गुरु वंदना | Guru vandana

गुरु वन्दना

बन्दौं दिगम्बर गुरु वरन, जग-तरनतारन जान;
जे भरम-भारी रोग को हैं, राज वैद्य महान ।

जिनके अनुग्रह बिन कभी, नहिं कटै कर्म-जंजीर;
ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक-पीर ।।

यह तन अपावन अथिर है, संसार सकल असार,
ये भोग विष-पकवान से, इह भांति सोच-विचार ।

तप विरचि श्री मुनि वन बसे, सब छांडि परिग्रह भीर;
ते साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर ।

जे काच कंचन सम गिनहिं, अरि-मित्र एक सरूप;
निन्दा-बढ़ाई सारिखी, वन-खण्ड शहर अनूप ।

सुख-दुःख जीवन-मरन में, नहिं खुशी, नहिं दिलगीर;
ते साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर ।

जे बाह्य परवत वन बसैं, गिरि-गुफा-महल मनोग;
सिल-सेज समता-सहचरी, शशि-किरन-दीपक जोग ।

मृग मित्र, भोजन तप-मई, विज्ञान-निरमल नीर;
ते साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर ।

सूखहिं सरोवर जल भरे, सूखहिं तरंगिनी तोय;
बाटहिं बटोही ना चलै, जहँ धाम गरमी होय ।

तिहँकाल मुनिवर तप तपहिं, गिरि-शिखर ठाड़े धीर;
ते साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर।

घनघोर गरजहि घन-घटा, जल परहि पावस-काल;
चहुँओर चमकहिं बीजुरी, अति चलै सीरी ब्याल।

तरु-हेठ तिष्ठहिं तब जती, एकान्त अचल शरीर;
ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर ।

जब शीत मास तुषारसों, दाहै सकल बन-राय;
जब जमैं पानी पोखरां, थरहरै सबकी काय ।

तब नगन निवसैं चौहटें, अथवा नदी के तीर;
ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर ।

कर जोर ‘भूधर’ बीनवै, कब मिलहिं वे मुनिराज;
यह आश मन की कब कलै, मम सरहिं सगरे काज ।

संसार-विषम-विदेश में, जे बिना कारण वीर;
ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर।

रचयिता:- कविवर भूधरदास जी

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