽयमेष्वाप्तनाथः ।।७।।

अन्वयार्थ:- (ब्रह्मा) ब्रह्मा (चर्माक्षसूत्री) चमड़ा और अक्षमाला को रखते हैं और साथ ही दावेशविन्तचेता:) उजको चित्त देवांगना के प्रेम से विपरीत होता है, अति वे स्त्री से उन्मत्त हो रहे हैं, (शंकर:) महादेव या शंकर (जटाधारी) चारपाई पर सोने वाले और (गिरिपतितनयापांगलीलानविद्ध) हिमालय की पुत्री पार्वती को प्रेम भरी टेड़ी नजरों से परिपीड़ित हैं अर्थात् शम्भु जी भी स्त्री प्रेम में डूबे हुए हैं। (विष्णु:) विष्णु (चक्राधिप:) सुदर्शनचक्र रत्न के स्वामी (सन्) होते हुए भी (गोपनाथस्य) ग्वालों के राजा की (दुरहितम्) पुत्री को (अगमत्) सेवन करने वाले हुए (अर्थात्) श्री कृष्ण भी परस्त्री में आसक्त हैं इन सब में (विध्वस्तराग:) राग का विनाश करने वाला अर्थात् पूर्ण वीतरागी (जितसकलभय:) और समस्त प्रकार से भय को जीतनेवाला (अयम्) यह (आप्तनाथ:) सर्वज्ञ हितोपदेशी तीनलोक का स्वामी (अर्हन्) अरिहन्त परमेष्ठी अर्थात् आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करने वाले चारों घातियां कर्मों को जीतनेवाले (कः) कौन (अस्ति) हैं ? अर्थात् उक्त तीनों में ऐसा कोई भी नहीं है, जो अरहंत कहलाने का अधिकारी हो। ऐसा अरहन्त तो उन तीनों में से भिन्न भगवान् श्री जिनेन्द्र ही हो सकता है अन्य नहीं ।

एको नृत्यति विप्रसार्य ककुभां चक्रे सहस्रं भुजानेक: शेषभुजंगभोगशयने व्यादाय निद्रायते। द्रष्टुं चारुतिलोत्तमामुखमगादेकश्चतुर्वक्त्रता-मेते मुक्तिपथं वदन्ति विदुषामित्येतदत्यद्भुतम् ।।८।।
अन्वयार्थ :- (एक:) शिव जी (सहस्रम्) हजार (भुजान्) भुजाओं को (विप्रसार्य) फैला कर (ककुभां) दिशाओं के (चक्रे) मंडल में (नृत्यति) नृत्य करते हैं। (एक:) श्री विष्णु जी (शेषभुजंगभोगशयने) शेषनाग के शरीररूप शय्या पर (व्यादाय) मुख को खोल कर (निद्रायते) सोते हैं । (एकः) ब्रह्मा जी (चारुतिलोत्तमामुखं) सुन्दर तिलोत्तमा नामक
देवाप्सरा के मनोहर मुख को (द्रष्टुं) देखने के लिए (चतुर्वक्त्रतां) चार मुखपना को (अगात्) प्राप्त हुए अर्थात् चार मुख वाले बने (ऐते) ये तीनों शंकर, विष्णु, ब्रह्मा (विदुषाम्) विद्वानों को (मुक्तिपथम्) मोक्षमार्ग को (वदन्ति) कहते हैं अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं (इति एतत्) यह ( अत्यद्भुतम्) बड़े आश्चर्य की बात है।

यो विश्वं वेदवेद्यं जननजलनिधे-र्भंगिनः पारदृश्वा, पौर्वापर्य-विरुद्धं वचन-मनुपमं निष्कलंकं यदीयम् ।
तं वन्दे साधुवन्द्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तं, बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ।।९।।

