गिरनारिपै नेमि विराजत हैं ॥ टेक ॥
काउसग्ग लम्बित भुज दोऊ, वन गज पूजा साजत हैं। गिरः ॥ १ ॥ नासादृष्टि विलोक सिंह मृग, बैर जनमके भाजत हैं ॥ गिर. ॥ २ ॥
‘द्यानत’ सो गिरि वन्दत प्रानी, पुन्य बहुत उपराजत हैं। गिरः ॥ ३ ॥
अर्थ:
गिरनार पर्वत पर श्री नेमिनाथ स्वामी तप में लीन विराजमान हैं।
कायोत्सर्ग मुद्रा में हाथी के संमान, दोनों हाथ भुजाएँ लटकाए हुए वे अत्यन्त सुशोभित होते हैं।
उनकी नासाग्र दृष्टि को देखकर, सिंह और मृग आदि वन्यजीवों के जन्मजात वैर भी तिरोहित हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं। द्यानतराय जी कहते हैं कि जो इस पर्वत पर उनकी बन्दना करता है वह बहुत पुण्य उपार्जित करता है।
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी