अर्थ :
हे आत्मन् ! पुद्गल की इस औदारिक देह में व अन्य देहों में पूरण गलन के साथ बार-बार नष्ट होता हुआ तू कब अपने शुद्ध स्वरूप में आवेगा? जब तेरे राग व द्वेष दोनों ही दूर होवेंगे तब ही यह जीव आनन्दस्वरूप को प्राप्त करेगा।
मैं ही ज्ञाता हूँ, मैं ही ज्ञान हूँ, मैं ही ज्ञेय हूँ तथा मैं ही अपने स्वभावों का कर्ता हूँ, मैं ही क्रिया हूँ और मैं ही कार्य हूँ - ऐसे सब् भेदों को मिटाकर मैं एकमात्र आत्म द्रव्य हूँ। इन सबका समुच्चय एकरूप हूँ - जब ये भाव होंगे तब ही सुख पावेगा।
मैं निश्चय से मलरहित हूँ व व्यवहार दृष्टि से मलसहित हूँ। अपने निश्चय स्वरूप में/शुद्ध स्वरूप में स्थिर होने पर निश्चय- व्यवहार का भेद मिट जावेगा, बेमानी हो जावेगा। गुण और गुणी का भेद नहीं रहेगा और तब गुरु शिष्य का भेद भी नहीं रहेगा।
द्यानतराय कहते हैं कि मैं कब अपने निश्चयस्वरूप में अर्थात् साधक और साध्य के भेद को मिटाकर, एक होकर इस दुविधा को दूर करूंगा। वचन से कही जानेवाली भिन्न-भिन्न बातों को आत्मसात कर कब मैं अपने एक शुद्धरूप में, जैसा है उसी रूप में, स्थिर होऊँगा!