अन्वयार्थ**:- (य:) जो (वेद्यम्) जानने योग्य (विश्वं) जगत् को (वेद) जानता है और जो (भंगिन:) नाना प्रकार के शोक, भय, पीड़ा, चिन्ता, आरति, खेद आदि रूप तरंगों वाले (जननजलनिधे:) संसाररूप समुद्र के (पारदृश्वा) पार को देख चुका है, और (यदीयं) जिसका (पौर्वापर्यविरुद्धं) पूर्वापर विरोध रहित है (निष्कलंकम्) निर्दोष (अनुपमम्) उपमा रहित (वचनं) वचन (अस्ति) है (ध्वस्तदोष-द्विषन्तम्) रागादि दोष-रूपी शत्रु के नाशक (सकलगुणनिधिम् ) समस्त गुणों के प्रकाशक (साधुवन्द्यम्) बड़े-बड़े मुनीश्वर द्वारा (वन्द्य) वन्दनीय (तम्) उस महान् परमात्मा की (अहम्) मैं (वन्दे) वन्दना करता हूँ, नमस्कार और स्तुति करता हूँ चाहे वह (बुद्धं) बुद्ध (वा) अथवा (वर्द्धमानं) वर्द्धमान (शतदलनिलयं) ब्रह्मा (केशवं) विष्णु (वा) अथवा (शिवं) महादेव कोई भी हो।

माया नास्ति जटाकपाल-मुकुटं चन्द्रो न मूर्द्धावली, खट्वांगं च वासुकिर्न च धनुः शूलं न चोग्रं मुखं ।
कामो यस्य न कामिनी न च वषो गीतं न नृत्यं पुन:, सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः सर्वत्रसूक्ष्मः शिवः ।।१०।।

अन्वयार्थ:- (यस्य) जिसके (माया) नाना प्रकार के रूप स्वांग बनाना (न) नहीं (अस्ति) है (जटा) जटा (कपालमुकुटम्) कपाल-मुकुट (न) नहीं (अस्ति) है ( चन्द्रः) चन्द्रमा (मूर्द्धावली) मूर्द्धावली (न) नहीं (अस्ति) है। (खट्वांगम्) खट्वांग अस्त्र विशेष हथियार (न) नहीं (अस्ति) है (वासुकि:) सर्प (न) नहीं (अस्ति) है (च) और (धनु) धनुष (न) नहीं (अस्ति) है (शूलं) त्रिशूल (न) नहीं (अस्ति) है (उग्रम्) भयंकर क्रोध के कारण भयावना
(मुखम्) मुख (न) नहीं (अस्ति) है (काम:) काम (न अस्ति) नहीं है (च) और (यस्य) जिसके (कामिनी न अस्ति) स्त्री नहीं है (च) और (वृष न अस्ति) बैल नहीं है (गीतं न अस्ति) गीत-गाना नहीं है । (नृत्यं न अस्ति) नाचना नहीं है। (स:) वही (निरञ्जन:) कर्ममल रहित (सूक्ष्म:) सूक्ष्म (शिव) शिव (जिनपति:) जिनेन्द्रदेव (सर्वत्र) सर्व जगह तीनों लोकों में (अस्मान्) हम सबकी (पातु) रक्षा करें।

नो ब्रह्मांकितभूतलं न च हरे शम्भोर्न मुद्रांकितं, नो चन्द्रार्ककरांकितं सुरपतेर्वज्रांकितं नैव च ।
षड्वक्त्रांकितबौद्धदेवहुतभुग्यक्षोरगैर्नांकितं, नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्रांकितम् ।।११।।

अन्वयार्थ:- (वादिन:) हे ईश्वर के स्वरूप में विवाद करने वाले वाले महानुभाव! आप लोग (इदं) इस (जगत्) संसार को (नग्न) दिगम्बर (जैनेन्द्रमुद्रांकितं) वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी श्री जिनेन्द्रदेव की मुद्रा से युक्त (पश्यत) देखो (ब्रह्मांकितभूतलं) ब्रह्मा से व्याप्त भूमिवाला (नो) नहीं (पश्यत) देखो (च) और (हरे:) श्रीकृष्ण की (मुद्रांकितं) मुद्रा से व्याप्त (न) नहीं (पश्यति) देखो (शम्भो:) महादेव की (मुद्रांकितं न पश्यत) मुद्रा से व्याप्त नहीं देखो (चन्द्रार्ककरांकितं) चन्द्रमा और सूर्य की किरणों से व्याप्त (नो) नहीं (पश्यत) देखो (च) और (षड्वक्त्रांकितबौद्धदेवहुतभुग्यक्षोरगैः) गणेश, बौद्ध, देव, अग्नि, यक्ष और शेषनाग से व्याप्त (नो पश्यत) नहीं देखो।

मौञ्जी-दण्ड-कमण्डलुप्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणो, रुद्रस्यापि जटाकपालमुकुटं कौपीन-खट्वांगना ।
विष्णोश्चक्र-गदादि-शंखमतुलं बुद्धस्य रक्ताम्बरं, नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्रांकितम् ।।१२।।

अन्वयार्थ :- (मौञ्जी दण्डकमण्डलुप्रभृतय:) मूंज की बनी हुई रस्सी (कमरबन्ध) दण्ड कमण्डलु, जलपात्र आदि पदार्थ, (ब्रह्मण: कौपीनखट्वांगना) लँगोटी खट्वा-अस्त्र विशेष हथियार, अंगना-स्त्री पार्वती (रुद्रस्य) महादेव के (लाञ्छनं) चिन्ह, परिचायक, निशान (नो अस्ति) नहीं है (अतुलं) तुलना-उपमा रहित (चक्रगदादिशंखम्) सुदर्शन चक्र, गदा और शंख आदि (विष्णो:) विष्णु के (लांछनं) चिन्ह (न: अस्ति) नहीं हैं (रक्ताम्बरं) लाल वस्त्र धारण करना (बुद्धस्य) बुद्ध (लाञ्छनम्) चिन्ह (नः अस्ति) नहीं है। किन्तु (जैनेन्द्रमुद्रांकितं) श्री जिनेन्द्रदेव की परमशान्त मुद्रा से
चिन्हित (नग्नं) दिगम्बर अवस्था ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और बुद्ध का यथार्थ चिन्ह है । अतएव (वादिनः) हे वादियों! आप लोग (इदम्) इस जगत् को उसी जैनेन्द्र मुद्रा से व्याप्त या चिंहित (पश्यत) देखो, अन्य मुद्रा से चिन्हित नहीं।

नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणे-केवलम्, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया ।
राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मन:, बौद्धोघान्सकलान् विजित्यसघट: पादेन विस्फालितः ।।१३।।

अन्वयार्थ :- (मया) मुझ अकलंक ने (अहंकारवशीकृतेन) मान के वश में किए गए (मनसा) मन से (न) नहीं (द्वेषिणा) द्वेष से भरे हुए (मनसा) मन से भी (न) नहीं । किन्तु (नैरात्म्यम्) आत्मा के शून्यत्व को (प्रतिपद्य) जानकर-स्वीकार करके (जने) मनुष्यों के (नश्यति) मोक्षमार्ग से भ्रष्ट होने पर (कारुण्यबुद्धया) करुणामय बुद्धि से ही (राज्ञः) राजा (श्रीहिमशीतलस्य) हिमशीतल की (सदसि) सभा में (विदग्धात्मनः) मूढ़ अज्ञानी-मोहान्धकार से अन्धे (सकलान्) सभी (बौद्धौघान्) बुद्धभक्तों के समुदाय को अर्थात् जिन्हें विद्वत्ता का अभिमान था, जो अपने को अजेय मानते थे, उन सबको (विजित्य) जीत करके (सः) उस (घटः) घड़े को (पादेन) पैर से (विस्फालितः) फोड़ दिया।

खट्वांगं नैव हस्ते न च हृदि रचिता लम्बते मुण्डमाला, भस्मांगं नैव शूलं न च गिरिदुहिता नैव हस्ते कपालं ।
चन्द्रार्द्ध नैव मूर्धन्यपि वृषगमनं नैव कण्ठे फणीन्द्र:, तं वन्दे त्यक्तदोषं भवभयमथनं चेश्वरं देवदेवम् ।।१४।।

अन्वयार्थ :- (यस्य) जिसके (हस्ते) हाथ में (खट्वांगं) खट्वांग अस्त्र विशेष-हथियार (न अस्ति) नहीं है (च) और (यस्य) जिसके (हृदि) वक्षस्थल पर, (रचिता) गुंथी हुई (मुण्डमाला) मुण्डमाला (न) नहीं (लम्बते) लटक रही है। (यस्य) जिसके (भस्मांगम्) शरीर में राख नहीं है, (च) और (शूलं) शूल या त्रिशूल (न अस्ति) नहीं है। (गिरिदुहिता) हिमालय की पुत्री पार्वती (न अस्ति) नहीं है (हस्ते) हाथ में (कपालं) कपाल नर खोपड़ी (न अस्ति) नहीं है (यस्य) जिसके (मूर्धनि) मस्तक पर (चन्द्रार्द्धम्) अर्धचन्द्र (न अस्ति) नहीं है (अपि) और (वृषगमनं) बैल पर सवारी (न अस्ति) नहीं है (कण्ठे) गले में (फणीन्द्र: नैव अस्ति) सर्प भी नहीं है । ऐसे (तम्) उस (देवदेवम्) देवाधिदेव श्री अर्हंतदेव को (अहं) मैं (वन्दे) वंदना या नमस्कार करता हूँ। (यः) जो (त्यक्तदोषं) राग-द्वेष, मोह आदि समस्त दोषों से रहित है (भवभयमथनं) संसार के भय का विनाशक है (ईश्वरम्) तीन लोक का एकमात्र अधीश्वर है ।

