ज्ञाता दृष्टा राही हूँ | Gyata Drishta rahi hun

ज्ञाता द्वष्टा राही हूँ अतुल सुखों का ग्राही हूँ ।
बोलो मेरे संग, आनन्दघन आनन्दघन ॥

आत्मा में रमूंगा मैं क्षण-क्षण में ।
चाहे मेरा ज्ञान जाने निज पर को
अपने को जाने बिना लूंगा नहीं दम
आगम ही आगम बढ़ाऊँगा कदम।
सुख में दुःख में, दु:ख में सुख में एक राह पर चल–||१ ।।

धूप हो या गर्मी बरसात हो जहाँ
अनुभव की धारा बहाऊँगा वहाँ
विषयों का फिर नहीं होगा जनम
आगम ही आगम बढ़ाऊँगा कदम
सुख में दु:ख में, दु:ख में सुख में एक राह पर चल–॥२॥

गुण अनन्त का स्वामी हूँ मैं मुझमें ये रतन
गणधर भी हार गये कर वर्णन
अनुपम और अद्भुत है मेरा ये चमन
आगम ही आगम बढ़ाऊँगा कदम
सुख मे दु:ख में दुःख मे सुख में एक राह पर चल–॥३॥

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