द्रव्यलिंगी (भावलिंगी) मुनि | Dravyalingi (Bhavlingi) Monk/Muni

Jai Jinendra.
In one of the posts in Quora, somebody mentioned that “We had been Dravyalingi Muni multiple times and due to Karma / uday of Mithaytva we have gone back to Sansarik world”. Is that true?
Also there are very few munis who are DravyaLingi. Not many Munis are there who are BhaavLingi. DravyaLingi Munis are following 28 Mulgunas, but they do not have realization of their true nature of Atma (as mentioned there).Is that true? Doing vandana to these Dravyalingi Munis could cause Mithatva?

1 Like

All that you mentioned above is true except in fact there are many munis who are dravya lingis. Only 8,99,99,997 are bhaav lingi at any given point of time.

2 Likes

This subject already had a discussion, check old post. My points are:

  1. Just becoming muni i.e Dravyalingi will not guarantee Moksha. If there is no samyaktva then it is all mithaytva uday only.
  2. First comes BhaavLingi then Dravyalingi is just natural effect.
  3. This subject is very deep and complex, best book to read is ‘Gunasthan Vivechan’. Once you understand gunasthan then your doubts will be cleared.

Doing vandana is hot and sensitive topic so won’t comment on it.

3 Likes

It is the other way. First, one will have द्रव्यलिंग and then भावलिंग.

To put this in perspective - If we say that भावलिंग comes first, then it will lead to an absurd situation where a person may reach the 7th गुणस्थान and is still with परिग्रह. When will that person take the vows ? Because if भावलिंग has to come before द्रव्यलिंग, then it means that that person is still a श्रावक.

Only those who have taken the दीक्षा, and are following the rules of द्रव्यलिंग, are eligible to get that level of भावलिंग. Attaining भावलिंग of that level requires that extra cushion of the best possible शुभ भाव and शुभ क्रिया.

7 Likes

Are you saying Bhavling will automatically/sequentially come after Dravyaling?
Where did jeev get the bhaav to become muni?
Also when bhavling happens , Dravyaling follows immediately. For example, jeev decides to become muni because of his antrik shudha parinity and vitraagta.

The description of the situations is problematic.

  • As explained by @jinesh ji, Bhavlinga will always be aposteriori to dravyalinga.
  • The description also suggests that mere removal of the clothes and taking picchi and kamandalu results in the higher gunsthan which is not the case.
  • Note: At the initiation of muni-dasha, 7th gunsthan comes before the 6th.

These two cases are not possible.

Though already explained by @jinesh ji, I’ll try to put the concept in the question-answer way. The questions can be continued in the thread for further discussion.

द्रव्य लिंग और भाव लिंग किसके भाव है? जीव के या शरीर के? यदि जीव के, तो कौन से - शुद्ध, शुभ या अशुभ?

द्रव्य लिंग - शुभोपयोग रूपी जीव की परिणति और सहचारी नैमित्तिक रूप से चलने वाली शारीरिक परिणति भाव लिंग है।
भाव लिंग - वीतराग भाव रूपी जीव की शुद्ध परिणति भाव लिंग है।
*अशुभ भाव को द्रव्य लिंग की संज्ञा भी प्राप्त नहीं होती है।

द्रव्य लिंग और भाव लिंग की व्याप्ति किस रूप में घटित होती है?

द्रव्य लिंग का भाव लिंग से व्याप्ति रूप संबंध है परंतु भाव लिंग का द्रव्य लिंग से व्याप्ति रूप संबंध नहीं है।

व्याप्ति अर्थात क्या?

अन्वय व्यतिरेक संबंध को व्याप्ति कहते है। कारण के होने पर कार्य का होना और कारण के नहीं होने पर कार्य का नहीं होना। उदा. अग्नि की धुएं से व्याप्ति है। अग्नि के होने पर ही धुआं होता है और अग्नि के अभाव में धुआं नहीं होता है। (निर्धूम अग्नि की सत्ता होने पर भी यह व्याप्ति घटित होती है क्यूंकि अग्नि की धुएं से व्याप्ति है, न कि धुएं की अग्नि से व्याप्ति है)

द्रव्य लिंग और भाव लिंग की व्याप्ति को विस्तार से बताइए।

निम्न गुण स्थानों में द्रव्य लिंग और भाव लिंग को देखते है -

पंचम गुण स्थान वर्ती श्रावक -
द्रव्य लिंग - देश संयम (तेरह विध चारित्र) को ग्रहण करने योग्य शुभ उपयोग रूप परिणति एवम् तत्निमित्तक सहचर रूप शारीरिक प्रवृत्ति
भाव लिंग - अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यान - इन दो कषाय चौकड़ी के अभाव में प्रगट हुई वीतराग शुद्ध परिणति

छटवे सातवे गुण स्थान वर्ती मुनि महाराज -
द्रव्य लिंग - सकल संयम अर्थात् २८ मूल गुणों को पालन करने योग्य शुभ उपयोग रूप परिणति एवम् तत्निमित्तक सहचर रूप शारीरिक प्रवृत्ति
भाव लिंग - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान - इन तीन कषाय चौकड़ी के अभाव में प्रगट हुई वीतराग शुद्ध परिणति

