गणधर वलय स्तोत्र। Gandhar Valay Stotra

गणधर-वलय-स्तोत्रम्

(उपजाति छन्द)

जिनान् जिताराति-गणान् गरिष्ठान्,
देशावधीन् सर्व-परावधींश्च ।
सत्-कोष्ठ-बीजादि-पदानुसारीन्,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ॥ 1 ॥

अन्वयार्थ:- (जित आराति) जीत लिया है घातिकर्म रूप शत्रुओं को जिनने ऐसे (जिनान्) जिनेन्द्र भगवान् को (गणान्) गुणों में ( गरिष्ठान्) श्रेष्ठ (देशवधीन्) देशावधि (सर्वपरावधीन् च ) सर्वावधि और परमावधि ज्ञान के धारक (सत् कोष्ठ बीज आदि पदानुसारीन्) कोष्ठ ऋद्धि, बीज ऋद्धि पदानुसारि आदि ऋद्धि के धारक (गणेशान् अपि) गणधर देवों की (तद्) उनके (गुणाप्त्यै) गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- घातिया कर्म रूपी शत्रुओं को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवन्तों को तथा गुणों में श्रेष्ठ, देशावधि-सर्वावधि-परमावधि ज्ञान के स्वामी, कोष्ठ ऋद्धि-बीज ऋद्धि-पदानुसारि प्रभृति महान् ऋद्धियों के अधिपति समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 1 ॥

संभिन्न-श्रोतान्वित-सन्-मुनीन्द्रान्,
प्रत्येक-सम्बोधित-बुद्ध-धर्मान् ।
स्वयं-प्रबुद्धाश्चविमुक्ति-मार्गान्
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ।। 2 ।।

अन्वयार्थः- ( संभिन्न श्रोतान्वित) संभिन्न श्रोतृत्व से सहित ( प्रत्येक सम्बोधित-बुद्ध) प्रत्येक बुद्ध, बोधितबुद्ध (च) और (स्वयं प्रबुद्धान् ) स्वयंबुद्ध जो (विमुक्ति मार्गान् धर्मान्) मोक्षमार्ग रूप धर्म के (सन्मुनीन्द्रान् ) सच्चे मुनियों के स्वामी हैं ऐसे ( गणेशान् अपि) देवों की ( तद्) उनके (गुणाप्त्यै) गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- जो संभिन्न श्रोतृत्व ऋद्धि से समन्वित हैं, प्रत्येक बुद्ध- बोधितबुद्ध-स्वयंबुद्ध हैं तथा जो मोक्षमार्ग स्वरूप धर्म के सच्चे मुनियों के स्वामी हैं; ऐसे समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ। 2 ||

द्विधा मनःपर्यय-चित्-प्रयुक्तान्,
द्विपञ्च - सप्तद्वय - पूर्व सक्तान् ।
अष्टांग-नैमित्तिक-शास्त्र-दक्षान्,
स्तुवे गणेशानपि तद् - गुणाप्त्यै ॥ ३ ॥

अन्वयार्थः - ( द्विधा मनः पर्ययचित्प्रयुक्तान्) जो दो प्रकार के मनःपर्ययज्ञान के धारक हैं, (द्विपञ्च) दस पूर्व (सप्तद्वयपूर्वसक्तान् ) चौदह पूर्व के धारक हैं, (अष्टाङ्गनैमित्तिक शास्त्र दक्षान्) और जो अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता तथा कुशल शास्त्रज्ञ हैं (गणेशानपि) उन गणधर देवों की ( तद्) उनके (गुणाप्त्यै) गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- जो उभय मनः पर्ययज्ञान के स्वामी हैं, जो दस पूर्व तथा चौदह पूर्व के स्वामी हैं, जो अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता हैं तथा कुशल- शास्त्रज्ञ हैं, उन समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 3 ॥

विकुर्वणाख्यर्द्धि - महा-प्रभावान्,
विद्याधरांश्चारण-ऋद्धि-प्राप्तान्।
प्रज्ञाश्रितान् नित्य-ख-गामिनश्च,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ।। 4 ।।

