एकेन्द्रिय और त्रस में अंतर
वर्तमान में श्रावकाचार पालन करने की भूमिका में
बहुत सारे प्रश्न उठते हैं कि वनस्पति के भक्षण में भी
हिंसा है और त्रसकाय के भक्षण में भी हिंसा है।
इनका विज्ञान एवं जैन धर्म के आलोक में कुछ विश्लेषण किया जा रहा है। इस संबंधी हमें श्रोताओं से निवेदन प्राप्त हुए थे, इसलिए विशेष रूप से लेख लिख रहे हैं ।
एकेन्द्रिय वनस्पति में जीवों का स्वरूप कोशिकामय होता है अर्थात् सेल्स जाति के जीव पाए जाते हैं। जैसे कि हम प्रयोगशाला में प्याज की स्लाइस को लेकर उसके पतले छिलके को देखते हैं तो उसमें कोशिका जाति के जीव पाए जाते हैं, वह पर्टिकुलर सॉल्यूशन (विशिष्ट द्राव) डालने के बाद में 1 मिलीमीटर क्षेत्र में 30-32 कोशिकाएँ आसानी से स्वयं हमने देखी हैं, जिसमें माइटोकॉन्ड्रिया में यह पावर हाउस बताया जाता है और साइटोप्लास्म, न्यूक्लियस आदि भी कंटेंट दिखते हैं और इस कोशिका के दूसरे घटक भी बताए जाते हैं। यह कोशिका जातीय जीव सभी वनस्पतिकाय में पाए जाते हैं ।
कंदमूल आदि में यह अनंत होते हैं, जबकि सभी हरितकाय में असंख्य पाए जाते हैं, इसलिए हम चतुर्दशी - अष्टमी को नियम पूर्वक हरितकाय का त्याग करते हैं ।
पत्ता या लौकी आदि सब्जी को देखकर कोई यह नहीं बता सकेगा कि इसका मुँह कौन-सा है, पेट कौन-सा है और हाथ पैर कौन सा है अर्थात् आंगोपांग नामकर्म के उदय बिना इन जीवों की रचना होती है इसलिए अंग और उपांग ऐसी रचनाएँ एकेन्द्रिय जीवों में नहीं पाई जातीं । जबकि त्रस में आंगोपांग नामकर्म एवं संहनन नामकर्म का उदय प्रारंभ होता है, इसलिए उसमें यह मुँह है, यह पेट है और इसके अंग हैं, इस प्रकार का भेद पाया जाता है। इसके शरीर को मांस कहते हैं अर्थात् रस आदि सात धातु है, भले वे हमें समझ में आवे या ना आवे ।
जैसे कोई इल्ली या छोटा कीड़ा दबने पर लाल रक्त ना निकल कर कोई रसनुमा स्राव निकलता है, वह उनके धातु होने की निशानी है एवं उनके अंग भी अनुमान से तथा कुछ स्पष्टरूप से ज्ञान में आते हैं ।
आगम में संपूर्ण रूप से त्रस हिंसा से बचने की विशेष प्रेरणा दी गई है। जैसा कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय में 76 गाथा में कहा है
धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोपि ये परित्यक्तुम् ।
स्थावरहिंसामसहास्त्रहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ।। 76 ।।
जो जीव अहिंसारूप धर्म को भले प्रकार सुनकर भी स्थावर जीवों की हिंसा छोड़ने को असमर्थ हैं, वे जीव भी त्रस जीवों की हिंसा त्याग दें । जो जीव अहिंसा ही जिसका स्वरूप है ऐसे धर्म का श्रवण गुरुमुख से करते हैं; परन्तु रागभाव के वश से स्थवार हिंसा को छोड़ने को असमर्थ हैं, उन जीवों को भी त्रसहिंसा का त्याग तो करना ही चाहिए ।
अर्थात् धर्म हिंसा स्वरूप है, ऐसा मान लेने पर भी जो संपूर्ण हिंसा छोड़ने में असमर्थ हैं, उन्हें त्रस हिंसा का त्याग तो करना ही चाहिए अर्थात् जो स्थावर हिंसा को छोड़ने में असमर्थ हैं, उन्हें त्रस हिंसा का त्याग तो करना ही चाहिए। यहाँ पर यह भी बताना चाहेंगे कि जो स्थावर जीव होते हैं, वह नियम से असंख्यात के ग्रुप में पाए जाते हैं, एक अकेला नहीं होता और अनंतकायिक जीव, जिनका जीवन, मरण, आयु, श्वासोच्छवास एक साथ होता है, वह भी एक साथ ही अनंत रूप पाए जाते हैं, अलग-अलग नहीं होते। असंख्यात जीव जो पृथक्-पृथक् आयु वाले हैं और उनका जन्म-मरण, आयु, श्वासोच्छ्वास अलग है, वे प्रत्येक जीव कहलाते हैं और जिनका जीवन, मरण, आयु, श्वासोच्छ्वास साथ होता है, वह साधारण जीव कहलाते हैं ।
लौकी आदि हरितकाय में रहने वाले जीव असंख्यात संख्या में अलग अलग आयु धारक प्रत्येक जीव हैं। जबकि आलू में रहने वाले अनंत जीव के कोई भी हिस्से पर एक सुई के अग्रभाग जितने प्रदेश पर अनंत अनंत जीव पाए जाते हैं ।
आगम में एकेन्द्रिय से अधिक मारने का पाप दो इंद्रिय को बताया गया है। उससे भी अधिक पाप तीन इंद्रिय में एवं तीन इंद्रिय को मारने से अधिक पाप चार इंद्रिय में और 4 से अधिक पाप पंचेन्द्रिय को मारने में बताया गया है; क्योंकि भाव प्राणों की अभिव्यक्ति वह उत्तरोत्तर पंच इन्द्रिय तक बढ़ती जाती है। बाकी हिंसा तो हिंसा रूप ही है भले वह सूक्ष्म या स्थूल क्यों न हो ।
इसलिए हमें हिंसा से बचने के लिए सभी प्रकार के पाप भाव को त्यागने हेतु हरितकाय के त्याग का विवेक रखना चाहिये । जितने भी पदार्थ जो मर्यादा के बाहर हो जाते हैं, उनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, जो कि बैक्टीरिया वायरस आदि नामों से जाने जाते हैं, इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए।
अमर्यादित वस्तु में दिन दूनी रात चौगुनी तरीके से जीवों की उत्पत्ति बढ़ती जाती है और उनका भक्षण या प्रयोग में लेने से वे सभी जीव मरण को प्राप्त हो जाते हैं; इसलिए मर्यादित भोजन करने में त्रस जीवों की दया विशेष रूप से पलती है।
हमारा भोजन अहिंसक हो, इसलिए उपरोक्त जानकारी से बहुत या अल्प पाप का विवेक प्रगट करना चाहिए ।
चर्चा:- डॉ. दीपक जैन ‘वैद्य रत्न’, जयपुर