ज्ञानमात्र ही प्रतिक्रमण है | Gyanmatra hi pratikraman hai

(तर्ज : आओ भाई तुम्हें सुनायें … )

ज्ञानमात्र ही प्रतिक्रमण है, ज्ञान ही प्रत्याख्यान है।
ज्ञामयी आलोचन सुखमय, ज्ञानभाव भगवान है॥ १॥

ज्ञान ही जानो संवर, निर्जर, ज्ञान ही मुक्ति स्वरूप है।
ज्ञान विरोधी मिथ्या परिणति, आमस्रव बंध कुरूप है॥ 2॥

भूल ज्ञान को फिरे भटकता, ज्ञान गहे भवपार है।
ज्ञान मात्र ही है अध्यातम, ज्ञान समय का सार है॥ 3॥

मोह क्षोभ से रहित ज्ञान ही, समायिक सुख दाता है।
ज्ञान की महाशरण पाकर भवि, स्वयं सिद्ध पद पाता है॥ 4॥

ज्ञान मात्र में सीमित हो, तब मंगलमय समिति जानो।
ज्ञान मात्र में होय गुप्त, आनंदमयी गुप्ति मानो॥ 5॥

ज्ञान मात्र में रत होने पर ही ब्रत सम्यक्‌ होते हैं।
ज्ञान मात्र में विश्रान्ति मय ही तप सुखमय होते हैं॥ 6॥

ध्यान-ज्ञानमय ही तुम जानो, ज्ञान ही आत्म स्वरूप है।
रतत्रय आराधन दशलक्षण भी ज्ञान स्वरूप है॥ 7॥

मुक्तिमार्ग के सभी मार्ग, अरु मुक्ति ज्ञानमय जान।
तोरि सकल जग दुंद्न-फंद, निज ज्ञान आत्म पहिचान॥ 8॥

ज्ञानमूर्ति पाँचों परमेष्ठी, ज्ञानमयी शुद्धात्मा।
ज्ञान की महिमा ज्ञान सु जाने, होय स्वयं सिद्धात्मा॥ 9॥

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण