Difference between Digamber and Shwetamber theology?

What is theological difference (I need from Dravyanuyog) between Digamber and Shwetamber?

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ch5 of Mokshamarg Prakashak explains the difference somewhat. Have a look

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Thanks.

Please refer this link -

https://www.quora.com/What-are-the-differences-between-Digambar-Jains-and-Shwetambar-Jains?ch=10&share=7c403a05&srid=23rcz

Nice and precise.

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श्वेताम्बर आम्नाय

केवली भगवान को निहार मल मूत्र होता है।
केवली को रोग होता है।
केवली कवलाहार भोजन करते हैं।
केवली केवली को नमस्कार करते हैं।
केवली के उपसर्ग होता है।
प्रतिमा को आभूषण पहनाते हैं।
तीर्थंकर पाठशाला में पढ़ते हैं।
तीर्थंकर की पहली देशना दिव्य ध्वनि खाली जाती है।
महावीर भगवान देव नंदा ब्राह्मणी के गर्भ में आए, इंद्र ने उनको देव नंदा के गर्भ से निकालकर माता त्रिशला देवी के गर्भ में पहुंचा दिया, वहां जन्म हुआ।
श्री आदिनाथ भगवान तथा उनकी स्त्री सुनंदा युगलिया थे।
श्री आदिनाथ भगवान और उनकी बहन सुनंदा ने आपस में ब्याह किया।
केवली को छींक आती है।
गौतम स्वामी खंदक ब्राह्मण मिथ्या सिद्धांत वादी से मिलने गए।
स्त्री के पंच महाव्रत होते हैं।
स्त्री को मोक्ष होता है।
स्त्री भी तीर्थंकर होती है, दीक्षा के समय इंद्र श्वेत साड़ी पहनने के लिए भेंट करता है। प्रतिमाएं आभूषण सहित होती हैं।
19 वे तीर्थंकर मल्लीबाई स्त्री थे।
जुगलिया की ऊंची काया को दबाकर छोटा किया गया और भरत क्षेत्र में लाया गया।
जुगलिया को भोग भूमि से भरत क्षेत्र में लाकर हरिवंश की स्थापना की गई।
जति के 14 उपकरण होते हैं।
मुनिसुव्रत नाथ भगवान के घोड़ा गणधर था।
मुनियों के लिए शिष्य आहार लाते हैं।
यति श्रावक के घर से आहार लाकर आश्रम में ही आहार करते हैं।
धर्म की निंदा करने वालों को मारने में पाप नहीं होता।
जुगलिया मरकर नरक में भी जा सकते हैं।
भरत जी ने अपनी ब्राह्मी बहन को अपने विवाह के लिए रखा।
दान तप शील सामायिक परिणामों से ही मोक्ष हो जाता है।
भरत महाराज को घर में ही केवल ज्ञान हो गया।
भगवान महावीर ने जन्म कल्याणक के समय मेरु पर्वत को हिला दिया था।
द्रोपदी पंच भर्तारी थी।
गुरु चेले के कंधे पर चढ़े हुए थे उसी समय चेले को केवल ज्ञान हो गया।
जय माली जाति का माली भगवान महावीर का जमाई था।
धातकी खंड में कपिल नाम के नारायण को केवल ज्ञान हो गया।
वसुदेव के 72000 स्त्री थी।
मुनि शूद्र के घर भी आहार लेते थे।
देव मनुष्यनी से भोग करते हैं।
सुलसा श्रावकनी के बेटा पैदा हुआ।
चक्रवर्ती के 60000 रानियां होती हैं।
त्रिपिष्ठ नारायण छिपा से उपजे।
बाहुबली का शरीर 525 धनुष नहीं था।
अनार्य देशों में भी भगवान महावीर का विहार हुआ।
चौथे काल में असंयमी की भी पूजा होती है।
देवों का एक कोस मध्य लोक के 4 कोस के बराबर होता है।
प्राण जाते हों तो प्रतिज्ञा भंग कर सकते हैं।
समवशरण में तीर्थंकर नग्न दिखाई नहीं देते।
उपवास के दिन औषध ले सकते हैं।
यति के हाथ में डंडा होता है।
मीरा देवी को हाथी पर चढ़ी हुई अवस्था में केवल ज्ञान हो गया है।
भाग लिंग और द्रव्य लिंग के बिना भी केवल ज्ञान हो सकता है।
चांडाल आदि भी मोक्ष जा सकते हैं।
सूर्य चंद्रमा विमान सहित भगवान महावीर के समवशरण में आए।
दूसरे स्वर्ग का इंद्र पहले स्वर्ग में आता है।
पहले स्वर्ग का जीव दूसरे स्वर्ग में चला जाता है।
बच्चे को जन्म देते समय जो मल बहता है, उसके सिवाय शरीर के नौ द्वारों के मल सुमल हैं।
युगलिया के मरने पर मृतक शरीर का दाह संस्कार किया जाता है।
केवली भगवान के शरीर का भी दाह संस्कार किया जाता है।
यति के काम विकारी मन को श्रावक अपनी स्त्री द्वारा भी स्थिर कर सकता है।
तीर्थंकरों के भी अट्ठारह दोष होते हैं।
तीर्थंकरों के शरीर से भी पांच स्थावर जीवों को बाधा होती है।
स्वर्ग 12 होते हैं।
व्यास जी ने 55000 वर्ष तक गंगा देवी से भोग किया।
भोग भूमियाँ 96000 होती हैं।
तीर्थंकरों की माता को 14 स्वप्न आते हैं।
चमड़े (मशक) में रखा पानी निर्दोष है।
बासी पुरानी घी और पकवान निर्दोष हैं।
भगवान महावीर ने अपने माता पिता स्वर्ग जाने के बाद दीक्षा ली।
बाहुबली ने मुराल रूप धारण किया।
अच्छा फल खाने में कोई दोष नहीं।
युगलिया के मल मूत्र होता है।
63 शलाका पुरुषों के मल मूत्र होता है।
इंद्र 64 होते हैं।
पराठों एपौ आहार निर्दोष है।
यादव वंशियों ने मांस खाया।
मनुष्य, मानुषोत्तर पर्वत से बाहर जाता है।
कामदेव 24 नहीं होते।
विदेह क्षेत्र 160 होते हैं।
देव भगवान के मृतक शरीर में दाढ़ दांत निकाल कर स्वर्ग में ले जाते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
भगवान मोक्ष जाते समय समवशरण में वस्त्र सहित होते हैं।
हाड़ की स्थापना करके पूजा कर सकते हैं।
नाभि राजा और मरु देवी जी जुगलिया थे।
नव ग्रैवेयक वाले अहम इंद्र, 9 अनुदिश, पंचोत्तरों में चले जाते हैं।
समुद्र के पास खारा उप समुद्र है।

