ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी, नेमिजी ! तुम ही हो ज्ञानी ॥ टेक ॥
तुम्हीं देव गुरु तुम्हीं हमारे, सकल दरब जानी ॥
तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी ।
आप तरे भविजीवनि तारे, ममता नहिं आनी । ज्ञानी. ।। १ ।।
और देव सब रागी द्वेषी, कामी कै मानी।
तुम हो वीतराग अकषायी, तजि राजुल रानी ॥ ज्ञानी. ॥ २ ॥
यह संसार दुःख ज्वाला तजि, भये मुकतथानी ।
‘द्यानत’ दास निकास जगततैं, हम गरीब प्रानी ॥ ज्ञानी. ॥ ३ ॥
अर्थ: हे नेमिनाथ भगवान! आप ज्ञानी हो।
आप ही हमारे देव हैं, आप ही गुरु हैं। आप सभी द्रव्यों को उनके गुणों और पर्यायों सहित जानते हैं।
तीन लोक में आपके समान वीतरागी कोई देव नहीं है यह सत्य भली प्रकार जान लिया है। आप स्वयं इस भवसागर से तिर गए, यह औरों को भी इस भवसागर से पार हो जाने में निमित्त (बनता है, सहायक है, परन्तु इसमें मोह- ममता नहीं है। आप वीतराग हैं।
अन्य सभी देव राग-द्वेष सहित हैं या तो वे कामनायुक्त अथवा मान से पीड़ित हैं। परन्तु आप वीतरागी हैं कषायरहित हैं, आपने अपनी होने वाली रानी राजुल को छोड़कर तप किया है।
आप इस संसार के दुःखों की अग्नि को छोड़कर मोक्ष के वासी हो गये।
द्यानतराय जी कहते हैं कि भगवन्! हम दीन हैं, असहाय हैं, बेबस हैं, हमें इस जगत से बाहर निकालिए, जगत से मुक्त कीजिए।
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