हम चर्चा करते आये हैं | Hum Charcha karte aaye hain

अरे जयन्ती निर्वाणों की हम चर्चा करते आये हैं
दीप धूप से सत्पुरुषों की अर्चा भी करते आये हैं
संतों ने जग में जो छोड़ा हमने उसको शीघ्र बटोरा
वही किया है हमने भी तो करता है जो एक लुटेरा
हमने कितने पर्व मनाये, देखी कितनी दीपावलियाँ
किन्तु ढूंढने पर भी जग में, हम-सा निकलेगा क्या छलिया?

हमें विश्व का ज्ञान नहीं है उसमें भी कुछ होता होगा
हम समझे हैं सारा जग भी हम-सा ही तो सोता होगा
हमें ज्ञान भी क्यों हो जग का, जब हम स्वयं हमारे स्वामी
जब कर्मों ने हमें बांट दी अपनी निधियां न्यारी-न्यारी
अपने पुण्य भोगने का भी, क्या हमको अधिकार नहीं है?
कर्म-जन्य वैषम्य अरे क्या इसका भी प्रतिकार कहीं है?

जग की भूख दरिदावस्था एक पलक में उड़ जाती है
कर्मवाद की तेज कटारी, जब तर्कों में चल जाती है।
सदियों से हम करते आये धर्म, इंच पर हिल ना पाये
अपने जहरीले मानस को ज्ञान-सुधा से सींच ना पाये
महा खोखला जीवन उससे परहित भी फिर क्यों हो पाये
अपने और पराये की ही खाई जब तक पट ना जावे

महापुरुष तो जग में आते-जाते जग को दे जाते है
किन्तु जौहरी ही हीरों का अद्भुत मोल चुका पाते हैं
हमने चाहा विश्व हमारा जीते जी जो चाहे ले ले
चाहे फिर निर्धन के प्राणों से हम खुलकर होली खेलें
आज विश्व में जो हम सुनते हाहाकारों का वह गर्जन
अत्याचारों-व्यभिचारों का, होता भीषण नंगा-नर्तन

हमी अरे उसके दोषी हैं, स्वयं पुण्य भी है अपराधी
जिसने जग के सुख के सुन्दर उद्यानों में आग लगा दी
युग निर्माण चाहता है पर हम निर्वाण किये जाते हैं
युग अभियान चाहता है, पर हम पीछे हटते जाते हैं
भौतिक आध्यात्मिक जीवन में श्रम को महा महत्व मिला है
जीवन के इस मूल तत्व को हमने पैरों से कुचला है

जीवन में विश्राम हेतु जो सत्पुरुषों ने वृक्ष लगाये
हमने केवल तोड़-तोड़ कर निर्दय हो उनके फल खाये
महापुरुष है जो जीवन में मल-मल जग की कालिख धोता
पर हमने तो उनके मुंह पर, जी भर-भर कर कालिख पोता
उनके क्षणभर के जीवन से यह जीवन ही लहरा जाता
यदि थोड़ा भी हमने उनसे जोड़ा होता जीवन-नाता

उनका एक-एक अक्षर भी जीवन समन खिला जाता है
पारस का लघु कण लोहे को, देखो स्वर्ण बना जाता है
बुझा ज्ञान का दीप और सब मुरझा गई हृदय की कलियाँ
क्यों न विडम्बन होगा यह, हम आज मनाते दीपावलियाँ?

Artist: श्री बाबू जुगलकिशोर जैन ‘युगल’ जी
Source: Chaitanya Vatika