एकीभाव स्तोत्र | Ekibhaav Stotra (Sanskrit & Padhyanuvaad)

(मन्दाक्रान्ता)
एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्मबन्धो
घोरं दु:खं भवभव-गतो दुर्निवार: करोति।
तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेत्
जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:॥ 1॥

ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वांतविध्वंसहेतुं
त्वामेवाहुर्जिनवर ! चिरं तत्त्व - विद्याभियुक्ता:।
चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानस्-
तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे॥ 2॥

आनन्दाश्रु - स्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढमना: स्तोत्र - मन्त्रैर्भवन्तम्।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यान्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:॥ 3॥

प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव ! निन्ये त्वयेदम्।
ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त - गेहं प्रविष्टस्-
तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णी-करोषि॥ 4॥

लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन् ! निर्निमित्तेन बन्धुस्-
त्वय्येवासौ सकल - विषया शक्ति-रप्रत्यनीका।
भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा:॥ 5॥

जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा
प्राप्तैवेयं तव नय - कथा स्फार - पीयूष - वापी।
तस्या मध्ये हिमकर - हिम - व्यूह - शीते नितान्तं
निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा:॥ 6॥

पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं
हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म:।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे
श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ॥ 7॥

पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिबन्तं
कर्मारण्यात् - पुरुष -मसमानन्द-धाम-प्रविष्टम्।
त्वां दुर्वार - स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं
क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति॥ 8॥

पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न - मूर्ति-
र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्ग:।
दृष्टि-प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु:॥ 9॥

हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन् मूर्तिशैलोपवाही
सद्य: पुंसां निरवधि - रुजा - धूलि - बन्धं धुनोति।
ध्यानाहूतो हृदय - कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टस्-
तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार:॥ 10॥

जानासि त्वं मम भव-भवे यच्च यादृक्च दु:खं
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि।
त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम्॥ 11॥

प्रापद्दैवं तव नुति - पदैर्जीवकेनोपदिष्टै:
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम्।
क: संदेहो यदुपलभते वासव - श्रीप्रभुत्वं
जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम्॥ 12॥

शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम्।
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो-
मुक्तिद्वारं परिदृढ़-महामोह-मुद्रा-कवाटम्॥ 13॥

प्रच्छन्न: खल्वय-मघ-मयै - रन्धकारै: समन्तात्-
पन्था मुक्ते: स्थपुटित - पद: क्लेश-गर्तैरगाधै:।
तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद् - भारतीरत्न-दीप:॥ 14॥

आत्म-ज्योति- र्निधि- रनवधि - द्र्रष्टुरानन्द-हेतु:
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम्।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद् भक्तिभाज:
स्तोत्रैर्बन्ध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै:॥ 15॥

प्रत्युत्पन्ना नय - हिमगिरेरायता चामृताब्धे:
या देव त्वत्पद - कमलयो: सङ्गता भक्ति-गङ्गा।
चेतस्तस्यां मम रुचि - वशादाप्लुतं क्षालितांह:
कल्माषं यद् भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:॥ 16॥

प्रादुर्भूत - स्थिर - पद - सुखत्वामनुध्यायतो मे
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति - मभ्रेषरूपां
दोषात्मानोऽप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति॥ 17॥

मिथ्यावादं मल - मपनुदन् - सप्तभङ्गीतरङ्गैर्
वागम्भोधिर्भुवनमखिलं देव ! पर्येति यस्ते।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन
व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृता-सेवया तृप्नुवन्ति॥ 18॥

आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य:
शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य:।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां
तत्किं भूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै:॥ 19॥

इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते
तस्यैवेयं भव-लय - करी श्लाघ्यतामातनोति।
त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धिकान्तापतिस्त्वं
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्॥ 20॥

वृत्तिर्वाचा - मपर - सदृशी न त्वमन्येन तुल्य:
स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टास्-
ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति॥ 21॥

कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षम्।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि - र्वैर-हारी
क्वैवंभूतं भुवन-तिलक! प्राभवं त्वत्परेषु॥ 22॥

देव! स्तोतुं त्रिदिव गणिका-मण्डली-गीत-कीर्तिं
तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान - मूर्तिं र्जनो य:।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्थास्-
तत्त्वग्रन्थ-स्मरण - विषये नैष मोमूर्ति मत्र्य:॥ 23॥

चित्ते कुर्वन् निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूप
देव! त्वां य: समय - नियमादादरेण स्तवीति।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा
कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम्॥ 24॥

भक्ति-प्रह्वमहेन्द्र - पूजित - पद ! त्वत्कीर्तने न क्षमा:
सूक्ष्म - ज्ञान - दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम्।
अस्माभि: स्तवन - च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम:॥25॥

वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्किकसिंह:।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय:॥ 26॥

Artist: आचार्य वादिराज
Source: बृहद आध्यात्मिक पाठ संग्रह

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पद्यानुवाद

(दोहा)

वादिराज मुनिराज के, चरणकमल चित-लाय |
भाषा एकीभाव की, करूँ स्व-पर सुखदाय ||१||

(रोला छन्द, ‘अहो जगत् गुरुदेव’ विनती की चाल में)

यो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी |
जो मुझ कर्म प्रबंध करत भव-भव दु:ख भारी ||
ताहि तिहाँरी भक्ति जगत् रवि जो निरवारे |
अब सों और कलेश कौन सो नाहिं विदारे ||१||

तुम जिन जोति-स्वरूप दुरित-अँधियारि निवारी |
सो गणेश-गुरु कहें तत्त्व-विद्याधन-धारी ||
मेरे चित्त घर-माँहिं बसो तेजोमय यावत |
पाप-तिमिर अवकाश तहाँ सो क्यों करि पावत ||२||

आनंद-आँसू वदन धोयं जो तुम चित आने |
गदगद सुर सों सुयश मंत्र पढ़ि पूजा ठानें ||
ता के बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी |
भाजें थानक छोड़ देह बांबइ के वासी ||३||

दिवि तें आवन-हार भये भवि भाग-उदय बल |
पहले ही सुर आय कनकमय कीन महीतल ||
मनगृह-ध्यान-दुवार आय निवसो जगनामी |
जो सुवरन-तन करो कौन यह अचरज स्वामी ||४||

प्रभु सब जग के बिना-हेतु बांधव उपकारी |
निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिंहारी ||
भक्ति-रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे |
मेरे दु:ख-संताप देख किम धीर धरोगे ||५||

भव-वन में चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई |
तुम थुति-कथा-पियूष-वापिका भाग सों पाई ||
शशि-तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम |
करत न्हौन ता माँहिं क्यों न भव-ताप बुझे मम ||६||

श्री विहार परवाह होत शुचिरूप सकल जग |
कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग ||
मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावे |
अब सो कौन कल्यान जो न दिन-दिन ढिंग आवे ||७||

भव-तज सुख-पद बसे काम मद सुभट संहारे |
जो तुमको निरखंत सदा प्रिय दास तिहारे ||
तुम-वचनामृत-पान भक्ति अंजुलि सों पीवें |
तिन्हें भयानक क्रूर रोग-रिपु कैसे छीवें ||८||

मानथंभ-पाषाण अन्य-पाषाण पटंतर |
ऐसे और अनेक रतन दीखें जग-अंतर ||
देखत दृष्टि-प्रमान मानमद तुरत मिटावे |
जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्यों कर पावे ||९||

प्रभु-तन-पर्वत परस पवन उर में निबहे है |
ता सों ततछिन सकल रोग रज बाहिर ह्वे है ||
जा के ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं |
कौन जगत् उपकार-करन समरथ सो नाहीं ||१०||

जनम-जनम के दु:ख सहे सब ते तुम जानो |
याद किये मुझ हिये लगें आयुध से मानो ||
तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरन गही है |
जो कुछ करनो होय करो परमान वही है ||११||

मरन-समय तुम नाम मंत्र जीवक तें पायो |
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो ||
जो मणिमाला लेय जपे तुम नाम निरंतर |
इन्द्र-सम्पदा लहे कौन संशय इस अंतर ||१२||

जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधे |
अनवधि सुख की सार भक्ति कूँची नहिं लाँधे ||
सो शिव-वाँछक पुरुष मोक्ष पट केम उघारे |
मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारे ||१३||

शिवपुर केरो पंथ पाप-तम सों अति छायो |
दु:ख-सरूप बहु कूप-खाई सों विकट बतायो ||
स्वामी सुख सों तहाँ कौन जन मारग लागे |
प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोन के आगे-आगे ||१४||

कर्म पटल भू माहिं दबी आतम निधि भारी |
देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी ||
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचे कर धारे|
थुति कुदाल सों खोद बंद भू कठिन विदारे ||१५||

स्याद्वाद-गिरि उपजि मोक्ष सागर लों धाई |
तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ||
मो चित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव ता में |
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय या में ||१६||

तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो |
मैं भगवान् समान भाव यों वरते मेरो ||
यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावे |
तुव प्रसाद सकलंक जीव वाँछित फल पावे ||१७||

वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापे |
भंग-तरंगिनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापें ||
मन सुमेरु सों मथें ताहि जे सम्यग्ज्ञानी |
परमामृत सों तृपत होहिं ते चिरलों प्रानी ||१८||

जे कुदेव छविहीन वसन-भूषन अभिलाखें |
वैरी सों भयभीत होंय सो आयुध राखें ||
तुम सुन्दर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई |
भूषन वसन गदादि ग्रहन काहे को होई ||१९||

सुरपति सेवा करे कहा प्रभु प्रभुता तेरी |
सो सलाघना लहे मिटे जग सों जग फेरी ||
तुम भव जलधि जिहाज तोहि शिव कंत उचरिये |
तुही जगत् जनपाल नाथ थुति की थुति करिये ||२०||

वचन जाल जड़रूप आप चिन्मूरति झाँई |
ता तें थुति आलाप नाहिं पहुँचे तुम थाहीं ||
तो भी निरफ़ल नाहिं भक्तिरस भीने वायक |
संतन को सुर तरु समान वाँछित वरदायक ||२१||

कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहूँ नहिं धारो |
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो ||
तदपि आन जग बहे बैर तुम निकट न लहिये |
यह प्रभुता जगतिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये ||२२|

सुरतिय गावें सुजश सर्वगत-ज्ञानस्वरूपी |
जो तुमको थिर होहिं नमे भवि आनंदरूपी ||
ताहि छेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो हे |
श्रुत के सुमिरन माँहिं सो न कबहूँ नर मोहे ||२३||

अतुल चतुष्टयरूप तुम्हें जो चित में धारे |
आदर सों तिहुँकाल माहिं जग थुति विस्तारे ||
सो सुकृत शिवपंथ भक्ति रचना कर पूरे |
पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहचे भव चूरे ||२४||

अहो जगत्पति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे |
तुम गुनकीर्तन माहिं कौन हम मंद विचारे ||
थुति छल सों तुम विषे देव आदर विस्तारे |
शिव सुख-पूरनहार कलपतरु यही हमारे ||२५||

वादिराज मुनि तें अनु, वैयाकरणी सारे |
वादिराज मुनि तें अनु, तार्किक विद्या वारे ||
वादिराज मुनि तें अनु, हैं काव्यनि के ज्ञाता |
वादिराज मुनि तें अनु, हैं भविजन के त्राता ||२६||

(दोहा)

