गुरु स्मरण । Guru smaran

गुरु-स्मरण

(तर्ज- आत्मा हूँ, आत्मा हूँ)

परमार्थ से गुरु आत्मा का आत्मा।
व्यवहार से निर्ग्रन्थ गुरु शुद्धात्मा ॥टेक ॥

आत्मा ही सुख की इच्छा करे,
आत्मा ही सुख का उद्यम करे।
स्वयं की ही भूल से भव में भ्रमे,
भूल तज कर मोक्षमार्गी भी बने।
साधना से हो स्वयं परमात्मा ॥ परमार्थ ॥ १ ॥

तत्त्व समझे शिष्य होकर स्वयं ही,
अन्तरंग में फिर विचारे स्वयं ही ।
तत्त्वनिर्णय भी करे जब स्वयं ही,
भेदविज्ञानी बने जब स्वयं ही ।
स्वयं ही अनुभव करे शुद्धात्मा ॥ परमार्थ ॥२॥

आत्महित की भावना भाता जभी,
हेय तज उपादेय को पाता तभी ।
जग प्रपंचों को तजि निर्ग्रन्थ हो,
सहता परीषह भी सहज निर्द्वन्द्व हो ।
आत्मा में मग्न हो तब आत्मा ॥ परमार्थ ॥ ३ ॥

परम आनन्दमय सहज ही तृप्त हो,
क्षपक-श्रेणी भी चढ़े तब सहज हो
घाति कर्मों से सहज ही रहित हो,
अनन्त चतुष्टयरूप तब परिणमित हो ।
हो स्वयंभू स्वयं ही परमात्मा ॥ परमार्थ ॥४॥

शिवमार्ग की होवे परम प्रभावना,
आराध्य होके कर स्वयं आराधना।
सर्व कर्मों से रहित ध्रुव सिद्ध हो,
सहज शाश्वत रूप ही प्रसिद्ध हो ॥
आवागमन से रहित हो सिद्धात्मा ॥ परमार्थ ॥५॥

आत्मन्! अब तो पराई आस तज,
निःशङ्क हो निरपेक्ष हो निज भाव भज ।
सहज पाने योग्य सब ही पायेगा,
छूटने के योग्य सब छुट जायेगा ॥
पूर्ण वैभववान निज शुद्धात्मा ॥ परमार्थ ॥६॥

स्मरण करता गुरो ! मैं भक्ति से
देखता निज में ही निज की शक्ति से
निश्चिंत हो एकाग्र हो ध्याऊँ गुरो ! ।
आप सम निर्ग्रन्थ पद पाऊँ गुरो !
उपकार गुरुवर! मैं लखा शुद्धात्मा ॥ परमार्थ ॥७॥

~ब्र० रवींद्र जी ‘आत्मन’

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