णमिऊण देवदेवं धरणिंदणरिंदइंदथुयचलणं।
णाणं जस्स अणंतं लोयालोयं पयासेइ ॥1॥
वुहजणमणोहिरामं जाइजरामरणदुक्खणासयरं।
इहपरलोयहिज (द) त्थं तं धम्मरसायणं वोच्छं ॥2॥
नत्वा देवदेवं धरणीन्द्रनरेन्द्रस्तुतचरणं।
ज्ञानं यस्यानन्तं लोकालोकं प्रकाशयति ॥1॥
बुधजनमनोभिरामं जातिजरामरणदुःखनाशकरम्।
इहपरलोकहितार्थं तं धर्मरसायनं वक्ष्ये ॥2॥
धरणेन्द्र, नरेन्द्र तथा इन्द्र के द्वारा जिनके चरणों की स्तुति की जाती है तथा जिनका अनन्त ज्ञान लोक और अलोक को प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है, उन देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा को नमस्कार करके मैं धर्म के उस रसायन (अमृत) का वर्णन करता हूँ जो विद्वज्जनों के हृदय को तृप्त करने वाला है; जन्म, जरा तथा मृत्यु के दुःखों का विनाशक है और इहलोक- परलोक के लिए हितकारी है।
धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स।
धम्मेण पूयणीओ होइ णरो सव्वलोयस्स ॥3॥
धर्मः त्रिलोकबन्धुः धर्मः शरणं भवेत् त्रिभुवनस्य।
धर्मेण पूजनीयः भवति नरः सर्वलोकस्य ॥3॥
धर्म तीनों लोकों अर्थात् तिर्यक्लोक, ऊर्ध्वलोक, एवम् अधोलोक का बन्धु (मित्र) है। तीनों लोकों का शरणस्थल धर्म ही है। धर्म से ही मनुष्य समस्त लोकों का पूजनीय होता है।
धम्मेण कुलं विउलं धम्मेण य दिव्वरूवमारोग्गं।
धम्मेण जए कित्ती धम्मेण होइ सोहग्गं ॥4॥
धर्मेण कुलं विपुलं धर्मेण च दिव्यरूपमारोग्यम्।
धर्मेण जगति कीर्तिः धर्मेण भवति सौभाग्यम् ॥4॥
धर्म से व्यक्ति को विशाल कुल प्राप्त होता है। धर्म से ही दिव्य रूप तथा उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त होता है। धर्म से ही व्यक्ति का संसार में यश फैलता है और धर्म से ही सौभाग्य प्राप्त होता है।
वरभवणजाणवाहणसयणासणयाणभोयणाणं च।
वरजुवइवत्थुभूसणं संपत्ती होइ धम्मेण ॥5॥
वरभवनयानवाहनशयनासनयानभोजनानां च।
वरयुवतिवस्त्रभूषणानां सम्प्राप्तिः भवति धर्मेण ॥5॥
श्रेष्ठ भवन, रथ आदि यान, अश्व आदि वाहन, शयन-आसन, भोजन, सुन्दरी युवती, वस्त्र एवम् आभूषण आदि की प्राप्ति भी धर्म से होती है।
तं णत्थि जं ण लब्भइ धम्मेण कएण तिहुयणे सयले।
जो पुण धम्मदरिद्दो सो पावइ सव्वदुक्खाइं ॥6॥
तन्नास्ति यन्न लभ्यते धर्मेण कृतेन त्रिभुवने सकले।
यः पुनः धर्मदरिद्रः स प्राप्नोति सर्वदुःखानि ॥6॥
समस्त त्रिलोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो धर्म (का आचरण) करने से प्राप्त न हो सकती हो। किन्तु जो धर्म से दरिद्र अर्थात् हीन है वह समस्त दुःखों को प्राप्त करता है।