अन्वयार्थः- (महाप्रभावान्) महा प्रभावशाली (विकुर्वणाख्य ऋद्धि) विक्रिया नामक ऋद्धि के धारक, (विद्याधारन्) विद्याधारक (चारण-ऋद्धि प्राप्तान्) चारण ऋद्धि को प्राप्त, (प्रज्ञाश्रितान्) प्रज्ञावान् () और (नित्य) सदा (खगामिनः) आकाश में गमन करने वाले (गणेशानपि) गणधर देवों की (तद्) उनके (गणाप्त्यै) गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- जो महाप्रभावशाली विक्रिया ऋद्धि के स्वामी हैं, विद्याओं को धारण करने वाले हैं, चारण-ऋद्धि को प्राप्त हैं, प्रज्ञावान् हैं और नित्य ही गगन गामी हैं; उन समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 4 ॥

आशीर्विषान् दृष्टि-विषान् मुनीन्द्रा-
नुग्राति - दीप्तोत्तम - तप्ततप्तान् ।
महातिघोर - प्रतपः प्रसक्तान्,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ॥ 5 ॥

अन्वयार्थः- ( आशीर्विषान्) आशीर्विष, (दृष्टि विषान् ) दृष्टिविष ऋद्धि के धारक, (मुनीन्द्रान्) मुनियों के इन्द्र, (उग्रअति) अति उग्र/उग्रोग्र तप, (दीप्त उत्तम) उत्तम दीप्त तप, (तप्ततप्तान् ) तप्त तप/घोर तप; (महा अति घोर प्रतपः) महा अतिघोर प्रकृष्ट तप के धारक (गणेशानपि) गणधर देवों की (तद्) उनके (गुणाप्त्यै) गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- जो आशीर्विष और दृष्टिविष महान् ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं, मुनियों के इन्द्र हैं, उग्रतप-उत्तमदीप्त तप-घोरतप-महातिघोर प्रकृष्टतप के स्वामी हैं; उन समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 5 ॥

वन्द्यान् सुरै - र्घौर - गुणांश्चलोके,
पूज्यान् बुधै - र्घौर - पराक्रमांश्च ।
घोरादि-संसद् गुण ब्रह्मयुक्तान्,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ॥ 6 ॥

अन्वयार्थः- (सुरैः) देवों के द्वारा (वंद्यान्) वंदित (लोके पूज्यान्) लोक में पूज्य (घोरगुणान्) घोर गुणों के धारक () और (बुधैः पूज्यान्) लोक में ज्ञानियों के द्वारा पूज्य (घोरपराक्रमान् ) घोर पराक्रम धारक (घोरादिसंसद् गुणब्रह्मयुक्तान्) समीचीन श्रेष्ठ घोर गुण ब्रह्मचर्य आदि से युक्त, (गणेशानपि) गणधर देवों की ( तद्गुणाप्त्यै ) उनके गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- देवों से वंदित, लोक में पूज्य, घोर गुणों के धारक, लोक में स्थित ज्ञानियों/विद्वानों से वन्द्य, घोर-पराक्रम के अधिपति तथा समीचीन श्रेष्ठ घोर-गुण-ब्रह्मचर्य प्रभृति से युक्त समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 6 ॥

आमर्द्धि-खेलर्द्धि-प्रजल्ल-विडर्द्धि-
सर्वर्द्धि - प्राप्तांश्च व्यथादि-हंत्रन् ।
मनो-वचः काय-बलोपयुक्तान्,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ।। 7 ।।

अन्वयार्थ :- ( आमर्द्धि खेलर्द्धि प्रजल्लविडर्द्धि ) आमर्द्धि, खेलर्द्धि, प्रकृष्ट जल्लऋद्धि, विड्ऋद्धि (सर्वर्द्धिप्राप्तान् च) और सर्वऋद्धि प्राप्त (व्यथा आदि हंत्रन्) पीड़ा आदि को हरने वाले (मनः वचः काय बल उपयुक्तान्) मनोबल, वचन बल, काय बल ऋद्धि के युक्त; ( गणेशानपि) गणधर देवों की (तद्) उनके (गुणाप्त्यै) गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- जो आमर्द्धि, खेलर्द्धि, प्रकृष्ट-जल्ल-ऋद्धि, विड्-ऋद्धि और सर्व-ऋद्धि से संयुक्त हैं, जो समग्र पीड़ा/व्याधि को हरने वाले हैं तथा जो मनोबल, कायबल, वचनबल ऋद्धि से समन्वित हैं; उन समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 7 ॥