कि वाद्योभगवान् मेयमहिमा देवोऽकलंकः कलौ, काले यो जनतासुधर्मनिहितो देवोऽकलंको जिनः ।
यस्य स्फारविवेकमुद्रलहरी जाले प्रमेयाकुला, निर्मग्ना तनुतेतरां भगवती ताराशिरः कम्पनम् ।।१५।।

अन्वयार्थ:- (यस्य) जिस (भगवान्) भट्टाकलंकदेव के (स्फारविवेकमुद्रलहरी जाले) विशाल ज्ञानरूप समुद्र की तरंगों के समूह में (निर्मग्ना) डूबी हुई अतएव (प्रमेयाकुला) अपार प्रमेय-पदार्थों से आकुल-व्याप्त भरी हुई (भगवती) भगवती श्रुतदेवी ने (ताराशिर: कम्पनं) तारादेवी के मस्तक के हिलाने की क्रिया को (तनुतेतराम्) विस्तारा और (य:) जिस भट्टाकलंकदेव ने (कलौ काले) इस कलिकाल पंचमकाल में (जनतासुधर्मनिहितः) जनता को उत्तम-श्रेष्ठ जैनधर्म में लगाया (स:) वह (अकलंक:) अकलंक (देवः) देव मिथ्यात्व आदि कलंक से रहित अतएव (जिनः) मिथ्यात्व विजेता हैं (य:) जो भगवान् के यथार्थ तत्ववेता हैं । (अमेयमहिमा) चारित्रादि महान गुणों की गरिमा से अपार माहात्म्यवान् हैं। (किं) क्या (वाद्यः) शास्त्रार्थ करने योग्य हैं, नहीं, कभी नहीं । अर्थात् ऐसे लोकोत्तर ज्ञानी के साथ कौन ऐसा है ? जो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत करेगा अर्थात् कोई भी नहीं।

सा तारा खलु देवता भगवतीं मन्यापि मन्यामहे, षण्मासावधि जाड्यसांख्यमगमद् भट्टाकलंकप्रभो: ।
वाक्कल्लोलपरम्पराभिरमते नूनं मनो मज्जनं, व्यापारं सहते स्म विस्मितमतिः सन्ताडितेतस्ततः ।।१६।।

अन्वयार्थ :- (भगवतीम्मन्या) अपने को भगवती सर्वोपरिज्ञान वाली मानने वाली (सा) वही (तारा) तारा नाम की (देवता) देवी (खलु) ऐतिहासिक घटना के अनुसार भगवान् श्री भट्ट अकलंकदेव के साथ (षण्मासानुधि) छ: माह तक लगातार शास्त्रार्थ करती रही तथापि (भट्टाकलंकप्रभो:) भगवान् श्री भट्टअकलंकस्वामी के (वाक्कल्लोलपराम्पराभि:) अकाट्य-युक्तियुक्त तार्किक वचन रचना रूप महातरंगों की परम्पराओं से (सन्ताडिता) पराजय को प्राप्त हुई । अतएव (जाड्यसांख्यम्) वस्तु स्वरूप से सर्वथा अपरिचित अज्ञानियों की गणना को (अगमत् ) प्राप्त हुई। अज्ञानता से पराजित होने के कारण (विस्मितमति:) आश्चर्यान्वित हो (नूनं) निश्चय से खिसयानी बिल्ली के समान (अमते) मिथ्यावस्तु स्वरूप को सर्वथा विपरीत प्रतिपादन करने वाले बौद्धों के एकान्त मत में ही (इतस्तत:) इधर-उधर किसी भी प्रकार से (मनो मज्जनं व्यापारं) मन को स्थिर करने की कठिनाईयों को (सहते स्म) सहने लगी (एवं) ऐसा (वयं) हम (मन्यामहे) मानते हैं ।

||इति भट्टाकलंकदेवविरचितम् अकलंक-स्तोत्रम्||

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