हे जिन तेरे मैं शरणै आया | He jin tere main shran aaya

हे जिन तेरे मैं शरणै आया।
तुम हो परमदयाल जगतगुरु, मैं भव भव दुःख पाया ।।हे जिन. ।।

मोह महा दुठ घेर रह्यौ मोहि, भवकानन भटकाया।
नित निज ज्ञान चरन निधि विसर्यो, तन धनकर अपनाया ।।1।।हे जिन…।।

निजानंद अनुभव पियूष तज, विषय हलाहल खाया।
मेरी भूल मूल दुखदाई, निमित मोहविधि थाया ।।2।।हे जिन…।।

सो दुठ होत शिथिल तुमरे ढिग, और न हेतु लखाया।
शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तू, सुयश मुनीगन गाया ।।3।।हे जिन…।।

तुम हो सहज निमित जगहित के, मो उर निश्चय भाया।
भिन्न होहुँ विधि तैं सो कीजे, ‘दौल’ तुम्हें सिर नाया ।।4।।हे जिन…।।

Artist - पंडित दौलतराम जी

Meaning:
हे जिनदेव! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैंने जन्म-जन्मान्तरों में अनेक दुख पाए हैं। आप परम दयालु हैं, कृपालु हैं। मुझे अति दुष्ट मोह ने घेरकर इस संसार-समुद्र में बहुत भटकाया है, जिसके कारण मैं अपने ज्ञान और आचरणरूपी निधि-संपत्ति को भी भूल गया और तन - धन को ही महत्त्वपूर्ण मानकर इन्हें ही अपनाता रहा, उनमें ही रत रहा।

अपने आत्मा के आनन्द की अमृत-सरीखी अनुभूति को छोड़कर, हलाहल विष का सेवन करता रहा। मेरी यह भूल अत्यन्त दु:खमयी है, जिसके लिए मैंने मोहनीय कर्म को निमित्त ठहराया है।

वह दुष्ट आपके ही समीप शिथिल हुआ है, आपके अतिरिक्त अन्य कोई इसका आधार हेतु नहीं है। आप साक्षात् मोक्ष-स्वरूप को/मोक्षमार्ग को दिखाने वाले हैं, मुनिजन सदैव आपका यशगान करते हैं, स्तुति करते हैं, वंदना- स्मरण करते हैं।

आप जगत के कल्याण के लिए सहज निमित्त कारण हो, यह मुझे निश्चय हो गया है। दौलतराम शीश नमाकर (झुकाते हुए) कहते हैं कि ऐसा कीजिए जिससे मैं कर्म-श्रृंखला से सर्वथा अलग हो सकूँ, छूट सकूँ |

3 Likes