मूल अर्थ बहुविधि कुसुम, भाषा सूत्र मँझार |
भक्ति माल ‘भूधर’ करी, करो कंठ सुखकार ||

भाषानुवाद - कवि श्री भूधरदास जी

Singer: Br. Kalpana Didi

श्रीमद्वादिराजसूरि कृत

एकीभावस्तोत्रम्

सन्ताप हारक : जिनभक्ति

एकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो
घोरं दुःखं भवभवगतो दुर्निवारः करोति ।
तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे भक्तिरुन्मुक्तये चेत्
जेतुं शक्यो भवति न तया को परस्तापहेतुः ॥ १ ॥

अन्वयार्थ - ( जिनरवे) हे जिनसूर्य ! ( मया सह ) मेरी आत्मा के साथ (स्वयं) अपने आप (एकीभावं) तन्मयता को (गत इव) प्राप्त हुए की तरह (दुर्निवारः) बड़ी कठिनाई से दूर करने योग्य (यः) जो (कर्मबन्धः) कर्मबंध (भव-भवगतः ‘सन्’) प्रत्येक पर्याय में साथ जाता हुआ (घोरम्) भयानक (दुःखम्) दुःख को (करोति) करता है । ( त्वयि ) आपके विषय में होने वाली (भक्तिः ) भक्ति अनुराग विशेष ( चेत्) यदि (तस्य अपि अस्य उन्मुक्तये) उस कर्मबन्ध और इस दुःख के भी छुड़ाने - दूर करने के लिए है (तर्हि) तो फिर (तया) उस भक्ति के द्वारा (अपर: ) दूसरा (कः) कौन (तापहेतुः) सन्ताप का कारण ( जेतुं शक्यः न भवति) जीता नहीं जा सकता? अर्थात् अवश्य जीता जा सकता है ।

टीका - जिनेषु रविः सूर्यस्तस्यामन्त्रणे हे जिनवर ! यः कर्मबन्धः अष्टकर्मणां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन चतुर्विधो बंधः स्वयं घोरं निविडं दुःखं करोति विदधाति । कीदृशः कर्मबन्धः मया सह एकीभावं गत इवएकत्वमापन्न इव। पुनः भवभवगतः प्रतिभवं गतः पुनः दुःखेन निवारयितुमशक्यः दुर्निवारः । तस्य कर्मबन्धस्य अस्यापि दुःखस्यापि चेत्। यदि त्वयि भगवति विषये भक्तिः तर्हि उन्मुक्तये उन्मोचनाय भवति। तथा वदूतया भक्त्या कृत्वा कः अपर स्तापहेतुः को वा जेतुं न शक्यो भवति ? जयो भवतीत्यर्थः। भो जिन ! संसारसन्तापं त्वद्भक्ति बिना कोपि जेतुं शक्तो न भवतीति तात्पर्यम् । अपितु जेतु शक्य इत्यर्थः ।

भावार्थ– हे भगवन्! जब आपकी भक्ति से भव भव में दुःख देने वाला कर्मबन्ध भी दूर हो जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाता है तब उससे दूसरे शारीरिक सन्ताप के कारण दूर हो जावें इसमें आश्चर्य ही क्या है ।

ज्योति स्वरूप : जिनवर

ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वान्तविध्वन्सहेतुं
त्वामेवाहुर्जिनवर ! चिरं तत्त्व - विद्याभियुक्ताः ।
चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमान-
स्तस्मिन्नंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे ॥२॥

अन्वयार्थ - ( हे जिनवर ! ) कर्म शत्रुओं को जीतने वालों में श्रेष्ठ हे जिनेन्द्र! जबकि (तत्त्वविद्याभियुक्ताः) तत्त्व विद्या को जानने वाले ऋषि गण (चिरं) बहुत समय से (त्वाम् एव) आपको ही (दुरित - निवहध्वान्त- विध्वन्सहेतुम्) पापसमूहरूपी अन्धकार के नाश करने में कारणभूत (ज्योती- रूपम्) तेजरूप ज्ञानस्वरूप (आहुः) कहते हैं (च) और आप (मम) मेरे (चेतोवासे) मनरूपी मन्दिर में (स्फारं) अत्यन्तरूप से निरन्तर (उद्भासमानः) प्रकाशमान (भवसि ) हो रहे हो तब (तस्मिन्) उस मन मन्दिर में (वस्तुतः) निश्चय से (अंहः तमः) पापरूपी अन्धकार (वस्तुं) निवास करने के लिए ठहरने के लिए (कथं इव) किस तरह ( ईष्टे) समर्थ हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।

टीका - जिनेषु गणधरदेवेषु वरः श्रेष्ठस्तस्यामन्त्रणे हे जिनवर ! चिरं चिरकालं तत्त्वविद्याभियुक्ताः तत्वज्ञानिनोगणधर - देवादयः त्वामेव ज्योतीरूपं परमतेजः स्वरूपं अर्ह इत्याहुः भणन्ति तत्त्वविद्याभिः अभियुक्ताः संयुक्ताः तत्त्वविद्याभियुक्ताः ज्योतिस्तेजः एवरूपं यस्य स तं । कीदृशं त्वां - दुरितानां पापानां निवहः समूहः स एव ध्वान्तं तमस्तस्य विध्वन्सस्यहेतुः कारणं तं भो देव च पुनः मम चेतोवासे मनोगृहे स्फारं बहुलं यथास्यात्तथा उद्भासमानः दीप्यमानः सन् त्वं भवसि जातोसि । तस्मिन् मनोगृहे अहंः पापं तदेव तमोन्धकारं । कथमिव किमिव ? वस्तुतो निश्चयात् वस्तुं स्थातुं ईष्टे स्थितिं करोति न ईष्टे इत्यर्थ ।

भावार्थ - हे भगवन्! जो आपका ध्यान करता है, उसके सब पाप उस तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह कि दीपक के प्रकाश से अन्धकार ।

विषमव्याधि निवारक

आनन्दाश्रु - स्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढमनाः स्तोत्रमन्त्रैर्भवन्तम् ।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यान्-
निष्कास्यन्ते विविध-विषमव्याधयः काद्रवेयाः ॥३॥

अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र ! (आनन्दाश्रुस्नपितवदनं च गद्गदं ) आनन्दाश्रुओं-हर्षरूपी आँसुओं से मुख को प्रक्षालित करता हुआ और अव्यक्त ध्वनि से (अभिजल्पन्) स्तुति करता हुआ (यः) जो मनुष्य (स्वयं) आपमें (दृढमनाः) स्थिर चित्त होकर (स्तोत्रमन्त्रैः) स्तवनरूप मंत्रों से (भवन्तम्) आपको (अयेत्) पूजता है - स्तुति करता है । (तस्य) उसके (सुचिरम् ) चिरकाल से (अभ्यस्तात् अपि) परिचित भी (देहवल्मीकमध्यात्) शरीररूपी वामी के मध्य से -बीच से (विविध - विषमव्याधयः) अनेकप्रकार के कठिन रोगरूपी (काद्रवेयाः) साँप (निष्कास्यन्ते) बाहर निकाल दिए जाते हैं।

टीका - यः कश्चित् पुमान् भवन्तं त्वां स्तोत्रमन्त्रैः कृत्वा स्तवनरूपमन्त्रैः आनन्दाश्रुभिः हर्षाश्रुभिः स्नपित वदनं यत्र तत् यथास्यात्तथा चायेत् पूजयेत् च स्तुतिं कुर्यात् । च पुनः हर्षात्, गद्गदं अव्यक्तशब्दं अभिजल्पन् कथंभूतो यः त्वयि परमेश्वरे दृढं निश्चलं मनोयस्य सः। एकाग्रचित्तः तस्य पुरुषस्य देहबल्मीकमध्यात् विविधविषमव्याधयः काद्रवेयाः नानाविधविषमरोग- लक्षणाः सर्पाः निष्कासन्ते बहिः निर्गच्छन्ति । देहः शरीरं स एव वल्मीकस्तस्य मध्यं तस्मात् । विविधानानाप्रकारा विषमश्च ते व्याधयश्च विविध-विषमव्याधयः । कद्रोरपत्यानि काद्रवेयाः कथम्भूताः विविधविषव्याधयः काद्रवेयाः सुचिरं चिर अभ्यस्ता अपि चिरं निवसिता अपि विविध विषयव्याधयः । इति पाठान्तरे विविधः नानाविधः विषयो येषां ते स्तोत्रमेवमन्त्राः स्तोत्रमन्त्रास्तैः स्तोत्रमन्त्रैः ।

भावार्थ- हे भगवन्! जो मनुष्य शुद्ध चित्त से आपकी स्तुति करता है उसके समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं ।

देह बनी सुवर्णमय

प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्-
पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव! निन्येत्वयेदम् ।
ध्यानद्वारं ममरुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्टस्-
तत्किं चित्रं जिन ! वपुरिदं यत्सुवर्णी - करोषि ॥४॥

अन्वयार्थ - ( देव !) हे भगवन्! (भव्यपुण्यात्) भव्य जीवों के पुण्य के द्वारा (इह) यहाँ पर (त्रिदिवभवनात्) स्वर्ग लोक से माता के गर्भ में (एष्यता) आने वाले (त्वया) आपके द्वारा (प्राक्एव) पहले ही जब (इदम्) यह (पृथ्वीचक्रम्) भूमण्डल पृथ्वी - मण्डल (कनकमयतां ) सुवर्णमयता को ( निन्ये) प्राप्त कराया गया था । तब (जिन!) हे जिनेन्द्र ! (ध्यानद्वारं) ध्यानरूपी दरवाजे से युक्त (मम) मेरे (रुचिकरम्) सुन्दर (स्वान्तगेहं) मनरूप मन्दिर में (प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुए (इदं वपुः) कुष्ठरोग से पीड़ित मेरे इस शरीर को (यत्) जो (‘त्वम्’) आप (सुवर्णीकरोषि ) सुवर्णमय कर रहे हो (तत्किंचित्रम्) उसमें क्या आश्चर्य है? अर्थात् कुछ नहीं ।

टीका— भो देव-भव्यपुण्यात् त्रिदिव भुवनात् स्वर्गलोकात् इहलोके एष्यता समागमिष्यता त्वया परमेश्वरेण प्रागेवपूर्वमेव इदं पृथ्वीचक्रं भूवलयं रत्नवृष्ट्यादिभिः कनकमयतां सुवर्णमयतां निन्ये नीतं । त्रिदिवः स्वर्गस्तस्य भवनं गृहं विमानं वा तस्मात् । भव्यानां पुण्यं भव्यपुण्यं तस्मात् एष्यतीति एष्यंस्तेन एष्यता । पृथव्याश्चक्रं पृथ्वीचक्रं । कनकविकारं कनकमयं- तस्यभावस्तां । हे जिन! मम स्वान्तगेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्वं प्रतिष्ठः सन् यत् इदं मदीयं कुष्ठरोगाक्रान्तं वपुः शरीरं सुवर्णीकरोषि तत्किमाश्चर्यं न किमपि आश्चर्य - मित्यर्थः । असुवर्णं सुवर्णं करोषि इति सुवर्णीकरोषि । स्वान्तमेव गेहं स्वान्तगेहं कीदृशं स्वान्तगेहं । ध्यानमेवद्वारं यस्मिन् तत् । पुनः रुचिं करोतीति रुचिकरं मनोहरमित्यर्थः ।