सत्क्षीर - सर्पि - र्मधुरामृतर्द्धीन्,
यतीन् वराक्षीण महानसांश्च ।
प्रवर्धमानांस्त्रिजगत् - प्रपूज्यान्,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ॥ 8 ॥

अन्वयार्थः - ( सत्क्षीर सर्पिः मधुर अमृत ऋद्धीन् ) समीचीन क्षीरस्रावी, सर्पिस्त्रावी, मधुरस्रावी और अमृतस्त्रावी ऋद्धि के धारक (वर अक्षीण महानसान् च ) श्रेष्ठ अक्षीण संवास और अक्षीण महानस ऋद्धियों से ( प्रवर्धमानान्) सुशोभित (त्रिजगत्प्रपूज्यान्) तीन लोक में पूज्य (यतीन्) यतिराज (गणेशानपि) गणधरों की (तद्गुणाप्त्यै) उनके गुणों की प्राप्ति के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- जो समीचीन क्षीरस्रावी, सर्पिस्रावी, मधुरस्रावी और अमृतस्त्रावी ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं, जो श्रेष्ठ अक्षीण संवास और अक्षीण महानस ऋद्धियों से सुशोभित हैं तथा तीन लोक में पूज्य हैं; उन यतियों में श्रेष्ठ समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 8 ॥

सिद्धालयान् श्रीमहतो ऽतिवीरान्,
श्रीवर्धमानर्द्धि विबुद्धि-दक्षान् ।
सर्वान् मुनीन् मुक्तिवरा-नृषीन्द्रान्,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यै ॥ ९ ॥

अन्वयार्थः- ( सिद्धालयान्) सिद्धालय में विराजमान (श्री महतः अतिवीरान् ) श्री अति महान्, अति वीर (श्रीवर्धमान ऋद्धि विबुद्धिक्षान्) श्री वर्धमान ऋद्धि और विशिष्ट बुद्धि ऋद्धि में दक्ष, कुशल ( मुक्तिवरान् ) मुक्तिलक्ष्मी को वरण करने वाले (सर्वान् मुनीन् ) सब मुनियों को (ऋषि इन्द्रान्) ऋषिगणों को (गणेशानपि ) तथा गणधर देवों की ( तद्-गुणाप्त्यै ) मैं उनके गुणों की प्राप्त करने के लिए (स्तुवे) मैं स्तुति करता हूँ।

अर्थ:- सिद्धालय में विद्यमान, श्री से अतिमहान्, अतिवीर, श्री वर्धमान ऋद्धि और विशिष्ट बुद्धि ऋद्धि में दक्ष/कुशल तथा श्रमणोत्तमों की, समस्त ऋषिगणों की तथा समस्त गणधर परमेष्ठियों की स्तुति में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए करता हूँ ॥ 9 ॥

नृ-सुर-खचर-सेव्या, विश्व-श्रेष्ठर्द्धि-भूषा,
विविध-गुण-समुद्रा, मारमातंग-सिंहाः ।
भव-जल-निधि-पोता, वन्दिता मे दिशन्तु,
मुनि-गण-सकलाः श्री-सिद्धिदाः सदृशीन्द्राः ॥ 10 ॥

अन्वयार्थः- (नृसुरखचरसेव्या) मनुष्य, देव, विद्याधरों से पूज्य (विश्वश्रेष्ठ ऋद्धिः भूषा) समस्त श्रेष्ठ ऋद्धियों से भूषित (विविध गुण समुद्रा) अनेक गुणों के समुद्र (मार-मातङ्गसिंहा) कामदेवरूपी हाथी को वश में करने के लिए सिंह समान (भवजलनिधिपोता ) संसाररूप समुद्र को पार करने के लिए जहाज (सदृशा) समान, (वन्दिता) वन्दना किये गये (मुनिगणसकलाः इन्द्रा) समस्त मुनि समूह/संघ के इन्द्र गणधर देव ( मे श्री सिद्धिदाः दिशन्तु) मुझे सिद्धपद प्रदान करने वाले हों।

अर्थ:- जो मनुष्य, देव, विद्याधरों से पूज्य हैं, समस्त श्रेष्ठ ऋद्धियों से भूषित हैं, अनेक गुणों के समुद्र हैं, कामदेवरूपी हस्ति का वशीकरण करने के लिए भयानक सिंह के तुल्य हैं, संसार सागर को पार करने के लिए दिव्य नौका के सदृश हैं तथा वन्दित हैं, वे श्रमणों के संघों के इन्द्र गणधर परमेष्ठी मेरे लिए सिद्धपद प्रदान करने वाले हों ॥ 10 ॥

