दुविधा कब जैहै या मन की | duvidha kab jeehee ya mnn ki

दुविधा कब जैहै या मन की।।टेक।।
कब निजनाथ निरंजन सुमिरों, तज सेवा जन-जन की।।१।।

कब रुचि सौ पीवौं दृग चातक, बूंद अखयपद धन की।
कब शुभ ध्यान धरौ समता गहि, करूं न ममता तन की।।२।।

कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दृढ़ता सुगुरु वचन की।
कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धन की।।३।।

कब घर छाँडि होहूं एकाकी, लिये लालसा वन की।
ऐसी दशा होय कब मेरी, हौं बलि बलि वा छिन की।।४।।

रचयिता:- पंडित बनारसीदास जी

Singer: श्री मांगीलाल पं जी, कोलारस

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