जो धम्मं ण करंतो इच्छइ सुक्खाइं कोई णिब्बुद्धी।
सो पीलऊण सिकयं इच्छइ तिल्लं णरो मूढो ॥7॥
यो धर्ममकुर्वन् इच्छति सुखानि कश्चित् निर्बुद्धिः।
स पीलयित्वा सिकतामिच्छति तैलं नरो मूढः ॥7॥
जो कोई मूर्ख व्यक्ति धर्म कार्य किये बिना ही सुखप्राप्ति की इच्छा करता है वह मूढ मनुष्य बालू को पेरकर (निचोड़कर) तेल प्राप्त करना चाहता है।
सव्वो वि जणो धम्मं घोसइ ण य कोइ जाणइ अहम्मं।
धम्माधम्म विसेसं णाऊण णरेण घेतव्वं ॥8॥
सर्वोऽपिजनः धर्मं घोषयति न च कश्चिज्जानाति अधर्मम्।
धर्माधर्मविशेषं ज्ञात्वा नरेण गृहीतव्यम् ॥8॥
सभी लोग धर्म की घोषणा करते हैं अर्थात् धर्म की बात करते हैं, अधर्म को तो कोई जानता ही नहीं है। अतः धर्म और अधर्म के भेद को जानकर ही मनुष्य को धर्म का ग्रहण करना चाहिए।
खीराइं जहा लोए सरिसाइं हवंति वण्णणामेण।
रसभेएण य ताइं वि णाणागुणदोसजुत्ताइं ॥9॥
क्षीराणि यथा लोके सदृशानि भवन्ति वर्णनामभ्याम्।
रसभेदेन च तान्यपि नानागुणदोषयुक्तानि ॥9॥
जैसे संसार में पाये जाने वाले सभी प्रकार के दूध रंग अर्थात् सफेदी और नाम (की दृष्टि) से एक जैसे होते हैं। किन्तु यह तो स्वाद से ही ज्ञात होता है कि उनमें से कौन-सा दूध गुणयुक्त है तथा कौन-सा दोषयुक्त।
काइं वि खीराइं जए हवंति दुक्खावहाणि जीवाणं।
काइं वि तुट्ठिं पुट्ठिं करंति वरवण्णमारोग्गं ॥10॥
कान्यपि क्षीराणि जगति भवन्ति दुःखप्रदानि जीवानाम्।
कान्यपि तुष्टिं पुष्टिं कुर्वन्ति वरवर्णमारोग्यम् ॥10॥
संसार में पाया जाने वाला, कुछ प्राणियों का दूध जीवों को दुःख प्रदान करने वाला होता है। जबकि कुछ प्राणियों का दूध सन्तुष्टि, पोषण, सुन्दर रंग तथा उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने वाला होता है।
धम्मा य तहा लोए अणेयभेया हवंति णायव्वा।
णामेण समा सव्वे गुणेण पुण उत्तमा केई ॥11॥
धर्माश्च तथा लोके अनेकभेदा भवन्ति ज्ञातव्या।
नाम्ना समा सर्वे गुणेन पुनरुत्तमाः केचित् ॥11॥
उसी प्रकार संसार में अनेक प्रकार के धर्म हैं, जो जानने योग्य हैं। यद्यपि नाम से तो वे सभी समान हैं किन्तु गुणों की दृष्टि से, उनमें से कुछ ही धर्म उत्तम हैं।
पावंति केइ दुक्खं णारयतिरियकुमाणुस्सजोणीसु।
पावंति पुणो दुक्खं केई पुणु हीणदेवत्तं ॥12॥
प्राप्नुवन्ति केचिद्दु:खं नारकतिर्यक्कुमानुषयोनिषु।
प्राप्नुवन्ति पुनर्दुःखं केचित् पुनः हीनदेवत्वे ॥12॥
