श्री गुरु बार-बार यह सीख देते हैं, उपदेश देते हैं कि विष के समान इन इंद्रिय-भोगों को तू दूर हटा दे, छोड़ दे।
इन विषय-भोगों को भोग-भोग कर, इन्हें मान्यता देकर अनेक बार तू जन्म मरण धारण करता रहा है।
इन कर्मों का आसरा/आधार लेकर दुःखसहित बंधन को, उलझनभरी जकड़न को कसता रहा, नवीन कर्म-बंध से पुष्ट करता रहा।
ये विषय-भोग इन्द्रियों को कभी तृप्त कर ही नहीं पाते, इंद्रिय-विषयों से कभी संतुष्टि नहीं होती, जिस प्रकार खारे जल से प्यास नहीं मिटती।
इनमें सुख की कल्पना करना बुद्धिहीनता है, अविवेक है । बुद्धिमान तो इनमें दुःख ही मानता है।
इनको छोड़कर जिसने ज्ञानामृत का पान किया. दौलतराम कहते हैं कि वह ही भवसागर के पार हो गया।
Shri Guru repeatedly teaches this, preaching that you remove these senses like poison, remove them and leave them.
You have been wearing birth and death many times by giving recognition to these subjects and enjoyments.
Taking the help / basis of these deeds, he continued to tighten the unhappy bond, confusing tightness, and reinforced the new karma-bandha.
These subjects never satisfy the senses, there is never any satisfaction with the senses, just as the thirst does not disappear with salt water.
To imagine happiness in them is intelligence, indiscretion. The wise only believes in them.
Except for those who drank Jnanamrit. Daulatram says that he has crossed the Bhavsagar.