भावार्थ - " यह कथा प्रसिद्ध है कि इस स्तोत्र के बनाने वाले वादिराज मुनि को कोढ़ हो गया था, उनका सारा शरीर कोढ़ से गल रहा था। उन्होंने ज्यों ही एकीभाव स्तोत्र रचकर पढ़ना शुरू किया त्यों ही उनका कोढ़ कम होने लगा और जब तक उन्होंने इस श्लोक को बनाकर पूर्ण किया तब तक उनका सब कोढ़ दूर हो गया और शरीर सोने की तरह चमकने लगा।” इसी बात को मुनिराज ने लक्ष्य कर कहा है कि- जब आप स्वर्गलोक से भूलोक पर आने के लिए छह माह बाकी थे तभी आपके प्रभाव से यह समस्त पृथ्वी सोने जैसी सुन्दर हो गई थी। फिर अब तो आप हमारे मन मन्दिर में प्रविष्ट हो चुके हैं । इसलिए यदि यह शरीर सुन्दर अथवा सुवर्ण का हो जावे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। सुवर्ण शब्द के दो अर्थ हैं - एक सुन्दर और दूसरा सोना ।

अकारण बन्धु

लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्! निर्निमित्तेन बन्धुस्-
त्वय्येवास सकलविषया शक्तिरप्रत्यनीका ।
भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्तशय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेशयूथं सहेथाः ॥५ ॥

अन्वयार्थ – (भगवन्!) हे भगवन्! जब (त्वम्) आप (लोकस्य ) संसार के प्राणियों के (निर्निमित्तेन) स्वार्थ रहित - बिना किसी प्रयोजन के (एकः) अद्वितीय (बन्धुः असि) बन्धु - हित करने वाले हो और (असौ) यह (सकलविषयाशक्तिः) सब पदार्थों को विषय करने वाली शक्ति भी ( त्वयि ) आपमें ही (अप्रत्यनीका) बाधा रहित है । ( ततः ) तब (भक्तिस्फीताम्) भक्ति के द्वारा विस्तृत (मामिकां ) मेरी (चित्तशय्याम्) मनरूपी पवित्र शय्या पर (अधिवसन्) निवास करने वाले आप (मयि उत्पन्नम्) मुझमें उत्पन्न हुए (क्लेशयूथम्) दुःख समूह को (कथं एव) किस तरह (सहेथाः) सहन करोगे अर्थात् नहीं करोगे ।

टीका - हे भगवन् ! त्वं एक अद्वितीयो लोकस्य निर्निमित्तेन निष्कारणेन बान्धवो वर्तसे । त्वय्येवासौ शक्तिः सकलविषया वर्तते सकलं विषयो यस्याः सा । कथंभूताशक्तिः अप्रत्यनीका प्रतिषेधरहिता । कीदृशीं तां मामिकां मदीयां चित्तशय्यां चिरं चिरकालं अधिवसन् । ममेयं मामिकां तां, चित्तमेवशय्या चित्तशय्या तां । कीदृशीं चित्तशय्यां भक्त्यास्फीतां महतीभक्तिः तया स्फीतां तां । यतः कारणात् निष्कारणं बन्धुस्तत् कारणात् मय्युत्पन्नं क्लेशयूथं कष्टसमूहं कथमिव सहेथाः किमिव सहनं कुर्वीथा, क्लेशानां यूथं क्लेशयूथम् ।

भावार्थ- भगवन् आप भाई की तरह स्वार्थ रहित होकर संसार का कल्याण करते हैं और आप में कल्याण करने की शक्ति भी मौजूद है । इतना सब कुछ होने पर भी मैं बहुत समय से आपका ध्यान कर रहा हूँ। फिर भी क्या आप हमारे दुःखों को देखते हुए भी नष्ट नहीं करेंगे? अवश्य करेंगे।

नयकथारूपी अमृतवापी

जन्माटव्यां कथमपि मया देव ! दीर्घं भ्रमित्वा,
प्राप्तैवेयं तव नयकथा स्फारपीयूषवापी |
तस्या मध्ये हिमकर - हिमव्यूहशीतेनितान्तं,
निर्मग्नं मां न जहति कथं दुःख - दावोपतापाः ॥६॥

अन्वयार्थ –— (देव!) हे स्वामिन्! (मया) मेरे द्वारा (जन्माटव्यां) संसाररूपी अटवी में (दीर्घं) बहुत काल तक (भ्रमित्वा) घूमकर अथवा घूमने के बाद (तव) आपकी (इयम्) यह (नयकथा) स्याद्वादनय कथारूपी (स्फार- पीयूषवापी) बड़ी भारी अमृत रस से भरी हुई बावड़ी (कथं अपि) किसी तरह बड़े कष्ट से ( प्राप्ता एव ) प्राप्त ही कर ली गई है। फिर भी (हिमकर - हिमव्यूहशीते) चन्द्रमा और बर्फ के समूह से भी शीतल (तस्याः) उसके ( मध्ये) बीच में ( नितान्तम्) अत्यन्तरूप से (निर्मग्नं) डूबे हुए (माम्) मुझको (दुःख - दावोपतापा) दुःखरूपी दावानल के सन्ताप (कथं न जहति) क्यों नहीं छोड़ते हैं?

**टीका–**हे देव! भो स्वामिन्! मया जन्माटव्यां भवारण्ये दीर्घं भ्रमित्वा कथमपि महताकष्टेन इयमेव तव भगवतः नयकथास्फारपीयूषवापी अनेकान्तमतोदार सुधारसदीर्घिका प्राप्ता लब्धा जन्मैवअटवी जन्माटवी तस्यां जन्माटव्यां, नयकथैवस्फारपीयूषवापी नयकथास्फारपीयूषवापी तस्या- वापिकाया मध्ये नितान्तमतिशयेन निर्मग्नं मां दुःखदावोपतापाः कृच्छादावानल-परितापाः कथं न जहति किं न त्यजति? अपि तु जहतीत्यर्थः। दुःखान्येव दावाः दुःखदावास्तेषां उपतापाः । कथंभूतावापी मध्ये हिमकरश्चन्द्रधिमस्तस्त व्यूहः समूहस्तद्वत् शीते शीतलं इत्यर्थः ।

भावार्थ - हे भगवन्! जो मनुष्य आपके नयवाद को अच्छी तरह समझकर उसके अनुसार प्रवृत्ति करता है उसके सब दुःख उस तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह कि बावड़ी के ठण्डे जल में डूबे हुए मनुष्य को दावानल की गर्मी।

कल्याणकारक : प्रभु स्पर्श

पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं,
हेमाभासो भवति सुरभिः श्रीनिवासश्च पद्मः।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे,
श्रेयः किं तत्स्वयमहरहर्यन्नमामभ्युपैति ॥७॥

टीका- हे भगवन्! ते तव पादन्यासादपि भवच्चरणारोपणादपि पद्मः कमलं हेमाभासो भवति । हेमवदाभासा यस्य स च पुनः पद्यः तव पादन्यासात् श्रीनिवासः लक्ष्म्या गृहं भवति । श्रियाः निवासः श्रीनिवासः, कथंभूतस्य तव यात्रया भव्य प्राणिप्रबोधार्थं विहारः । क्रमेण त्रिलोकीं पुनः पवित्रयतः, त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी तां । हे देव त्वयि परमेश्वरे सर्वाङ्गेण सर्व शरीरेण मे मम अशेषं मनोन्तःकरणं स्पृशति सति तत्किं श्रेयोः वर्तते । यत्श्रेयःकल्याणं हेमाभासादिष्वयमेव अहरहः प्रतिदिनं मां न अभ्युपैति मां न प्राप्नोति अपितु अभ्युपैति इत्यर्थः।

अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र ! (यात्रया) विहार के द्वारा (त्रिलोकीम् ) तीनों लोकों को (पुनतः) पवित्र करने वाले (ते) आपके (पादन्यासात् अपि) चरणों के रखने मात्र से ही जब (पद्म) कमल (हेमाभासः ) सुवर्ण-सी कान्ति वाला (सुरभि:) सुगन्धित (च) और (श्रीनिवासः) लक्ष्मी का गृह-शोभा का स्थान हो जाता है। तब (हे भगवन्!) हे स्वामिन्! (त्वयि मे अशेषम् मनः सर्वाङ्गेण स्पृशति ‘सति’) आप में मेरे समस्त मन को सर्व अंगों के द्वारा स्पर्श करने पर (तत्) वह (किं श्रेयः ?) कौन - सा कल्याण है (यत्) जो (माम्) मुझे (अहरहः) प्रतिदिन (स्वयं) अपने आप (न अभ्युपैति ) प्राप्त नहीं होता है ।

भावार्थ - कवि लोग कमल को ‘लक्ष्मी का घर है’ ऐसा वर्णन करते हैं । कमल सुगन्धित भी होता है और कोई कोई पीला कमल सुवर्ण के समान सुन्दर भी । जब केवली भगवान् का विहार होता है तब देवलोग उनके चरणोंके नीचे कमल बना देते हैं । यहाँ कवि का यह विश्वास है कि कमल को जो सोने जैसा सुन्दर रूप, सुगन्धि और लक्ष्मी का घर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है सो वह आपके चरणों के निक्षेप मात्र से ही हुआ है। भगवन्! जब आपके चरण- निक्षेप में इतनी शक्ति है तब आप तो हमारे हृदय-कमल को सब तरफ से छू रहे हैं। ऐसी हालत में मुझे तरह तरह के कल्याण प्राप्त हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या है । श्लोक का सारांश यह है कि जो आपका ध्यान करता है उसे सब कल्याण प्राप्त होते हैं |

वचनरूपी अमृत

पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिबन्तं,
कर्मारण्यात्- पुरुष - मसमानन्दधाम प्रविष्टम् ।
त्वां दुर्वारस्मरमदहरं त्वत्प्रसादैक भूमिं -,
क्रूराकाराः कथमिव रुजाकण्टका निर्लुठन्ति ॥८॥

टीका - भो देव! रुजा कण्टकाः गदलक्षणा कण्टकाः पुरुषं कथमिव निर्लुठन्ति पीडयन्ति । न निर्लुठन्तीत्यर्थः । रुजा एवं कण्टकाः " रुग्जा चोपजाता ये रोगव्याधिगदामयाः इति हलायुधः । कथंभूतं पुरुषं त्वां परमेश्वरं पश्यन्तं विलोकयन्तं । पुनः त्वद्वचनममृतं भक्ति पात्र्या पिबन्तं तव वाक्यामृतं तव वचनं भक्तिरेव पात्री स्थाली भक्ति पात्री तथा पुनः कर्मारण्यादसमानन्दधाम प्रविष्टं । कर्मैव अरण्यं वनं कर्मारण्यं तस्मात् । असमं अतुल्यं यत् आनन्दधामहर्षमन्दिरं तत्र प्रविष्टस्तं । कथंभूतं? त्वां दुर्वार। यो हि स्मरः कामस्तस्य मदान् हरति तं । कीदृशं पुरुषं तवप्रसादास्त्वप्रसाद एव एका अद्वितीयाः भूमिर्यस्य स तं । कीदृशाः रुजा रोगा एव कण्टकाः क्रूराकारः क्रूराः कठिनाः आकारा येषां ते ।

अन्वयार्थ - हे नाथ! (कर्मारण्यात्) कर्मरूपी वन से (असमानन्द- धाम- प्रविष्टम्) अनुपम सुख के स्थान मोक्ष में प्रविष्ट हुए तथा (दुर्वारस्मर - मदहरं) दुर्जय कामदेव के मद को हरण करने वाले आपको (पश्यन्तं) देखने वाले और ( भक्तिपात्र्या) भक्तिरूपी कटोरों से (त्वद्वचनं अमृतं पिबन्तं) आपके वचनरूपी अमृत को पीने वाले अतएव (त्वत्प्रसादैकभूमिम्) आपकी प्रसन्नता के स्थानभूत (पुरुषं) पुरुष को ( क्रूराकाराः) भयंकर आकार वाले (रुजाकण्टकाः) रोगरूपी काँटें (कथमिव ?) किस तरह (निर्लुठन्ति) सता सकते हैं - पीड़ा दे सकते हैं? अर्थात् नहीं दे सकते ।

भावार्थ- हे भगवन्! जो आपका दर्शन करते हैं वे और अमृत के समान सुख देने वाले आपके उपदेश को सुनते हैं उनके सब कर्म नष्ट हो जाते हैं, वे सुखमय मोक्षस्थान को पा लेते हैं और उन्हें रोग रूपी कांटे नहीं सताते। ठीक भी है - जो कटीली झाड़ियों से भरे हुए जङ्गल में प्यास से पीड़ित हो जहाँ तहाँ घूमता है उसे ही कांटे लगते हैं, पर जो ठण्डा पानी पीता हुआ अच्छे घरमें निवास करता है उसे कांटे क्यों लगेंगे।

अपूर्व शक्ति प्रदाता

पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रत्नमूर्ति-
मनस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्गः ।
दृष्टि - प्राप्तो हरति स कथं मानरोगं नराणां,
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः ॥९॥

अन्वयार्थ- हे देव! ( पाषाणात्मा) पत्थररूप (मानस्तम्भः ) मानस्तम्भ (तदितरसमः) अन्य पत्थर के स्तम्भ समान ही है (केवलम्) सिर्फ (रत्नमूर्तिः) रत्नमयी है परन्तु (परः रत्नवर्गः ) दूसरे रत्नों का समूह वैसा ही है - ऐसा होने पर (यदि ) अगर (तस्य) उस मानस्तम्भ की (तत्शक्तिहेतुः) वैसी शक्ति में कारणस्वरूप (भवतः) आपकी (प्रत्यासत्तिः) निकटता न होती तो (सः) वह मानस्तम्भ (दृष्टिप्राप्तः ) देखने मात्र से ही (नराणाम्) मनुष्यों के (मानरोगं) मान-अहंकाररूपी रोग को (कथं हरति?) कैसे हर सकता है ? अर्थात् नहीं हर सकता।

टीका— मानस्तम्भः पाषाणात्मासन् तदितरसमः अन्य पाषाण सदृशो भवति, तस्मात् पाषाणात् इतरस्तेन समः । च पुनः केवलं रत्नमूर्तिः रत्नमयः परं केवलं रत्नवर्गः रत्नराशिस्तादृशी वर्तते स मानस्तम्भः ! दृष्टि प्राप्तः दृष्टिं सन् दर्शनमात्रादेव नाराणां लोकानां मानरोगं अहंकाररोगं कथं हरति ? केन प्रकारेण निराकरोति? यदि चेत् तस्य मानस्तम्भस्य भवतः परमेश्वरस्य प्रत्यासत्ति। सामीप्यम् न भवेत् । दृष्टिप्राप्तः दृष्टिप्राप्तः मान एव रोगो मानरोगस्तं । कीदृशस्य भवतः तस्य मानस्तम्भस्य मानरोगहरणे शक्तिः तस्या हेतुः कारणं तस्य।

भावार्थ– समवसरण की चारों दिशाओं में चार रत्नमयी स्तम्भ होते हैं उन्हें मानस्तम्भ कहते हैं । उन्हें देखते ही दर्शकों का अभिमान नष्ट हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि मानस्तम्भ अन्य स्तम्भों की तरह ही पत्थर का बना हुआ है । यदि उसमें यह विशेषता मानी जावे कि वह रत्नों का बना होता है तो वह भी ठीक नहीं क्योंकि अन्य रत्नों की राशि भी तो रत्नों से बनी रहती है। फिर वह निगाह के सामने आते ही मनुष्यों के मान क्यों हर लेता है? भगवन् ! उसका कारण सिर्फ आपकी समीपता ही है । आपके समीप में रह कर ही वह मानहरण रूप विशाल कार्य को कर लेता है। लोक में भी देखा जाता है कि महापुरुषों के साथ होने से लघु मनुष्य भी भारी काम कर लेते हैं ।

सर्वोपकारी शक्ति

हृद्यः प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्तिशैलोपवाही,
सद्यः पुंसां निरवधिरुजा धूलिबन्धं धुनोति ।
ध्यानाहूतो हृदयकमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टस्-
तस्याशक्यः क इह भुवने देव! लोकोपकारः ॥१०॥

अन्वयार्थ – (देव!) हे स्वामिन्! जब (भवन्मूर्तिशैलोपवाही) आपके शरीररूपी पर्वत के पास से बहने वाली (हृद्य:) मनोहर ( मरुत् अपि) हवा भी ( प्राप्तः 'सन् ’ ) प्राप्त होती हुई (पुंसां ) पुरुषों के (निरवधिरुजा - धूलिबन्धम् ) अपरिमित रोगरूपी धूली के संसर्ग को (सद्यः) शीघ्र ही (धुनोति) दूर कर देती है । (तु) तब (ध्यानाहूतः) ध्यान के द्वारा बुलाये गए (त्वम्) आप (यस्य) जिसके (हृदयकमलं) हृदयरूपी कमल में (प्रविष्टः) प्रविष्ट हुए हैं (तस्य) उस पुरुष को (इहभुवने) इस संसार में (कः) कौन-सा (लोकोपकारः) लोगों का उपकार (अशक्यः) अशक्य है - नहीं करने योग्य है । अर्थात् कोई भी नहीं ।

टीका– हे देव! भवन्मूर्तिशैलोपवाही मरुदपि वायुरपि हृद्यः अनुकूलः प्राप्तः सन् पुंसां जनानां सद्यस्तत्कालं निरवधिरुजा धूलिबन्धं निमर्यादं रेणुसमूहं धुनोति स्फीटयति । भवतः मूर्ति शरीरं सैव शैलः पर्वतस्तं उपवहतीति निरवधयः मर्यादारहिताः या रुजाः रोगास्तएव धूलयस्तासां बन्धः समूहस्तं । तु पुनस्त्वं ध्यानाहूतः सन् यस्य प्राणिनो हृदयकमलं प्रविष्टः तस्य प्राणिनः इह भुवने कः लोकोपकारः अशक्यो भवति । अपि तु न कोपीत्यर्थः । ध्यानेन आहूतः आकारितः ध्यानाहूतः। हृदयमेव कमलं, हृदयकमलं, लोकानां उपकारः लोकोपकारः ।

भावार्थ- हे भगवन् ! जब आपके शरीर के पास बहने वाली हवा भी मनुष्यों के रोगों को दूर कर देती है तब आप साक्षात् जिसके हृदय में मौजूद हैं उसके सब रोग नष्ट होकर उसे तरह तरह के कल्याण प्राप्त हों इसमें क्या आश्चर्य है? ।

तुम ही ज्ञाता

जानासि त्वं मम भव-भवे यच्च यादृक्च दुःखं,
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि ।
त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या,
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ॥११॥

अन्वयार्थ – (देव!) हे भगवन्! (मम) मुझे ( भवभवे) प्रत्येक पर्याय में (यत् च यादृक् च ) जो और जैसा - जिस तरह का ( दुःखम् ) दुःख - कष्ट (जातम् ) प्राप्त हुआ है (तत् त्वं जानासि ) उसको आप जानते ही हैं । और (यस्य) जिसका (स्मरणं अपि) स्मरण भी (मे) मेरे लिए (शस्त्रवत्) शस्त्र के समान - तलवार आदि अस्त्र के घात समान (निष्पिनष्टि) दुःख देता है और हे नाथ! (त्वम्) आप (सर्वेशः) सबके स्वामी (च) और (सकृपः ) दया से युक्त हैं- दयालु हैं । (इति) इसलिए (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (त्वाम् उपेतः अस्मि) आपके पास आया हूँ-आपकी शरण में प्राप्त हुआ हूँ। अतः अब ( इह विषये) इस विषय में (यत् कर्तव्यं) जो करना चाहिए उसमें (देवः एव प्रमाणम्) आप देव ही प्रमाण हैं । अर्थात् जैसा आप चाहें वैसा करें।

टीका - हे देव! मम भव-भवे प्रतिजन्मनि यच्च यादृक् च दुःखं नरकतिर्यक्नरदेवयोः सम्भवं जातं प्राप्तं । यस्य दुःखस्य स्मरणमपि मे मम शस्रवत् खड्गवत् निष्पिनष्टि चूर्णयति शतखण्डी करोति । अत्र हिंसार्थ- धातुयोगात्, द्वितीयार्थे षष्ठी । तत्त्वं जानासि - वेत्सि । हे नाथ! त्वं सर्वेषां प्राणिनामीशः स्वामी । च पुनः त्वं सकृप इति । किं कृपया सहवर्तमानः इति, अगाधं मनस्यालोच्य त्वां त्रैलोक्यनाथं भक्त्या कृत्वा अहं उपेतोस्मि प्राप्तोऽस्मि अगाधं भावः । तत्तस्मात्कारणात् इह तल्लक्षणे विषये यत्कर्तुयोग्यं कर्तव्यं देवः त्वमेव प्रमाणं निश्चयः अन्यथा न ।

भावार्थ- हे भगवन्! आप सर्वज्ञ है इसलिए हमारे भव-भव के दुःखों को जानते हैं, आप सबके ईश्वर हैं इसलिए आप में हमारे दुःख दूर करने की सामर्थ्य है और आप दया सहित हैं, इसलिए आपको हमारे दुःखों पर दया भी आती है, यह सब विचारकर मैं आपकी शरण में आया हूँ। शरण में आये हुए सेवक के प्रति स्वामी का क्या कर्त्तव्य है आप ही सोच लीजिये अर्थात् हमारे दुःखों को दूर कर दीजिये ।

श्री प्रदाता : नमस्कार मन्त्र

प्रापद्दैवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टैः,
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् ।
कः सन्देहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वं,
जल्पन् जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम्॥१२॥

अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र ! जबकि ( मरणसमये) मृत्यु के समय में (जीवकेन) जीवन्धरकुमार के द्वारा (उपदिष्टैः) बताये गए (तव नुतिपदैः) आपके नमस्कार मंत्र के पदों से (पापाचारी) पापरूप प्रवृत्ति करने वाला ( सारमेयः अपि) कुत्ता भी ( दैवं ) देव - स्वर्गलोक सम्बन्धी (सौख्यम्) सुख को ( प्रापत्) प्राप्त हुआ था । तब ( अमलैः जाप्यैः मणिभिः ) निर्मल जपने योग्य माला की मणियों के द्वारा (त्वन्नमस्कारचक्रम्) आपके नमस्कारमंत्र के समूह को ( जल्पन्) जपता हुआ (यत्) जो मनुष्य (वासवश्रीप्रभुत्वम्) इन्द्र की विभूति के अधिपतित्व को - स्वामीपने को (लभते) प्राप्त होता है । इस विषय में (कः सन्देहः) क्या सन्देह है?

टीका - भो विभो ! तव परमेश्वरस्य नुतिपदैः स्तोत्रपदैः कृत्वा सारमेयोऽपि कुक्कुरोऽपि दैवं सौख्यं प्रापत् प्राप्तवान्, देवस्येदं दैवं । कथंभूतैः तव नुतिपदैः । मरण समये - मरणावस्थायां जीवकेन क्षत्रियवंशचूडामणि श्री सत्यन्धर महाराज पुत्रेण उपदिष्टैः कर्णे जपीकृतैः । कथंभूतः सारमेयः पापाचारी आजन्म पापमेवाचरतीत्येवंशीलः पापाचारी । भो देव ! यस्त्वन्न्मस्कारचक्रं अमलैः मणिभिः जाप्यैः जल्पन् सन् शुद्धस्फटिकमणि- मुक्ताफलरजतसुवर्णप्रवाल- चन्दनागुरुसम्भवमणिभिः तव नमस्कारमन्त्रं समभिजल्पन् वासवश्रीप्रभुत्वं - सौधर्मादिलक्ष्मीसाम्राज्यं उपलभते प्राप्नोति । अत्र कः सन्देहः किमाश्चर्यमत्र । तवनमस्कारास्त्वन्नमस्कारास्तेषां चक्रं वासव इन्द्र श्री लक्ष्मीः तस्याः प्रभुत्वमैश्वर्यम् ।

भावार्थ - जीवन्धर राजपुरी नगरी के राजा सत्यन्धर के पुत्र थे। इनके उत्पन्न होने के दिन ही प्रधानमन्त्री काष्ठांगार ने कपट से राजा सत्यन्धर को मार डाला था और इनकी माता विजया दण्डकवन में तपस्वियों आश्रम में चली गई थी इसलिए इनका पालनपोषण राजपुरी नगरी के श्रेष्ठ वैश्य गन्धोत्कट के घर हुआ था । वह इन्हें अपना पुत्र समझकर बड़े लाड़-प्यार से इनका पालन करता था । जब ये बड़े हुए तब इनका गरुड़ वेग विद्याधर की पुत्री गन्धर्वदत्ता के साथ विवाह हो गया । एक दिन ये अपने मित्रों के साथ बसन्तऋतु की शोभा देखने के लिए वन में जा रहे थे कि वहाँ अचानक इनकी दृष्टि एक कराहते हुए कुत्ते पर पड़ी। उस कुत्ते कुछ ब्राह्मणों ने साकल्य- हवन सामग्री को जूठा कर देने के अपराध में बुरी तरह पीटकर घायल कर दिया था । जीवन्धरकुमार के लिए जब कुत्ते के जीवित रखने की आशा न रही तब उन्होंने उसे णमोकार मन्त्र सुनाना प्रारम्भ किया । कुत्ते की होनहार अच्छी थी, इसलिए वह मन्त्र के प्रभाव से मरकर चन्द्रोदय पर्वत पर यक्ष जाति के देवों का इन्द्र हुआ उसका नाम सुदर्शन था।
प्रस्तुत कहानी का यह भाव है कि आपकी स्तुति के थोड़े से अक्षरों का मृत्यु समय श्रवण करने मात्र से जब महापापी कुत्ता भी देव हो सकता है तब जो निरन्तर भावपूर्वक आपका स्तवन करेगा, मणियों की माला से आपके नाम की जाप करेगा, वह यदि स्वर्ग में इन्द्र हो जावे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? ।

मोक्षद्वार उद्घाटक

शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा,
भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम् ।
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति - कामस्य पुंसो -
मुक्तिद्वारं परिदृढ़- महामोह - मुद्रा - कवाटम् ॥१३॥

अन्वयार्थ - हे नाथ (शुद्धे ज्ञाने) शुद्ध ज्ञान और (शुचिनि चरिते ) निर्मल चारित्र के (सतिअपि) रहते हुए भी ( चेत्) यदि (त्वयि) आपके विषय में होने वाली ( इयम्) यह (अनीचा भक्तिः ) उत्कृष्ट भक्तिरूपी (अनवधिसुखा- वञ्चिका) असीम सुख प्राप्त कराने वाली (कुञ्चिका) कुञ्जी - चाबी (नो चेत्) नहीं होवे, तो (हि) सचमुच में (मुक्तिकामस्य पुंसः) मोक्ष के अभिलाषी पुरुष के (परिदृढमहामोहमुद्राकवाटम्) अत्यन्त मजबूत महामोह रूपी मुहरबन्द ताले से युक्त हैं किवाड़ जिसमें ऐसे (मुक्तिद्वारम् ) मोक्ष के द्वार को (कथम्?) किस तरह (शक्योद्घाटम् ) खोला जा सकता है? अर्थात् नहीं खोला जा सकता।

टीका - भो देव! शुद्धे ज्ञाने शुचिनि - निरतिचारे - पवित्रे चरिते आचरणे सत्यपि चेद्यपि त्वयि परमेश्वरे इयं अनीचा प्रबला भक्तिर्नो नैव, हि निश्चितं तर्हि मुक्तिकामस्य पुंसः मुमुक्षोः पुरुषस्य मुक्तेः द्वारं शक्योद्धाटं कथं भवति? शक्यः उद्घाटो यस्य तत्! मुक्तिं कामयतीति मुक्तिकामः तस्य मुक्ति कामस्य । कथम्भूतं मुक्तेर्द्वारं? परिदृढा निश्चला महामोहो मिथ्यात्वं तल्लक्षणमुद्रा ययोस्तौ एवं विधौ कपाटौ स एव कवाटं यस्मिन् तत् । कथम्भूता भक्तिः ? कुञ्चिका । मुद्रा द्विधाकर्त्री पुनः अनवधि निर्मर्यादं यत् सुखं तस्य अवञ्चिका- अप्रतारिणी ।

भावार्थ– भगवन्! आपकी भक्ति ही तो सम्यग्दर्शन है जो कि अनन्त सुखों का कारण है और मुक्तिमन्दिर के द्वार पर लगे हुए मिथ्यात्व रूपी ताले को खोलने के लिए कुंजी - चाबी की तरह है । जब तक यह भक्तिरूप सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता तब तक ज्ञान और चारित्र के रहते हुए भी मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता।

आपकी मोक्षमार्ग प्रदर्शक : भारती

प्रच्छन्नः खल्वय-मघ-मयै-रन्धकारैः समन्तात्-
पन्था मुक्तेः स्थपुटित-पदः क्लेश-गर्तैरगाधैः ।
तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी,
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्-भारतीरत्न - दीपः ॥ १४ ॥

अन्वयार्थ - ( देव !) हे स्वामिन्! (खलु) निश्चय से (अयम्) यह (मुक्तेः पन्थाः) मोक्ष का मार्ग (अघमयैः अन्धकारैः) पापरूपी अन्धकार के द्वारा (समन्तात्) सब ओर से (प्रच्छन्नः) ढका हुआ है और (अगाधैः) गहरे (क्लेशगर्तेः) दुःखरूपी गड्ढों से ( स्थपुटितपदः) ऊँचे-नीचे स्थान वाला (यदि) अगर (तत्त्वावभासी) सप्ततत्त्वों को प्रकाशित करने वाला (भवद्भारती-रत्नदीपः) आपकी दिव्यध्वनिरूपी रत्नों का दीपक (अग्रे- अग्रे) आगे-आगे ( न भवति) न होता (तत्) तो (तेन) उस मार्ग से (क) कौन मनुष्य (सुखतः) सुखपूर्वक (व्रजति) गमन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं।

टीका - भो देव ! खलु निश्चितं अयं मुक्तेः पंथाः सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्र-लक्षणो मोक्षमार्गः अघमयैरन्धकारैः मिथ्यात्वलक्षणैः स्तिमिरैः समंतात् सर्वतः प्रच्छन्नः आच्छादितः । पुनः मुक्तेः पथा अगाधेः अतुलस्पर्शैः क्लेश- गर्तैर्नरकादि दुःखैः कृत्वा स्थपुटितपदः विद्यते । स्थपुटितानि उच्चनीचानि पदानि पादरोप्रणस्थानानि यस्मिन् सः । तत्तस्मात् कारणात् तेन दुरुत्तरेण- मोक्षमार्गेण सुखतः सुखेनैव कः पुमान् ब्रजति यातीतिभावः । कुतः यदि चेत् भवद्भारती रत्नदीपः तव दिव्यभाषाः अप्रतिहत रत्न प्रभादीपः अग्रे अग्रे न भवति । भवतो जिनेन्द्रस्य भारती भवद्भारती सैव रत्नदीपः भवद्भारतीरत्नदीपः । कथम्भूतः भवद्भारतीरत्नदीपः ? तत्त्वैः सप्ततत्त्वैः अवभासतेऽसौ तत्त्वावभासी ।

भावार्थ - जिस मार्ग में खूब अँधेरा हो और गहरे गड्ढों से जहाँ ऊँची नीची जमीन हो उस मार्ग में जैसे कोई दीपक की सहायता के बिना सुखपूर्वक नहीं जा सकता इसी तरह मुक्ति के दुर्गम मार्ग में भी आपकी दिव्य ध्वनि रूपी दीपक की सहायता के बिना कोई सुख से नहीं जा सकता । श्लोक का सार यह है कि मोक्ष की प्राप्ति आपके उपदेश से ही हो सकती है।

आत्म सम्पदा : पवित्र स्तवन से

आत्मज्योति - र्निधि - रनवधि द्रष्टुरानन्दहेतुः
कर्मक्षोणीपटलपिहितो योऽनवाप्यः परेषाम् ।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाजः
स्तोत्रैर्बन्ध-प्रकृति- परुषोढ्दाम - धात्री - खनित्रैः ॥ १५ ॥

अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र ! (आत्मज्योतिर्निधिः ) यह आत्मज्ञानरूप सम्पत्ति (कर्मक्षोणीपटलपिहितः) ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूप पटलों से आच्छादित है - ढकी हुई है और (यः द्रष्टुः आनन्दहेतुः ) जो ज्ञानी पुरुष को आनन्द का कारण है इसलिए ( परेषां अनवाप्यः) मिथ्यादृष्टियों के द्वारा अप्राप्त है, उन्हें प्राप्त नहीं हो सकती । किन्तु (भवद्भक्तिभाजः) आपकी भक्ति करने वाले भव्य पुरुष (तं) उस आत्म ज्ञानरूप सम्पत्ति को (बन्ध-प्रकृतिपरुषोड्वामधात्री खनित्रैः) प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेशबन्धरूप अत्यन्त कठोर भूमि को खोदने के लिए कुदाली स्वरूप (स्तोत्र :slight_smile: आपके स्तवनों के द्वारा (अनतिचिरतः) शीघ्र ही (हस्ते कुर्वन्ति) अपने हाथ में कर लेते हैं - उसे प्राप्त कर लेते हैं ।