कुछ प्राणी नरक में, पशु-पक्षी की योनि में तथा कुत्सित मनुष्ययोनि में दुःख भोगते हैं और कुछ देवत्व से हीन होने पर दुःख प्राप्त करते हैं।
पावंति केइ धम्मादो माणुससोक्खाइं देवसोक्खाइं।
अव्वावाहमणोवमअणंतसोक्खं च पावंति ॥13॥
प्राप्नुवन्ति केचिद्धर्मतः मानुषसौख्यानि देवसौख्यानि।
अव्याबाधमनुपमानन्तसौख्यं च प्राप्नुवन्ति ॥13॥
कुछ लोग धर्म के द्वारा मानव-सुखों तथा देव-सुखों को प्राप्त करते हैं तथा अव्याबाध, अनुपम और अनन्त सुखों को भोगते हैं।
तम्हा हु सव्वधम्मा परिक्खयव्वा णरेण कुसलेण।
सो धम्मो गहियव्वो जो दोसेहिं विवज्जिओ विमलो ॥14॥
तस्माद्धि सर्वधर्माः परीक्षितव्या नरेण कुशलेन।
स धर्मो गृहीतव्यो यो दोषैर्विवर्जितो विमलः ॥14॥
इसलिए कुशल मनुष्य को सभी धर्मों की परीक्षा करनी चाहिए और उसी धर्म का ग्रहण करना चाहिए जो दोषों से रहित अर्थात् निर्मल हो।
जत्थ वहो जीवाणं भासिज्जइ जत्थ अलियवयणं च।
जत्थ परदव्वहरणं सेविज्जइ जत्थ परयाणं ॥15॥
बहुआरंभपरिग्गहगहणं संतोस वज्जिअं जत्थ।
पंचुंबरमहुमांसं भक्खिज्जइ जत्थ धम्मम्मि ॥16॥
डंभिज्जइ जत्थ जणो पिज्जइ मज्ज च जत्थ बहुदोसं।
इच्छंति सो वि धम्मो केइ य अण्णाणिणो पुरिसा ॥17॥
यत्र वधो जीवानां भाष्यते यत्रालीकवचनं च।
यत्र परद्रव्यहरणं सेव्यते यत्र पराङ्गना ॥15॥
बह्वारम्भपरिग्रहग्रहणं सन्तोष वर्जितं यत्र।
पञ्चोदुम्बरमधुमांसानि भक्ष्यन्ते यत्र धर्मे ॥16॥
दम्भ्यते यत्र जनः पीयते मद्यं च यत्र बहुदोषम्।
इच्छन्ति तमपि धर्मं केचिच्च अज्ञानिनः पुरुषाः ॥17॥
जहाँ जीवों का वध होता है; जहाँ असत्य वचन बोला जाता है; जहाँ पराये धन का हरण होता है और जहाँ परायी स्त्री का सेवन किया जाता है; जहाँ धर्म में अनेक प्रकार के आरम्भ हैं अर्थात् हिंसक योजनाएँ बनायी जाती हैं, परिग्रह का सञ्चय किया जाता है; जहाँ सन्तोष वर्जित है और गूलर आदि पाँच प्रकार के फल, मधु एवं मांस का भक्षण किया जाता है; जिस धर्म में लोगों को धोखा दिया जाता है और जिसमें बहुत-से दोषों वाली मदिरा पी जाती है- ऐसे (तथाकथित) धर्म को भी कुछ अज्ञानी पुरुष चाहते हैं।
जइ एरिसो वि धम्मो तो पुण सो केरिसो हवे पावो।
जइ एरिसेण सग्गो तो णरयं गम्मए केण ॥18॥
यद्येतादृशोऽपि धर्मस्तर्हि पुनः तत्कीदृशं भवेत्पापम्।
यद्येतादृशेन स्वर्गः तर्हि नरके गम्यते केन ॥18॥
यदि धर्म ऐसा भी होता है तो फिर पाप कैसा होता है ? यदि इस प्रकार के धर्म से स्वर्ग प्राप्त होता है तो नरक किस प्रकार के धर्म से प्राप्त होता है ?