नित्यं यो गणभृन्मन्त्र, विशुद्धसन् जपत्यमुम् ।
आस्त्रवस्तस्य पुण्यानां, निर्जरा पापकर्मणाम् ॥ 11 ॥
नश्यादुपद्रवकश्चिद्, व्याधिभूत विषादिभिः ।
सदसत् वीक्षणे स्वप्ने, समाधिश्च भवेन्मृतो ।। 12 ।।

अन्वयार्थः (यः) जो (नित्यं) प्रतिदिन (विशुद्धः सन्) शुद्ध मन होता हुआ/शुद्धिपूर्वक (अमुम्) इस (गणभृन्मन्त्रं) गणधर वलय मन्त्र को (जपति) पढ़ता है (तस्य) उसके (पुण्यानां आस्त्रव) पुण्यकर्मों का आस्रव होता है तथा (पापकर्मणां निर्जरा) पापकर्मों की निर्जरा होती है। (विषादिभिः व्याधिभूत) विष आदि से होनेवाले रोग, पिशाच आदि (उपद्रवः) बाधा (नश्यात्) दूर होते हैं (स्वप्ने सत् असत् वीक्षणे ) स्वप्ने में शुभ-अशुभ दिखाई देता है () और (मृतौ) मरण समय में ( समाधिः) समाधिमरण (भवेत्) होता है।

अर्थः- जो भव्योत्तम विशुद्धमनः होता हुआ अर्थात् शुद्धिपूर्वक इस गणधर वलय मन्त्र/ स्तोत्र को पढ़ता है, उसके पुण्यकर्मों का आस्रव होता है तथा पापकर्मों की निर्जरा होती है ॥ 11 ॥

विषादि के द्वारा होने वाले रोग नष्ट होते हैं, पिशाच भूतादि की बाधाएँ दूर होती हैं, स्वप्न में शुभ-अशुभ दिखाई देता है एवं अंत में (आयु पूर्ण होने पर) समाधिमरण भी होता है ॥ 12 ॥

॥ इत्यलं ॥

ऋद्धिमन्त्र

णमो जिणाणं, णमो ओहि जिणाणं, णमो परमोहि- जिणाणं, णमो सव्वोहि-जिणाणं, णमो अणंतोहि- जिणाणं, णमो कोट्ठ-बुद्धीणं, णमो बीज-बुद्धीणं, णमो पादाणु-सारीणं, णमो संभिण्ण-सोदारणं, णमो सयं-बुद्धाणं, णमो पत्तेय-बुद्धाणं, णमो बोहिय- बुद्धाणं , णमो उजु-मदीणं, णमो विउल-मदीणं, णमो दस-पुव्वीणं, णमो चउदस-पुव्वीणं, णमो अट्ठंग-महा-णिमित्त-कुसलाणं, णमो विउव्वइड्ढि- पत्ताणं, णमो विज्जाहराणं णमो चारणाणं , णमो पण्ण-समणाणं, णमो आगासगामीणं , णमो आसी-विसाणं , णमो दिट्ठिविसाणं , णमो उग्ग- तवाणं , णमो दित्त-तवाणं , णमो तत्त-तवाणं, णमो महा-तवाणं , णमो घोर-तवाणं, णमो घोर- गुणाणं, णमो घोर-परक्कमाणं, णमो घोर-गुण- बंभयारीणं, णमो आमोसहि-पत्ताणं , णमो खेल्लोसहि-पत्ताणं, णमो जल्लोसहि-पत्ताणं , णमो विप्पोसहि-पत्ताणं, णमो सव्वोसहि-पत्ताणं, णमो मण-बलीणं , णमो वचि-बलीणं, णमो काय- बलीणं, णमो खीर-सवीणं, णमो सप्पि-सवीणं , णमो महुर-सवीणं , णमो अमियसवीणं , णमो अक्खीण महाणसाणं, णमो वड्ढमाणाणं, णमो सिद्धायदणाणं, णमो भयवदो महदि - महावीर-वड्ढ माण-बुद्ध-रिसीणो चेदि ।

॥ इत्यलं ॥