Farming in Jainism

Can Jain shravak do farming ? What if they all have taken anuvrat ? Or Jainism itself wants that असंयमी जीव should always exist side by side ?

In the story of 23rd Kaamdev - Jeevandhar Swami…he himself helped a farmer by cultivating his field using plough(hal), so there seems no harm.

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बुद्धिपूर्वक तो जैन को खेती नहीं करना चाहिए उत्तम कुल वाला तो खेती करता ही नहीं कदाचित माली आदि कुल में जहाँ अन्य आजीविका न हो तो अपनी निन्दा करता हुआ, जीवों की दया पालता हुआ, मजबूरी वश करता है
रत्न करण्ड श्राव का चार में पंचम गुण स्थान में सातवीं प्रतिमा तक खेती मजबूरी वश बताई है, वहाँ पर144 नं० श्लोक में आठवीं प्रतिमा धारक को कृतकारित अनुमोदन से खेती का त्यागी कहा है।
अतः स्याद्वाद का अनुसरण करना चाहिए

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चारित्र चक्रवर्ती पुस्तक में शांतिसागर आचार्य द्वारा उत्तर -
खेती के विषय में चर्चा

मैने पूछा “महाराज ! हिन्दी भाषा के प्राचीन पंडितों ने लिखा है कि श्रावक को खेती नहीं करना चाहिये, उसे सोना, चाँदी, माणिक, मोती आदि का व्यापार करना चाहिये। क्या जैन धर्म में गरीबों का कोई ठिकाना नहीं है ? खेती आदि का व्यवसाय तो राष्ट्र का जीवन है।

महाराज बोले “खेती का हमें स्वयं अनुभव है, उसमें परिणाम जितने सरल रहते हैं, उतने अन्य व्यवसाय में नहीं रहते हैं। अन्य धंधों में बगुले की तरह ध्यान रहता है, दुकानदार चुपचाप बैठा रहता है, किन्तु उसका ध्यान सदा ग्राहक की ओर लगा रहता है। ग्राहक दिखा कि वह उसके पीछे लगा। इन धंधों में हजारों प्रकार का मायाचार होता है। गृहस्थ गद्दी पर चुपचाप बैठे हुए ग्राहक का ध्यान करता है। बड़ी बड़ी गद्दी वाले हजारों लोग मायाचार पूर्वक धन को लेते हैं सोना चांदी के व्यापार में भी ऐसे ही भाव रहते हैं।”

खेती के विषय में कुंदकुंद स्वामी रचित कुरल काव्य का कथन बड़ा महत्वपूर्ण है, उसमें कृषि के महत्व पर बड़ी मार्मिक बात कही गई है -

उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग।
और कमाई अन्य की खाते बाकी लोग।।

निज कर को यदि खींच ले, कृषि से कृषक समाज।
गृह त्यागी अरुण साधु के टूटे सिर पर गाज।।

जोतो नांदो खेत को, खाद बड़ा पर्व ।
सींचे से रक्षा उचित, रखती अधिक महत्व ।।

नहीं देखता भालता, कृषि को रहकर गेह।
गृहणी सम तब रूठती, कृषि भी कृश कर देह ।।

पाप का कारण मनोवृत्ति है, न कि द्रव्य हिंसा। आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलक महाकाव्य में लिखा है,“परिणाम विशेष वश जीव घात न करता हुआ धीवर पाप का बंध करता है, किन्तु किसान कृषि में जीव घात होते हुए भी प्राणघाती मनोवृति ना धारण करने के कारण धीवर के समान पाप को नहीं प्राप्त करता है।”

स्वयम्भू स्तोत्र में स्वामी समंतभद्र ने लिखा है,“शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा:
(प्रजा को आदिनाथ भगवान ने कृषि आदि षट्कर्म का उपदेश दिया था)।”

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