जो एरिसियं धम्मं किज्जइ इच्छेइ सोक्खं भुंजेउं।
वावित्ता णिंबतरुं सो इच्छइ अंबफल्लाइं ॥19॥
य एतादृशं धर्मं करोति इच्छति सौख्यम् भोक्तुम्।
उप्त्वा निम्बतरुं स इच्छति आम्रफलानि ॥19॥
जो मनुष्य इस प्रकार के (तथाकथित) धर्म को करता है तथा सुख भोगना चाहता है, वह नीमवृक्ष का बीज बोकर आम के फल खाना चाहता है।
धम्मोत्ति मण्णमाणो करेइ जो एरिसं महापावं।
सो उप्पज्जइ णरए अणेयदुक्खावहे भीमे ॥20॥
धर्म इति मन्यमानः करोति यः एतादृशं महापापम्।
स उत्पद्यते नरके अनेकदुःखपथे भीमे ॥20॥
‘यही धर्म है’ ऐसा मानकर जो पूर्वोक्त प्रकार का महापाप करता है, वह भयानक तथा अनेक दुःखों के मार्ग नरक में उत्पन्न होता है।
तत्थुप्पण्णं संतं सहसा तं पक्खिऊण णेरइया।
सरिऊण पुव्ववइरं धावंति समंतदो भीमा ॥21॥
तत्रोत्पन्नं सन्तं सहसा तं प्रेक्ष्य नारकाः।
स्मृत्वा पूर्ववैरं धावन्ति समन्ततो भीमाः ॥21॥
उस (पापी) को वहाँ उत्पन्न हुआ देखकर भयानक नरकवासी (उससे सम्बन्धित) पूर्वकालीन वैर का स्मरण करके सभी ओर से उस पर टूट पड़ते हैं।
असिफरसुमोग्गरसत्तितिसूलेहिं सेल्लकोंतेहिं।
कोहेण पज्जलंता पहरंति सरीरयं तस्स ॥22॥
असिपरशुमुद्गरशक्तित्रिशूलैः शेल्लकुन्तैः।
क्रोधेन प्रज्वलन्तः प्रहरन्ति शरीरकं तस्य ॥22॥
क्रोधाग्नि में जलते हुए वे (नरकवासी) तलवार, फरसा, गदा, शक्ति (एक प्रकार का अस्त्र), त्रिशूल तथा तीक्ष्ण भालों से उसके शरीर पर प्रहार करते हैं।
गद्दापहारविद्धो मुच्छं गंतूण महियले पट्टइ।
अइकंटएहिं तत्थ विभिज्जइ तिक्खेहिं सव्वंगं ॥23॥
गदाप्रहारविद्धः मूर्च्छां गत्वा महीतले पतति।
अतिकण्टकैः तत्र विभिद्यते तीक्ष्णैः सर्वाङ्गम ॥23॥
गदा के प्रहार से घायल वह (पापी) मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ता है और वहाँ स्थित पैने तथा अत्यधिक काँटों से उसका अंग-अंग बिंध जाता है।
लद्धूण चेयणाए पुणरवि चिंतेइ किं इमे सव्वे।
पहरंति मज्झ देहं जंपंता कडुयवयणाइं ॥24॥
लब्ध्वा चेतनां पुनरपि चिन्तयति किं इमे सर्वे।
प्रहरन्ति मम देहं जल्पन्तः कटुकवचनानि ॥24॥
पुनः होश में आने पर वह विचार करता है कि ये सभी (नरकवासी) कटु वचन बोलते हुए, मेरे शरीर पर प्रहार क्यों कर रहे हैं ?
देवयपियरणिमित्तं मंतोसहिजागभयणिमित्तेण।
जं मारिया वराया अणेयजीवा मए आसि ॥25॥
जंपरिमाणविरहिया परिग्गहा गिण्हिया मए आसि।
जं खाधं महुमंसं पंचुंबर जिव्हलुद्धेण ॥26॥
जं भासियं असच्चं तेणिक्कजं मए कयं आसि।
जं तिलमेत्तसुहत्थं परदारं सेवियं आसि ॥27॥
जं पीयं सुरयाणं जं च जणो डंभियो मए सव्वो।
तस्स हु पावस्स फलं जं जायं एरिसं दुक्खं ॥28॥
देवतापितृनिमित्तं मन्त्रौषधियागभयनिमित्तेन।