नोट - श्वेताम्बर आम्नाय में ये 84 बातें अछेरा कहलाती हैं।

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@Sayyam . What does it mean ‘achhera’.

अछेरा - जिसे छेड़ा न जा सके। Unchanged and undisturbed rules.

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What is the source reference of the above text

Sir,

This is a collection from the book called Jain Darshan Ganit, which was compiled by Aa. Dharm Bhushan ji, Published by ABJYF, Meerut. Concerned topic is on pg 214-220.

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बारह वर्ष का अकाल पड़नेवाला है , यह बात सुनकर सम्पूर्ण प्रजा बहुत घबरा गई थी। इस समाचार को सुन सम्राट चन्द्रगुप्त को तो जैसे संसार से वैराग्य ही आ गया था। वह विचार करने लगे कि पहलें ही पंचमकाल के प्रभाव से बहुत सी अनिष्ट घटनाएं घट रही है , उस पर भी यह दुर्दिन आनेवाले है। ऐसे में यह मनुष्यभव तो व्यर्थ ही चला जायेगा। ऐसा विचारकर चन्द्रगुप्त ने मुनिदीक्षा लेने का संकल्प किया। जब वह श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के समक्ष दीक्षा ग्रहण करने हेतु आये तो आचार्य देव ने चन्द्रगुप्त को भगवती जिनदीक्षा प्रदान की। अब वह चन्द्रगुप्त राजा नही थे वरन् वह तो आत्माराधक श्रमण हो गए थे। अब तक वह काल था , जबतक सभी जैन मुनिराज निर्ग्रन्थ ही होते है अर्थात् बाह्य एवं अंतरंग सभी प्रकार के परिग्रहों से रहित होते थे। केवल पिच्छी एवं कमण्डलु , जीवदया हेतु यह ही उनका परिग्रह था।

             जब आचार्य के आदेशानुसार समस्त संघ प्रस्थान करने लगा तो वहां की समस्त प्रजा संघ के यह स्थान न छोड़कर जाने का निवेदन करने लगी , उनका यह निवेदन स्वाभाविक ही था क्योंकि निःस्वार्थ भाव से मोक्षमार्ग दिखलाने वाले सच्चे गुरू का वियोग कौन मुमुक्षु चाहेगा ? किंतु भद्रबाहु मुनिराज ने स्पष्ट रूप से रूकने के लिए मना कर किया क्योंकि दुर्भिक्ष स्थलों पर संयमी जीवों के संयम का निर्वाहन संदिग्ध ही होता है। जब आचार्य देव नही माने तो प्रजा संघ के ही अन्य कुछ साधुओं से रूकने की विनती करने लगी। संघ के आचार्य का आदेश न मानकर एवं गृहस्थों के लोभ में पड़कर स्थूलभद्र एवं रामल्य आदि कुछ मुनियों ने ऐसा अनर्थ कर डाला कि जैनधर्म दो भागों में बट गया -- दिगाम्बर एवं श्वेताम्बर। 