टीका - हे देव ! यः आत्मज्योतिर्निधिः अनवधिर्वर्तते । आत्मज्योति- रेवनिधिः आत्मज्योतिर्निधिः । न विद्यते अवधिः मर्यादा यस्य सः लोकालोक व्यापक इत्यर्थः। कीदृशः आत्मज्योतिर्निधिः ? द्रष्टुः पुरुषस्य आनन्दहेतुः पश्यतीति दृष्टा तस्य द्रष्टुः, आनन्दस्यहेतुः कारणं । पुनः कर्माण्येव क्षोणी पटलानि कर्मक्षोणिपटलानि तैः पिहितः आच्छादितः । पुनः परेषां प्राणिनां अनवाप्यः-अवाप्यतेऽसौ अवाप्यः न अवाप्यः अनवाप्यः । भो देव ! भवद्भक्ति-भाजः पुमांसः तं आत्मज्योतिर्निधिं स्तोत्रैः कृत्वा अनति चिरतः स्वकल्प-काले नेवहस्ते कुर्वन्ति भवतः परमेश्वरस्य भक्तिं भजते ते भक्तिभाजः। कथंभूतैः स्तोत्रैः ? बन्धः प्रकृतयः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशा बन्धप्रकृतयः एव पुरुषाः कठिनाः उड्दामाः उत्कटाः या धरित्र्यः । खनित्राणि कुड्वालानि तैः स्तोत्रर्बन्ध - प्रकृतिपुरुषोद्दामधात्रीखनित्रैः ।

भावार्थ- जैसे जमीन में गढ़ा हुआ धन कुदाली के बिना प्राप्त नहीं हो सकता, उसी तरह कर्मरूपी परदे के भीतर छुपा हुआ आत्मज्ञान आपके स्तोत्रों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। जब आपकी स्तुति से कर्मों का पटल क्षीण होगा, तभी आत्मज्ञान प्राप्त हो सकता है, अन्य प्रकार से नहीं ।

मोक्ष समुद्र तक लम्बी

प्रत्युत्पन्ना नय - हिमगिरेरायता चामृताब्धेः,
या देव त्वत्पद-कमलयोः सङ्गता भक्ति - गङ्गा ।
चेतस्तस्यां मम रुचि -वशादाप्लुतं क्षालितांहः
कल्माषं यद् भवति किमियं देव ! सन्देहभूमिः ॥ १६ ॥

अन्वयार्थ - (देव ! ) हे नाथ! ( नयहिमगिरे:) स्याद्वाद नयरूप हिमालय पर्वत से (प्रत्युत्पन्ना) उत्पन्न हुई (च) और (अमृताब्धेः) मोक्षरूपी समुद्र तक (आयता) लम्बी (या) जो यह (त्वत्पदकमलयोः) आपके चरण कमल सम्बन्धी (भक्तिगङ्गा) भक्तिरूपी गंगानदी (सङ्गता) प्राप्त हुई है (तस्यां ) उसमें (रुचिवशात्) प्रेम के वश (आप्लुतम्) डूबा हुआ (मम) मेरा (चेतः) मन (यत्) जो (क्षालितांह: कल्माषं) जिसकी पापरूपी कालिमा धुल गई है - ऐसा पापरूपी रज से रहित (भवति) हो जाता है । (देव!) हे नाथ! (इयम्) यह (किम् ) क्या कोई (सन्देहभूमिः) सन्देह का स्थान है? अर्थात् नहीं है ।

टीका - हे देव! या प्रसिद्धाभक्ति गङ्गा भवद्भक्ति स्वर्धुनी नयहिमगिरेः स्याद्वादनयरूप हिमपर्वतात् प्रत्युत्पन्नाऽस्ति । नय एव हिमगिरिः हिमाचलस्तस्मात् भक्तिरेव गङ्गा भक्तिगङ्गा कथम्भूता गङ्गा । च पुनः अमृताब्धेः मोक्षसागरस्य आयता मिलिता । च पुनः या गङ्गा त्वत्पदकमलयोः तवचरणकमलयोः सङ्गता आश्रिता । तवपदकमले त्वत्पदकमले तयोः । तस्यां गङ्गायां मम चेतो ममान्तः करणं रुचिवशात् स्नेहयोगात् आलुप्तं स्नातमित्यर्थैः। यदन्तः करणं क्षालितांहः भवति । इयं किं सन्देह भूमिः सन्देह स्थानं? क्षालितं अहः कल्माषं पापरजो यस्य तत् सन्देहभूमिः ।

भावार्थ- गंगा नदी हिमालय पर्वत से प्रकट हुई है और समुद्र पर्यन्त लम्बी है तथा अन्य मत के पुराणों में प्रचलित है कि वह विष्णु के चरणों में भी आकर मिली थी। गंगा नदी में स्नान करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है-उसके सब पाप धुल जाते हैं यह भी अन्य मत में प्रसिद्ध है । कवि ने इस अन्य मत प्रसिद्ध बात को यहाँ रूपक अलंकार से वर्णन किया है। भगवन्! मेरी जो आपमें भक्ति पैदा हुई है वह आपके सुन्दर अनेकांतरूप नय को देखकर ही हुई है और वह भक्ति तब तक रहेगी जब तक अमृत- मोक्ष की प्राप्ति न हो जायेगी तथा वह भक्ति हमेशा आपके चरण-कमलों में रहती है। इस तरह नयरूप हिमालय से निकली और मोक्षरूप समुद्र तक लम्बी तथा आपके चरणों में आश्रय पाने वाली भक्तिरूप गंगा नदी में नहाने वाला मेरा मन सब पापरूप मैल को धोकर यदि शुद्ध हो जावे तो इसमें क्या सन्देह है? श्लोक का सार यह है कि चित्त की शुद्धि आपकी भक्ति से ही होती है ।

अभिमत फल प्रदाता

प्रादुर्भूत- स्थिर - पद - सुखं! त्वामनुध्यायतो मे
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा ।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति-मभ्रेषरूपाम्
दोषात्मानोऽप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति ॥ १७ ॥

अन्वयार्थ – (प्रादुर्भूतस्थिरपदसुख! ) जिनके स्थायी सुख प्रकट हुआ है ऐसे (हे वीतरागदेव ) ( त्वाम अनुध्यायतः मे) आपका बार-बार ध्यान करने वाले मेरे हृदय में (त्वयि ) आपमें अथवा आपके विषय में (अहं सः एव ) जो आप हैं वही मैं हूँ (इति) ऐसी जो (निर्विकल्पा) विकल्प रहित (मतिः) बुद्धि (उत्पद्यते) उत्पन्न होती है यद्यपि (इयम् मिथ्या एव) यह बुद्धि असत्य ही है (तदपि ) तो भी (अभ्रेषरूपां तृप्तिं) निश्चल अविनाशी सन्तोष सुख को (तनुते ) विस्तृत करती है। सच है (त्वत्प्रसादात्) आपके प्रसाद से ( दोषात्मानः अपि) सदोषी पुरुष भी (अभिमतफलाः) इच्छित फल को प्राप्त (भवन्ति) होते हैं ।

टीका - भो देव! प्रादुर्भूतं प्रकटीभूतं स्थिरपदसुखं मोक्षपदस्य सुखं यस्य स तस्यामन्त्रणे प्रादुर्भूतस्थिरपदसुखं मे ममत्वयि विषये। स अहमेव इतिमतिः उत्पद्यते । कथम्भूतस्य मे? त्वामनुध्यायतः अनुध्यायतीति अनुध्यायन् तस्य । कीदृशी मतिः ? निर्विकल्पा निःसन्देहा इत्यर्थः । विकल्पा निष्कान्ता- निर्विकल्पा । तदपि चेत् इयं मतिः अभ्रेषरूपां तृप्तिं निश्चलरूपां तृप्तिं मिथ्यैव तनुते विस्तारयते । दोषात्मानोऽपि पुमान्सः त्वत्प्रसादात् तवप्रसादातः अभिमत-फलाः भवन्ति । अभिमतं फलं येषां ते ।

भावार्थ– भगवन्! जब मैं आपका ध्यान करता हूँ तब मै अपने आपको भूल जाता हूँ और यह समझने लगता हूँ कि आप जिस रूप हैं उसी रूप मैं भी हूँ (द्रव्य दृष्टि से) आपमें और मुझमें कुछ भी अन्तर नहीं है। यद्यपि मेरी यह समझ (पर्यायदृष्टि से) झूठ है। क्योंकि आप अविनाशी सुख को प्राप्त हैं और मैं संसार में जन्म मरण के दुःख उठा रहा हूँ। फिर भी वह मुझे आत्मा के स्वभाव का बोधकर अविनाशी सन्तोष प्राप्त करा देती है। अर्थात् मुझे यह जानकर सन्तोष होता है कि मैं भी आपके ही समान अनंत-सुखरूप हूँ । भले ही वर्तमान में दुःख उठा रहा हूँ, किन्तु कारण मिलने पर एक दिन आप जैसा हो सकता हूँ । आपके ध्यान पहले मुझे अपने असली स्वरूप का पता नहीं था, इसलिए निरन्तर दुखी रहता था। प्रभो! मेरी वह सदोष बुद्धि भी मुझे जो इच्छित फल दे सकी यह आपका ही प्रसाद है ।

सप्तभंग रूप लहर

मिथ्यावादं मल - मपनुदन् - सप्तभङ्गीतरङ्गैः-
वागम्भोधिर्भुवनमखिलं देव ! पर्येति यस्ते ।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन,
व्यातन्वन्तः सुचिर-ममृता - सेवया तृप्नुवन्ति ॥ १८॥

अन्वयार्थ– (देव!) हे स्वामिन्! (ते) आपका (यः) जो (वागम्भोधिः) दिव्यध्वनिरूपी समुद्र (सप्तभङ्गीतरङ्गैः) सप्तभंग रूप लहरों के द्वारा [ स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य, स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य] (मिथ्यावादं मलं) सर्वथा एकान्त कदाग्रह मिथ्यात्वरूप मल को (अपनुदन्) हटाता हुआ (अखिलं भुवनं ) समस्त संसार को ( पर्येति) घेरे हुए हैं- समस्त संसार में व्याप्त है । (विबुधाः) देव अथवा बुद्धिमान (चेतसा एव अचलेन) मनरूपी मन्दारगिरि के द्वारा (तस्य) उस वचनरूप समुद्र का (आवृत्तिम्) मन्थन क्रिया अथवा बार-बार अभ्यास को (व्यातन्वन्तः) विस्तृत करते हुए (सपदि) शीघ्र ही (अमृतासेवया) अमृत के सेवन से - मोक्ष प्राप्ति से ( सुचिरं ) चिरकाल तक (तृप्नुवन्ति) संतुष्ट हो जाते हैं।

टीका— हे देव ! यः ते तव वागम्भोधिः भवद्द्द्दिव्यध्वनिसागरः अखिलं भवनं पर्येति-व्याप्नोति ! वाक् एव अम्भोधिः वागम्भोधिः । कीदृशः वागम्भोधिः? सप्तभङ्गीतरङ्गैः कृत्वा मिथ्यावादं मलं अपनुदन् स्फोटयन्। सप्तभंग्या एव तरङ्गाः सप्तभंगीतरङ्गः तैः सप्तभङ्गीतरङ्गैः । विबुधा विबुधाजनाः सपदि शीघ्रं चेतसा एव अचलेन मनः एवं पर्वतेन कृत्वा तस्य वागम्भोधेः आवृत्तिं मन्थनं व्यातन्वन्तः सन्तः सुचिरं चिरकालं अमृतसेवया तृप्नुवन्ति । अमृतं पीयूषं पक्षे मोक्षस्तत् आसेवा तया ।