ये मारिता वराका अनेकजीवा मया आसन् ॥25॥
यत्परिमाणविरहिताः परिग्रहाः गृहीता मया आसन्।
यत् खादितं मधुमांसं पञ्चोदुम्बराणि जिह्वालुब्धेन ॥26॥
यद् भाषितं असत्यं स्तेनकृत्यं मया कृतं आसीत्।
यत्तिलमात्रसुखार्थं परदाराः सेविता आसन् ॥27॥
यत्पीता सुरा यश्च जनो दम्भितो मया सर्वः।
तस्य हि पापस्य फलं यज्जातं एतादृशं दुःखम् ॥28॥
(तब विभंगज्ञान से वह जानता है- ) मन्त्र, औषधि, यज्ञ _____ तथा भय के कारण देव और पितरों के निमित्त से जो मैंने अनेक जीव मारे थे; परिग्रह की मर्यादा न करके जो अतुल सम्पत्ति सञ्चित की थी तथा जीभ के लोभवश मैंने जो मधु, मांस तथा पाँच प्रकार के गूलर आदि उदुम्बर फलों का भक्षण किया था; जो असत्य बोला था, चोरी के कार्य किये थे तथा तिलभर (तुच्छ) सुख के लिए परायी स्त्रियों का सेवन किया था; जो मदिरापान किया था तथा सभी लोगों को धोखा दिया था; उसी पाप का फल है- जो मुझे इस प्रकार का (असहनीय) दुःख मिला है।
णाऊण एव सव्वं पुव्वभवे जं कयं महापावं।
अइतिव्ववेयणाओ असहंतो णासए सिग्घं ॥29॥
ज्ञात्वैवं सर्वं पूर्वभवे यत्कृतं महापापम्।
अतितीव्रवेदनां असहमानः नश्यति शीघ्रम् ॥29॥
इस प्रकार पूर्वजन्म में जो महापाप किया था उसके बारे में सब कुछ जानकर तथा अत्यन्त तीव्र वेदना को सहने में असमर्थ होकर वह शीघ्र भागने लगता है।
सो एवं णासंतो णरइयभयेण असरणो संतो।
पइसइ असिपत्तवणे अणेयदुक्खावहे भीमे ॥30॥
स एवं नश्यन् नारकभयेन अशरणः सन्।
प्रविशति असिपत्रवने अनेकदुःखपथे भीमे ॥30॥
इस तरह नारकीय भय से भागता हुआ वह असहाय होकर भयानक तथा अनेक दुःखों के मार्ग- असिपत्रवन अर्थात् एक प्रकार के नरक जहाँ वृक्षों के पत्ते तलवार की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं, में प्रवेश करता है।
तत्थ वि पडंति उवरिं फलाइं जट्टाइं असहणिज्जाइं।
लग्गंति जत्थ गत्ते सइ चुण्णं तत्थ कुव्वंति ॥31॥
तत्रापि पतन्ति उपरि फलानि जटानि असहनीयानि।
लगंति यत्र गात्रे सकृच्चूर्णं तत्र कुर्वन्ति ॥31॥
वहाँ उस असिपत्रवन में भी उसके ऊपर असहनीय फल तथा जटायें गिरती हैं जो उसके शरीर पर लगती हैं तथा तुरन्त उसका चूर्ण बना देती हैं।
पत्ताइं पडंति तहा खंडयधारव्व सुट्ठु तिक्खाइं।
ताइं वि छिंदंति पुणो अंगोवंगाइं सव्वाइं ॥32॥
पत्राणि पतन्ति तथा खड्गधारावत् सुष्ठुतीक्ष्णानि।
तान्यति छिन्दन्ति पुनः अङ्गोपाङ्गानि सर्वाणि ॥32॥
उसी प्रकार वहाँ तलवार के समान अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाले पत्ते गिरते हैं। वे भी उसके समस्त अंग-प्रत्यंगों को छेद डालते हैं।
णीसरिउं सो तत्थ वि असहंतो एरिसाइं दुक्खाइं।
वेएण धावमाणो पव्वयसिहरं समारुहइ ॥33॥
