ग्यान प्रधान लहा महावीर ने,
सेनिक आनंद भेरि बजाई।
मत्त मतंग तुरन्त बड़े रथ, ’
द्यानत’ सोभत इन्द्र सवाई।
वांभन छत्रिय वेस जु सूद,
सुकामनि भीर घटा उमड़ाई।
कान परी न सुनै कोऊ बात,
सु धूर के पूर कला रवि छाई॥
अर्थ :- जब भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ तो राजा श्रेणिक ने चारों ओर आनन्द-भेरी बजवाई। नाना प्रकार के मत्त हाथी, घोड़े, रथ आदि वाहनों पर बैठकर भगवान के दर्शनों के लिये आये हुए राजा श्रेणिक की शोभा इन्द्र से भी अधिक थी। भगवान के दर्शनों के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र –सभी वर्गों के स्त्री-पुरुषों की अपार भीड़ एकत्रित हुई।
कविवर द्यानतराय कहते हैं कि उस भीड़ के कारण इतना शोरगुल हो रहा था कि कोई बात किसी के कानों में सुनाई नहीं पड़ती थी। वाहनों के पदक्षेप से इतना धूल का पूर उठा कि सूर्य की आभा भी उससे आच्छादित हो गई।
Artist: कविवर द्यानतरायजी