द्रव्य लिंग के संबंध में एक मुख्य बात -

२८ मूल गुणों के बाह्य रूप में परिणमन होना - इसे ही द्रव्य लिंग माने तब मुनिराज भरत, मुनिराज बाहुबली, मुनिराज गजकुमार आदि अनेक मुनिराज आदि के द्रव्य लिंग का अभाव मानना पड़ेगा - अर्थात उन मुनिराजों के जिनके मुनि जीवन काल में भोजन या गमन या वचन आदि की क्रिया नहीं हुई और उसके बिना ही केवल ज्ञान (अरहन्त अवस्था) की प्राप्ति पूर्वक सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हुई ।

तो उनके द्रव्य लिंग था या नहीं था?
था और वह भी निर्दोष रूप से।

कैसे?
द्रव्य लिंग की व्याप्ति भी संज्वलन कषाय के तीव्र उदय में होने वाले शुभ उपयोग रूप परिणाम से ही होती है। (व्याप्ति जैसे पहले लगायी थी उसी प्रकार यहां पर भी लगेगी)
अर्थात उनके जो भी शुभ परिणाम और शारीरिक क्रियाएं होती हैं, वह २८ मूल गुण के अन्तर्गत ही होती है, उसके बाहर नहीं। उदा. वचन संबंधी विकल्प आने पर वह सत्य महाव्रत, भाषा समिति के अनुरूप ही होगा, गमन ईर्या समिति पूर्वक ही होगा, भोजन का विकल्प और तत्संबंधी शारीरिक क्रियाएं एषणा समिति के अनुरूप ही होंगे।

विशेष:
द्रव्य लिंग के साथ में भाव लिंग का होना अनिवार्य नहीं, परंतु भाव लिंग के साथ में द्रव्य लिंग का होना अनिवार्य है।

भाव लिंग के अभाव में २८ मूल गुणों का पालन करते हुए मुनिराज के अर्थात द्रव्य लिंग के साथ में उनको गुण स्थान १, ४ और ५ भी रह सकता है।

गुणस्थान विवेचन का निम्न विषय द्रव्यलिंग और भावलिंग के स्वरूप को समझने में सहकारी है -
(starting from page -116 to first paragraph of page 119]

7 Likes

A simple answer to this would be-
स्थूल परिणामों की पकड़ ही क्षदमस्थ जीवों को हो पाती है। १४ गुण स्थानों का विभाजन जीव के सूक्ष्म परिणामों को भी पकड़ता है जो कि कर्मो की विभिन्न परिणमन के नैमित्तिक रूप होते है। कर्मो का उदय आदि प्रत्यक्ष रूप से क्षदमस्थ के ज्ञान गोचर नहीं होता है, अनुमान से ही इनके कार्यं का ज्ञान हो सकता है।
साधक तो बुद्धि पूर्वक २८ मूल गुणों को धारण करके शुद्धोपयोग रूपी प्रचुर अतीन्द्रिय आनंद के लिए रत्नत्रय की साधना करने के लिए तत्पर होते है। पश्चात जितनी कषाय चौकड़ी का अभाव हुआ है, उस अनुरूप गुण स्थान में गमन होता है।

चूंकि समझने समझाने के व्यवहार हेतु कथनों में उपचार की मुख्यता रहती है, अतः करणानुयोग के कथनों से उनका मिलान करना चाहिए। उससे वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता।

Yes, the ideal case is this, but it is not the rule. चरणानुयोग के अनुसार एवम व्यवहार क्रिया में यही मुख्य है परंतु करणानुयोग में मोह और योग के निमित्त से जीव के अंतरंग परिणामों की तारतम्यता के अनुसार गुण स्थानों का स्वरूप है।
(अनुयोगों में परस्पर सामंजस्य किस रूप में होता है यह आप मोक्ष मार्ग प्रकाशक के अध्याय ८ में अवश्य पढ़े, बहुत कुछ समाधान होंगे)

It is not true.
गुणस्थानों से गमन - आगमन और प्रत्येक गुण स्थान का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट काल का विचार करें, आपको यह स्पष्ट हो जाएगा।
गोम्मटसार जीवकाण्ड के अभ्यास से गुण स्थानों का स्वरूप अच्छे से ख्याल में आएगा। गुण स्थान पर अनेक विद्वान और मूनिराजों द्वारा रचित सरल भाषा में पृथक ग्रंथ उपलब्ध है, वहां से अध्ययन करना चाहिए।

@AnumeyJain ji
Inside and outside से २८ मूल गुणों का पालन- इसके द्वारा आप क्या कहना चाहते है?

जो भी घटित करें, उसमें तीन काल वर्ती समस्त मुनिराजों की परिणति शामिल होनी चाहिए, गजकुमार मुनिराज, मुनिराज बाहुबली आदि सभी का द्रव्य लिंग किस रूप में घटित करेंगे? एवम यह भी विचार करें की उपवास करते हुए मुनिराज के, ध्यनास्थ अवस्था में स्थित मुनिराज के आदि आदि सभी मुनीराजों की विभिन्न परिणतियों में बहिरंग रूप में २८ मूल गुणों को किस रूप में देखेंगे? तथा इसके बाद यह बताए कि द्रव्य लिंग में आप क्या ग्रहण करेंगे।

6 Likes

I now understand that you are correct on this issue :+1: Pardon my ignorance on the same

2 Likes

This is the maximum counting. So, you can say, at any given point of time the maximum number of bhavlingi saints will be 8,99,99,997, not always.

Also, it includes all the saints from 6th गुणस्थान to 14th गुणस्थान.

5 Likes