निःसृत्य स ततोऽपि असहमान एतादृशानि दुःखानि।
वेगेन धावन् पर्वतशिखरं समारोहति ॥33॥
इस प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ होकर वह वहाँ (असिपत्रवन) से भी निकलकर तेजी से दौड़ता हुआ पर्वतशिखर पर चढ़ जाता है।
तत्थ वि पव्वयसिहरे णाणाविहसावया परमभीमा।
तिक्खणहकुडिलदाढा खादंति सरीरयं तस्स ॥34॥
तत्रापि पर्वतशिखरे नानाविधशावकाः परमभीमाः।
तीक्ष्णनखकुटिलदाढाः खादन्ति शरीरं तस्य ॥34॥
वहाँ पर्वतशिखर पर भी अत्यन्त भयानक तथा पैने नाखून और दाढ़ वाले तरह-तरह के वन्यपशु (शावक) उसके शरीर को खा डालते हैं।
तेसिं भएण पुणो धावंतो उत्तरेइ भूमीए।
गच्छइ वेयरणीए तिण्हाए पीडिओ संतो ॥35॥
तेषां भयेन पुनः धावन् उत्तरति भूमौ।
गच्छति वैतरण्यां तृष्णया पीडितः सन् ॥35॥
उन वन्यपशुओं के भय से पुनः दौड़ता हुआ वह (पर्वतशिखर से) भूमि पर उतरता है और प्यास से व्याकुल होकर वैतरणी नदी में जाता है।
सुक्को विजिज्झकंठो तत्थ जलं गेण्हिऊण पिबमाणो।
उण्हेण तेण डज्झइ हत्थम्मि मुहम्मि ओठम्मि ॥36॥
शुष्कः विध्यकण्ठः तत्र जलं गृहीत्वा पिबन्।
उष्णेन तेन दह्यते हस्तयोः मुखे ओष्ठे ॥36॥
सूखे तथा बिंधे (घायल या चटकते) हुए गले वाला वह ज्यों ही जल को ग्रहण करके पीने लगता है, त्यों ही वैतरणी के उस गर्म जल से उसके हाथ, मुख और ओष्ठ जलने लगते हैं।
भुक्खाए संतत्तो अलहंतो किंचि अण्णमाहारं।
वेयरणीए कूले गिण्हिव्वा मट्टियं खाइ ॥37॥
बुभुक्षया संतप्तः अलभमानः किञ्चिदन्नमाहारम्।
वैतरण्याः कूले गृहीत्वा मृत्तिकां खादति ॥37॥
कोई भी खाद्य आहार न मिलने पर वह (पापी) भूख से संतप्त होकर वैतरणी के तट पर बैठकर मिट्टी खाने लगता है।
ताए पुणो वि डज्झइ लोहंगारेहिं पज्जलंताए।
घोराए कडुपाइअपूइयमयसाणगंधाए ॥38॥
तया पुनरपि दह्यते लोहाङ्गारैः प्रज्वलन्त्या।
घोरया कटुकपूतिमयश्वगन्धया ॥38॥
जिससे सड़े (मवाद पड़े) हुए कुत्ते जैसी घोर दुर्गन्ध आ रही है तथा लपटें उठ रही हैं ऐसी वैतरणी की मिट्टी भी लाल-लाल अंगारों से उसे जलाने लगती है।
सो एवं अच्छंतो णइकूले पिच्छिऊण णारइया।
कडुयाइं जंपमाणा पुणरवि धावंति पाविट्ठा ॥39॥
तमेवं तिष्ठन्तं नदीकूले दृष्ट्वा नारकाः।
कटुकानि जल्पन्तः पुनरपि धावन्ति पापिष्ठाः ॥39॥
उसे वैतरणी नदी के किनारे इस प्रकार बैठा हुआ देखकर अत्यन्त पापी नरकवासी कटुवचन बोलते हुए पुनः उसके पीछे भागते हैं।
वेएण वहंताए पतत्ततेलव्व पज्जलंताए।
वेयरणीए मज्झे चप्पंति अणप्पवसिया हु ॥40॥
वेगेन वहन्त्याः प्रतप्ततैलवत् प्रज्वलन्त्याः।
वैतरण्या मध्ये प्रविशन्ति अनात्मवशिका हि ॥40॥
अपने वश में न होने अर्थात् विवश होने से वे वेग से बहती हुई तथा खौलते हुए तेल की भाँति जलती हुई वैतरणी के मध्य प्रवेश करते हैं।