भावार्थ- लोक में प्रसिद्ध है कि एक बार देवों ने मन्दरगिरि को मथानी और शेषनाग को मन्थन नेत्र - कढ़निया बनाकर समुद्र को मथा था । उससे चौदह रत्न निकले थे । उनमें अमृत भी एक रत्न था । देवलोग उस अमृत को पीकर हमेशा के लिए सन्तृप्त हो गये थे । कवि ने इस श्लोक के विबुध, आवृत्ति और अमृत शब्द के श्लेष तथा वचन-समुद्र और चित्त- अचल के रूपक से इसी प्रसिद्ध बात को निरूपण किया है । विबुध के दो अर्थ हैं - देव और विद्वान् । आवृत्ति के दो अर्थ हैं - मन्थन और बारबार अभ्यास । इसी तरह अमृत शब्द के भी दो अर्थ हैं- सुधा और मोक्ष हे भगवन्! जिस तरह देव लोग मन्दरगिरि के द्वारा समुद्र को मथकर अमृतपान करने से सन्तुष्ट हो गये थे, उसी तरह विद्वान् भी अपने मनसे आपके उपदेश का बारबार अभ्यास कर मुक्त हो हमेशा के लिए सन्तुष्ट हो जाते हैं - अनन्त सुख सहित हो जाते हैं।

सर्वांग सुन्दर : प्रभु हमारे

आहार्य्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः,
शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः ।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां,
तत्किं भूषावसनकुसुमैः किञ्च शस्त्रैरुदस्त्रैः ॥१९॥

अन्वयार्थ— हे भगवन्! (यः) जो (स्वभावात्) स्वभाव से (अहृद्यः स्यात्) अमनोज्ञ-कुरूप होता है ( स एव ) वह ही (आहार्य्येभ्यः ) वस्त्राभूषणादि के द्वारा शरीर को अलंकृत करने की (स्पृहयति) इच्छा करता है। (च) और (यः) जो (वैरिणा ) शत्रु के द्वारा (शक्यः ) जीतने योग्य होता है, वही (शस्त्रग्राही भवति) शस्त्रों को ग्रहण करने वाला होता है - उसे ही त्रिशूल - गदा - भाला - बरछी - तलवार आदि शस्त्रों की आवश्यकता होती है-किन्तु हे भगवन् ! (त्वम्) आप (सर्वाङ्गेषु सुभगः असिः) सर्वांग रूप से सुन्दर हो, और ( त्वं परेषां न शक्यः) न आप शत्रुओं के द्वारा जीते जा सकने योग्य हो, (तत्) इस कारण (तव) आपको (भूषावसनकुसुमैः) आभूषण, वस्त्र तथा फूलों से (च) और (उदस्त्रैः अस्त्रैः किं) ऊपर उठाये हुए अस्त्र-शस्त्रों से क्या प्रयोजन है?

टीका- भो देव! यः कश्चित् परोदेवः स्वभावात् निसर्गेण अहृद्यः अमनोज्ञः कुरूपः स आहार्य्येभ्यः शृङ्गारेभ्यः स्पृहयति वाञ्छति नान्यः, च पुनः भो देव! यः कश्चित् वैरिणा शक्यो भवति स पुमान् सततं निरन्तरं शस्त्रग्राही भवति। शस्त्राणि गृह्णातीति शस्त्रग्राही । नान्यः । हे देव! त्वं सर्वाङ्गेण सुभगः असि। सर्वशरीरेण सुन्दरोऽसि । पुनः त्वं वैरिणां शक्योपि न। परेणां बाह्यांतर वैरिणां कदापि जेतुं न शक्यः । तत्र तस्मात् कारणात् स्वभावसौन्दर्यालंकृतस्य तव भूषा वसनकुसुमैः किं प्रयोजनं? शृङ्गार पट्टकूलमाल्यादिभिः किंनिमित्तं ? भूषाश्च वसनानि च कुसमानि च तैः भूषावसनकुसुमैः। च पुनः निर्वैरिणस्तव उदस्त्रैः शस्त्रैः किं प्रयोजनं? अपि तु न किमपि प्रयोजनमित्यर्थः ।

भावार्थ- संसार के अन्य देवी-देवता, तरह-तरह के आभूषण और कपड़े वगैरह पहिनते हैं तथा कई प्रकार के तीक्ष्ण त्रिशूल, गदा, कृपाण आदि हथियार धारण करते हैं उसका कारण है कि वे स्वभाव से कुरूप हैं और उन्हें शत्रु से भय बना रहता है। पर आपका जन्म से ही अतिशय रूप होता है। आप अत्यन्त सुन्दर हैं और अनन्त बल से सहित तथा द्वेष आदि से रहित होनेके कारण आपको शत्रुओं का डर नहीं है इसलिए आप न गहना पहनते हैं न कपड़े धारण करते हैं और न हथियार ही लिए हैं । श्लोक का सार यह है कि आप वीतराग-रागद्वेष से रहित हैं ।

पुण्य प्रदायी : जिनवर सेवा

इन्द्रः सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते,
तस्यैवेयं भवलयकरी श्लाघ्यता - मातनोति ।
त्वं निस्तारी जनन - जलधे: सिद्धिकान्तापतिस्त्वं,
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्॥२०॥

अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र ! (इन्द्रः ) इन्द्र (तव) आपकी (सेवाम्) सेवा को (सुकुरुताम्) अच्छी तरह से करे, (तया) उसके द्वारा (ते) आपकी (किं श्लाघनं) क्या प्रशंसा है ? (इयम्) यह सेवा तो (तस्य एव) उस इन्द्र की ही (भवलयकरी) संसार परिभ्रमण का नाश करने वाली ( श्लाघ्यताम् ) प्रशंसा को ( आतनोति ) विस्तृत करती है (त्वं) आप (जननजलधेः) संसार-समुद्र से ( निस्तारी ) तारने वाले हैं तथा (त्वं) आप (सिद्धिकान्ता पतिः) मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी हैं और (त्वं) आप (लोकानां) तीनों लोकों के (प्रभुः ) निग्रह - अनुग्रह में समर्थ हैं, (इत्थम्) इस प्रकार (इति) यह (तव) आपका (स्तोत्रम्) स्तोत्र - स्तवन (श्लाघ्यते) प्रशंसनीय है।

टीका— भो देव! इन्द्रः तव भगवतः सेवां सुकुरुतां तया सेवया ते तव किं श्लाघनं प्रशंसनं अपितु न । तस्येन्द्रस्य इयमेव सेवा श्लाघ्यतां प्रशंसतां आतनोति विस्तारयति । कथंभूतेयं (सेवां ?) भवलयकारी भवः संसार- स्तस्यलयो नाशस्तं करोति । भो देव! इतिकारणात् तव स्तोत्रम् इत्थं श्लाघ्यते । इतीति किं यतः कारणात् त्वं जननजलधेः संसारसमुद्रात् निस्तारीं वर्तसे च पुनः त्वं सिद्धिकान्तापतिः, त्वं लोकानां प्रभुः, जननमेवजलधिः तस्मात्, सिद्धिकान्तायाः पतिः सिद्धिकान्तापतिः ।

भावार्थ- भगवन्! कई मनुष्य आपकी स्तुति करते हैं कि-" आप इन्द्रों के द्वारा सेवनीय हैं" सो उनकी यह स्तुति ठीक नहीं है। क्योंकि तुच्छ जीव तो महापुरुषों की सेवा करते ही हैं उसका वर्णन करने से महापुरुषों की प्रशंसा नहीं होती। बल्कि सेवा करने वालों की प्रशंसा होती है कि वे किसी महापुरुष के सेवक हैं। हाँ ! इस प्रकार आपका स्तवन किया जा सकता है कि आप जीवों को संसार-समुद्र से तारने वाले हैं, मुक्ति स्त्री के स्वामी है और तीनों लोकों के प्रभु हैं ।

कल्पवृक्ष सम फल प्रदाता

वृत्तिर्वाचामपर - सदृशी न त्वमन्येन तुल्यः,
स्तुत्युद्गाराः कथमिव ततः त्वय्यमी नः क्रमन्ते ।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्-भक्ति-पीयूष-पुष्टास्-
ते भव्यानामभिमत- फलाः पारिजाता भवन्ति ॥ २१ ॥

अन्वयार्थ– (भगवन्!) हे स्वामिन्! (वाचां वृत्तिः ) आपके वचनों की प्रवृत्ति (अपरसदृशी न) दूसरे के समान नहीं है ( न त्वं अन्येना तुल्यः) न आप भी अन्य के सदृश हैं (ततः) इसलिए (नः) हमारे (अमी) ये (स्तुत्युद्गाराः) स्तुति - वाक्य ( त्वयि ) आपके विषय में (कथं इव) किस तरह (क्रमन्ते) संगत हो सकते हैं - पहुँच सकते हैं (तदपि) तो भी (भक्तिपीयूषपुष्टाः) भक्तिरूपी अमृत से परिपुष्ट हुए (ते) वे स्तुति के वाक्य (भव्यानाम्) भव्यजीवों के लिए (अभिमतफलाः ) इच्छित फल के देने वाले (पारिजाताः) कल्पवृक्ष (भवन्ति) होते हैं ।

टीका- भो भगवन्! वाचां वृत्तिर्वाग्विलासः अपरसदृशी (अपरेण- सदृशी अपरसदृशी) त्वम् अनुपमानः । त्वं देवः अन्येन न तुल्योऽसि, अनुपमोऽसि। ततस्तस्मात्कारणात् नोऽस्माकं अमीस्तुत्युद्गाराः त्वयि विषये कथमिव क्रमन्ते । अस्माकं स्तुतिविलासः कथमिव तुभ्यं रोचन्ते । एवं यद्यपि वर्तते, तदपि एवं मा अभूवन् । ते भक्तिपीयूषपुष्टाः स्तुत्युद्गाराः भव्यानां अभिमतफलाः पारिजाताः मनोऽभीष्ट फलाः कल्पवृक्षाः भवन्ति। भक्तिरेव पीयूषं भक्ति पीयूषं तेन पुष्टाः अभिमतं फलं येषां ते ।

भावार्थ– भगवन्! जब आपके वचन अनुपम हैं और आप स्वयं भी उपमारहित हैं तब आपके वचन दीपक के समान हैं, अथवा आप अमुक पदार्थ के समान हैं" इस प्रकार की स्तुति आपके विषय में कैसे लागू हो सकती है । परन्तु भक्तिमार्ग में इस बात का विचार नहीं किया जाता। भक्ति के कारण भव्यों के वे मिथ्या उद्गार भी कल्पवृक्ष की तरह मनोवाञ्छित फल देते हैं।

अतुलनीय प्रभावक

कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो,
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षम् ।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि-र्वैर-हारी,
क्वैवंभूतं भुवन- तिलक ! प्राभवं त्वत्परेषु॥२२॥

अन्वयार्थ– (देव!) हे नाथ! (तव) आपका (क्वापि) किसी पर भी (कोपावेशः) क्रोधभाव (न अस्ति) नहीं है और (न तव) न आपकी (क्वापि) किसी पर (प्रसादो) प्रसन्नता है (हि) निश्चय से (अनपेक्षम्) स्वार्थरहित (तव) आपका (चेतः) मन (परम उपेक्षया एव) अत्यन्त उदासीनता से ही (व्याप्तम्) व्याप्त है (तदपि ) तो भी (भुवनं) संसार (आज्ञावश्यं) आपकी आज्ञा के आधीन है और आपकी (सन्निधिः ) समीपता/निकटता (वैरहारी) परस्पर के वैर-विरोध को हरने वाली है और इस तरह (भुवनतिलक!) तीनों लोकों में श्रेष्ठ हे देव! (एवम्भूतं) ऐसा (प्राभवं) प्रभाव (त्वत्) आपसे (परेषु) भिन्न- दूसरे हरि-हरादिक देवों में (क्व भवेत्?) कहाँ हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता ।

