ज्ञानमय चर्चा/ Gyaanmay Chrcha

ज्ञानमय चर्चा

पुण्य पर भी भरोसा हमें है नहीं,
व्यर्थ संक्लेशता प्रति समय धारते ।
इष्ट के तो बिछुड़ने की चिंता करें,
चिंता करते हुए धर्म को त्यागते ।। 1।।

जग के दुःख की तो परवाह नहीं हम कहें,
बाह्म वैभव भी प्रभु से अरे ! माँगते।
छाया माँगे बिना पेड़ से यहाँ मिले,
फिर भी चाहें न किंचित् भी शरमावते ।। 2 ।।

धर्म त्यागे से तो दुःख बढ़ता रहे,
ज्ञानी दुःख में भी धर्म अतः धारते ।
धैर्य पूर्वक सदा तत्त्व चिंतन करें,
बाह्य कार्यों की चिंता नहीं लावते ।। 3।।

भिन्न अनुभव करें आत्मा को सदा,
निज के वैभव में दृष्टि को धरते रहे ।
होवे चंचलता मन में कदाचित् कभी,
तत्त्व चिंतन में उपयोग धरते रहे ।। 4।।

कभी गाथा पढ़ें तीर्थंकर आदि की,
कभी वस्तु स्वभाव सुमरते रहें ।
कभी कर्म विपाक का निर्णय करें,
कभी चरणानुयोग को पढ़ते रहें ।। 5 ।।

कभी चर्चा करें, कभी भक्ति करें,
कभी चितंन मनन और ध्यान धरें ।
कभी मुद्रा लखें प्रभु की नासाग्रमय,
यों ही भावों की संभाल करते रहें ।। 6 ।।

होता पर लक्ष्य से दुःख श्रद्धा परम,
पर से भिन्न ‘मैं ज्ञायक हूँ’ लखते रहें ।
ये ही साधन प्रभु ने कहा सुख का,
व्यर्थ कर्त्तृत्व तज सुख शाश्वत लहें ।। 7 ।।

-जिन-भक्ति सिंधु
रचयिता - आदरणीय बाल ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र जी आत्मन

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