ध्रुव शुद्धात्म ही सार | dhruv suddhatma hi saar

ध्रुव शुद्धात्म ही सार, नित्य अविकार, सुगुण भंडारा।
प्रभु ज्ञायक रूप निहारा॥ टेक॥

जिस कारण कोई अन्य न हो, जो भी अन्य का कारण हो ।
है स्वयं सिद्ध निरपेक्ष समय का सारा ॥१॥

पर्यायार्थिक नय से अनेक रूप, द्रव्यार्थिक नय से एकरूप।
है निर्विकल्प चिदूप, नयों से पारा ॥२॥

परभावों से है सदा शून्य, है स्वयं-स्वयं में सहज पूर्ण।
लोकोत्तम मंगलरूप शरण सुखकारा ॥३॥

परमार्थरूप ध्रुव ध्येय अहो, खुद ज्ञाता ज्ञान सुज्ञेय अहो।
है वचनातीत, अचिन्त्य सु जाननहारा ॥४॥

धनि-धनि पाया है परमतत्त्व पहिचाना अपना सहजतत्त्व।
वांछा न रहीं, वर्ते आनन्द अपारा ॥५॥

निज प्रभु भाऊँ, निज प्रभु ध्याऊँ, अब स्वयं स्वयं में रम जाऊँ।
विलसे अनन्त प्रभुता, माहात्म्य है न्यारा ॥६॥