टीका - हे देव! तव परमेश्वरस्य क्वापि कोपावेशो न क्रोधप्रवेशो न वर्तते । कोपस्य आवेशः कोपावेशः । भो देव ! क्वापि प्रसादो न, प्रसन्नतापि न । हि निश्चितं तव चेतः परमोपेक्षया एव व्याप्तं । परमा चासौ उपेक्षाबुद्धिश्च परमोपेक्षा तया परमोपेक्षया इत्थम्भूतं चेतः? न विद्यते अपेक्षा वाञ्छा यस्य तत् । एवं यद्यप्यस्ति तदपि भुवनं आज्ञावश्यं विद्यते । आज्ञयैव वश्यं आज्ञावश्यं । यद्यपि तव क्वापि प्रसादो न, तदपि तव सन्निधिर्वैरहारी वर्तते । भो भुवनतिलक! एवम्भूतं प्राभवं त्वत्परेषु हरिहरादिषु देवेषु प्राभवं प्रभुत्वं क्वास्ति? न क्वाप्यतीत्यर्थः । भुवनस्य तिलकः भुवनतिलकस्तस्यामन्त्रणे हे भुवन तिलक! त्वत्तः परे त्वत्परे तेषु त्वत्परेषु ।

भावार्थ– भगवन्! आप राग द्वेष दोनों से रहित हैं, आपका चित् बिलकुल निरपेक्ष है, फिर भी संसार आपकी आज्ञा में चलता है और आपकी समीपता सबके वैर को दूर कर देती है। आप जैसा यह विलक्षण प्रभुत्व संसार के दूसरे प्रभुओं में नहीं पाया जाता। आप अनोखे स्वामी हो ।

क्षेम पद प्रदाता

देव! स्तोतुं त्रिदिवगणिका-मण्डलीगीत-कीर्ति,
तूर्त त्वां सकल- विषय - ज्ञान - मूर्ति जनो यः ।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्था-
स्तत्त्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नैष मोमूर्ति मर्त्यः ॥ २३॥

अन्वयार्थ - ( देव !) हे देव! (त्रिदिवगणिका - मण्डलीगीत- कीर्ति) स्वर्ग की अप्सराओं के समूह द्वारा जिनकी कीर्ति गाई गई है, ऐसे तथा (सकल-विषयज्ञानमूर्ति:) समस्त पदार्थों को विषय करने वाले ज्ञान की मूर्ति स्वरूप (त्वां) आपकी (स्तोतुं ) स्तुत करने के लिए (यः) जनः) जो मनुष्य (तोतूर्तिः) शीघ्रता करता है वह (क्षेमं पदं अटतः) कल्याणकारी स्थान अर्थात् मोक्ष को जाते हुए (तस्य) उस मनुष्य का (पन्थाः) मार्ग (जातु) कभी भी (न जोहूर्ति) कुटिल नहीं होता और (न एषः मर्त्यः) न यह मनुष्य (तत्त्वग्रन्थ- स्मरणविषये) तत्त्व ग्रन्थों के स्मरण के विषय में (मोमूर्ति) मूर्च्छित होता है।

टीका- भो देव! यः जनः त्वां परमेश्वरं स्तोतुं तोतूर्ति त्वरितो भवति कथम्भूतं त्वां? त्रिदिव गणिकामंडलीगीतकीर्तिः त्रिदिवस्य स्वर्गस्यगणिका अप्सरसोऽनीकिन्यो वा तासां मण्डली तथा गीता कीर्तिर्यस्य स तं पुनः कथम्भूतं? यः सकलविषयज्ञानमूर्तिः सकलविषयं लोकाऽलोकाकाश-विषय यत् ज्ञानं तस्य मूर्तिः । तस्य पुरुषस्य जातु कदाचित् पन्थाः मोक्षमार्गः न हूर्त नकुटिलो भवति । कथम्भूतस्य तस्य ? क्षेमपदं मोक्षस्थानं अटतः व्रजतः। एषः मत्र्त्यः तत्त्वग्रन्थस्मरणविषये न मोमूर्ति न सन्देह प्राप्नोति । तत्त्वग्रंथस्य स्मरणं तस्य विषयस्तस्मिन् ।

भावार्थ— हे भगवन्! जो आपकी स्तुति करने के लिए तत्पर होता है उसकी स्वर्ग - मोक्ष यात्रा में कोई बाधा नहीं आती और वह तात्त्विक ग्रन्थों का महान् पण्डित बन जाता है ।

पञ्चकल्याणक पद प्रदायी

चित्ते कुर्वन् निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपं,
देव ! त्वां यः समय नियमादादरेण स्तवीति ।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृति तावता पूरयित्वा,
कल्याणानां भवति विषयः पञ्चधापञ्चितानाम्॥२४॥

अन्वयार्थ - (देव!) हे जिनेन्द्र ! (यः) जो मनुष्य (निरवधि-सुख- ज्ञानदृग्वीर्यरूपम्) अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य स्वरूप (त्वाम्) आपको (चित्ते कुर्वन्) मन / हृदय में धारण करता हुआ (समय-नियमात्) समय के नियम से अर्थात् निश्चित समय तक (आदरेण) विनयपूर्वक (स्तवीति) आपकी स्तुति करता है । ( खलु ) निश्चय से (सः) वह (सुकृति) पुण्यवान् (तावता) उस स्तवन मात्र से (श्रेयोमार्गं) मोक्षमार्ग को (पूरयित्वा) पूर्ण करके (पञ्चधा पञ्चितानाम्) पाँच प्रकार से विस्तृत (कल्याणानाम्) कल्याणकों का - गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणरूप पञ्चकल्याणकों का ( विषयः भवति) पात्र होता है ।

टीका— भो देव! यः पुमान् त्वां भगवन्तं चित्ते कुर्वन् समयनियमात्- कालनियमात् आदरेणस्तवीति तोष्टवीति । समयनियमस्तस्मात् । कथम्भूतं त्वां? निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपं सुखं च ज्ञानं च दृग् च वीर्यं च सुखज्ञान- दृग्वीर्याणि । निरवधीनि मर्यादारहितानि च सुखज्ञानदृग्वीर्याणि च तैः रूप्यते लक्ष्यते इति निरतं खलु निश्चितं सुकृति पुमान् तावता श्रेयोमार्गं पूरयित्वा पञ्चधा पञ्चितानां कल्याणानां विषयो स्थानं भवति । पञ्चधा पञ्चिताः विस्तृताः तेषां पञ्चधा पञ्चितानाम्।

भावार्थ- जो मनुष्य अनन्त चतुष्टय से शोभायमान आपकी हृदय से स्तुति करता है वह तीर्थंकर होकर गर्भ आदि पाँच कल्याणकों का पात्र होता है।

गुणानुराग: आत्मोन्नति साधक

भक्ति-प्रह्वमहेन्द्र- पूजित - पद ! त्वत्कीर्तने न क्षमा:-
सूक्ष्म-ज्ञान-दृशोऽपि संयमभृतः के हन्त मन्दा वयम् ।
अस्माभिः स्तवनच्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते,
स्वात्माधीनसुखैषिणां स खलु नः कल्याण- कल्पद्रुमः ॥२५॥

अन्वयार्थ – (भक्तिप्रह्वमहेन्द्रपूजितपद ! ) भक्ति से नम्रीभूत इन्द्रों के द्वारा जिनके चरण पूजित हुए हैं, ऐसे हे जिनेन्द्र ! (सूक्ष्मज्ञानदृशः ) सूक्ष्मज्ञान ही जिनके नेत्र हैं, ऐसे (संयमभृतः अपि) तपस्वी भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानादि के धारक संयमी योगीश्वर भी ( त्वत्कीर्तिने) आपके गुणगान में जब (क्षमा: न ‘सन्ति’) समर्थ नहीं हैं, तब (हन्त) खेद है कि ( वयं मन्दा: के) हम जैसे मन्दबुद्धि पुरुष आपकी स्तुति करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? (तु) किन्तु (स्तवनच्छलेन) स्तवन के छल से (अस्माभिः) हमारे द्वारा (त्वयि ) आपमें (परः ) उत्कृष्ट (आदरः) सम्मान (तन्यते) विस्तृत किया जाता है। (खलु) निश्चय से (सः) वह सम्मान ही (स्वात्माधीनसुखैषिणां निजात्मा के आश्रित सुख के चाहने वाले (नः) हम लोगों के लिए (कल्याणकल्पद्रुमः) कल्याण करने वाला कल्पवृक्ष होवे ।

टीका– भक्त्या प्रह्वो नम्रीभूतो यो महेन्द्र तेन पूजितपदे महेन्द्रेण पूजिते पदे चरणकमले यस्य स तस्यामन्त्रणे हे भक्तिप्रह्वमहेन्द्रपूजितपद ! त्वकीर्त्तने तव स्तवने संयमभृतो गणधरादयोऽपि क्षमा न समर्था न । कथंभूताः संयम भृतः? सूक्ष्मज्ञान दृशः सूक्ष्मज्ञानमेव दृक् येषां ते । वयं अस्मद् विधाः मंदमेधसः के? तु पुनः अस्माभिः स्तवनच्छलेन स्तोत्रमिषेणैव त्वयि विषये आदरः तन्यते विस्तार्यते, स्तवनस्य छलं स्तवनच्छलं तेन । कीदृशः आदरः परः उत्कृष्टः खलु निश्चितं सः कल्याणकल्पद्रुमः नः अस्माकं अस्तु । कीदृशानामस्माकं? स्वात्माधीन - सुखेषिणां स्वस्य आत्मा स्वात्मा अथवा सुष्ठु च आत्मा च स्वात्मा तदधीनां यत्सुखं तदिच्छतीति तेषां कल्याणानां कल्पद्रुमः कल्याणकल्पद्रुमः ।

भावार्थ– हे भगवन्! जब बड़े - बड़े मुनि भी आपकी स्तुति नहीं कर सकते तब हम मूर्ख कैसे कर सकेंगे? हम तो सिर्फ भक्ति से आप में आदर प्रदर्शित करते हैं और हमारा यह निश्चय भी है कि वह आदर ही हम लोगों के लिए आत्मिक सुख देने के लिए कल्पवृक्ष होगा ।

[वादिराजमनु शाब्दिक - लोको, वादिराजमनु तार्किकसिंहः ।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्य-सहायः॥]

अन्वयार्थ – (शाब्दिकलोकः) वैयाकरण - व्याकरण शास्त्र के वेत्ता (वादिराजम् अनु) वादिराज से हीन हैं ( तार्किकसिंहः) श्रेष्ठ नैयायिक (वादिराजम् अनु) वादिराज से हीन हैं, और (ते काव्यकृतः) प्रसिद्ध कवि लोग (वादिराजम् अनु ) वादिराज से हीन हैं (भव्यसहायः) सज्जनगण भी ( वादिराजम् अनु) वादिराज से हीन हैं ।
भावार्थ– एकीभाव स्तोत्र के रचयिता वादिराज आचार्य सबसे श्रेष्ठ वैयाकरण, नैयायिक, कवि और सहृदय पुरुष थे ।
(इस श्लोक में आचार्य वादिराज की आत्म-प्रशंसा है। विदित होता है यह श्लोक आचार्य की विद्वत्ता पर मुग्ध हो, उनके भक्त ने रचकर स्तोत्र के नीचे लिख दिया है और वह बाद में मूल रूप में होकर स्तोत्र में शामिल कर लिया गया है।)

Source: Panch Stotra Sangrah

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