          थोड़े ही समय में आचार्य देव के कहे अनुसार अकाल का समय आरंभ हो गया। वह समय ऐसा आया की जैसे नरक ही यहाँ आ गया हो। ऐसे में धनी लोगों ने भरपूर दान देना शुरू कर दिया किंतु अकाल भी अपना असर दिखाए बिना कैसे रहता ? लोगों के भंडार शीघ्र ही खत्म होने लगे। यहाँ तक कि जब रामल्य आदि मुनि आहार के पश्चात् जाते तो भूखे लोग कहतें कि "देखो ! इसका पेट भरा हुआ है। इसका पेट फाड़ो और खाना निकालो।" काल की ऐसी दशा देखकर हैरानी हुए बिना नही रहती। बस यही से मुनिधर्म में शिथिलता प्रारंभ हो गयी। वह मुनि भूखों की भीड़ से बचने के लिए रात्रि में भोजन के लिए आने लगे। जो महामुनि दिन में प्रातः एकबार के सिवा आहार नही लेते , वह अब रात्रि में पात्रों में आहार लेने लगे थे। जो मुनि वनों में ही विचरण करते थे , वह अब शहरों में गृहस्थों के साथ रहने लगे। एकबार रात्रि में नग्न मुनि को आहारार्थ आये देखकर "कोई राक्षस है" - इस भय से सेठानी का गर्भपात हो गया। तब से प्रजाजनों के आग्रह से वह मुनि सफेद वस्त्रों को भी धारण करने लगे। आचार्य देव का आदेश न मानकर उन कुछेक मुनियों ने मुनिधर्म की परिभाषा ही बदल डाली। 

        श्रवणबेलगोला में अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने समाधिमरण लिया। अपने गुरू के मरणोपरांत कुछ काल बाद मुनि चन्द्रगुप्त भी वही समाधिस्थ हुए। आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् विशाखाचार्य संघ के आचार्य हुए। जब बारह वर्ष का काल बीत गया तब संघ ने उत्तरभारत की ओर प्रस्थान किया। नगर में ससंघ विशाखाचार्य आए है , ऐसा जानकर वह मुनि जो नगर में ही रुक गए थे , आचार्य के दर्शन हेतु आए। उन मुनिओं के ऐसे भ्रष्ट आचारण को देखकर विशाखाचार्य ने उन्हें सम्बोधन दिया। उपदेश के प्रभाव से वह मुनि अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। लेकिन कुछ युवा साधुओं ने पुनः वास्तविक स्वरूप में आने से मना कर दिया। उन्होंने अपना अलग मत चलाया। बस तभी से भगवान महावीर के शासन में भेद पड़ गया -- दिगाम्बर एवं श्वेताम्बर। दिगम्बरत्व ही जिस धर्म का असली स्वरूप था , वह इस सम्प्रदायों के भेद में बट गया। दिगाम्बर तो मुनिचर्या का वह असली स्वरूप है , जिन मुनिराजों के वस्त्र दिशाएँ ही है। वह तो राग-द्वेषादि अन्तरंग एवं धन-धान्य-वस्त्र-स्त्री आदि बाह्य परिग्रहों से रहित है। वहीं दूसरी ओर श्वेताम्बर वालों ने अपनी अलग चर्या एवं अलग सिद्धान्तों (जैसे श्वेताम्बर कालद्रव्य को नही मानते एवं उनके न्याय-विषयक शास्त्रों में भी अंतर है) का प्रवर्तन किया। उन कुछ मुनियों ने आचार्य देव का उपदेश न मानकर , ऐसा अनर्थ किया।

         उपरोक्त वर्णन का उद्देश्य मात्र इस ऐतिहासिक घटना के पीछे क्या कथा है ? यह जानना था , अन्य कुछ नही।

As indicated by Digambara variant of break, during the rule of Chandragupta Maurya , Bhadrabahu, a head of Jain people group, anticipated the awful starvation for a very long time and subsequently chose to relocate towards the south. Sthulbhadra, another Jain pioneer and his supporters anyway chose to remain in Magadha. Later on when starvation was all the while the priests from the two gatherings met at the Ujjayini. The Digambara priests noticed that one who remained in the Magadha began wearing a white fabric so as not to accept everybody while requesting aid (and consequently known as Shwetambar). Another change was gathering of Jain principles in the sanctioned works called Agmas by the adherents of Sthulibhadra. because of the starvation it was getting hard to protect the information on Jain precepts. forpc jiofilocalhtml.run

So the main differences are beliefs and practice only.

can someone explain it more ?... .