तत्थ वि पावइ दुक्खं डज्झंतो पज्जलंतसलिलेण।
छोडीजंतसरीरो तिक्खाहिँ सिलाहिँ घोराहिँ ॥41॥
तत्रापि प्राप्नोति दुःखं दहन् प्रज्वलितसलिलेन।
स्पृष्टशरीरः तीक्ष्णाभिः शिलाभिः घोराभिः ॥41॥
वहाँ भी अत्यन्त तीक्ष्ण शिलाएँ उसके शरीर का स्पर्श करती हैं तथा खौलते हुए जल से जलता हुआ वह (पापी) दुःख प्राप्त करता है।
सो एवं बुड्डंतो कह वि किलेसेहि तत्थ णीसरए।
णीसरिओ वि हु संतो धरंति बंधंति णेरइया ॥42॥
स एवं ब्रुडन् कथमपि क्लेशैः ततो निःसरति।
निःसृतमपि हि सन्तं धरन्ति बध्नन्ति नारकाः ॥42॥
इस प्रकार डूबता हुआ वह वहाँ से अर्थात् वैतरणी के जल से किसी तरह बाहर निकलता है। किन्तु उसे बचकर निकलता हुआ देखकर नरकवासी पुनः पकड़कर बाँध लेते हैं।
जस्स रडंतस्स पुणो उण्हाए णिक्खंति सिगदाए।
उद्धरिऊण सदेहं णासइ तं दुक्खमसहंतो ॥43॥
तं रुदन्तं पुनः उष्णायां निखनन्ति सिकतायाम्।
उत्थाय स्वदेहं नाशयति तं दुःखमसहमानः ॥43॥
फिर रोते हुए उस (पापी) को वे नरकवासी गर्म रेत (बालू) में गाड़ देते हैं। जहाँ दुःख को सहन न कर पाता हुआ वह अपने शरीर को रेत में से निकालकर भागता है।
पुणरवि धरंति भीमा णेरइया तस्स पावयम्मस्स।
मस्सउभछियं करंति हु छुहंति तह खारयंकम्मि ॥44॥
पुनरपि धरन्ति भीमा नारकास्तं पापकर्माणम्।
मांसमुद्भेदं कुर्वन्ति हि स्पृशन्ति क्षारकर्दमेन ॥44॥
किन्तु भयानक नारकी उस पापी को पुनः दबोच लेते हैं। वे उसका मांस निकालते हैं और उस पर क्षारयुक्त कीचड़ लगाते हैं (इस प्रकार उसे क्षोभित करते हैं)।
णीसरिऊण वराओ णासंतो खारयंकमड्ढओ।
पुव्वुत्तकमेण पुणो धरंति ते तस्स णारइया ॥45॥
निःसृत्य वराकः नश्यन् क्षारकर्दमात्।
पूर्वोक्तक्रमेण पुनः धरन्ति ते तं नारकाः ॥45॥
खारे कीचड़ से निकलकर वह बेचारा वहाँ से किसी प्रकार बच निकलकर पुनः भागता है। लेकिन वे नारकी उसे फिर दबोच लेते हैं।
मरणभयभीरुयाणं जीवाणं जो हु जीवियं हरइ।
णरयम्मि पावयम्मो पावइ तह बहुविहं दुक्खं ॥46॥
मरणभयभीरूणां जीवानां यो हि जीवितं हरति।
नरके पापकर्मा प्राप्नोति तथा बहुविधंदुःखम् ॥46॥
जो मृत्यु से भयभीत प्राणियों के प्राणों का हरण करता है वह पापपूर्ण कर्म करने वाला नरक में इसी प्रकार बहुविध दुःख प्राप्त करता है।
पीलंति जहा इक्खू जंते छुहिऊण तस्स अवसस्स।
कुव्वंति चुण्णचुण्णं सव्वसरीरं मुसंढीहिं ॥47॥
पेलयन्ति यथा इक्षून् यन्त्रे निधाय तमवशम्।
कुर्वन्ति चूर्णचूर्णं सर्वशरीरं मुशलैः ॥47॥
वे नारकी उस परवश (पापी) को उठाकर ईख की तरह कोल्हू (यन्त्र) में पेरते हैं। उसके सम्पूर्ण शरीर को वे मूसलों से कूट-कूटकर चूर्ण-चूर्ण कर देते हैं।
चक्केहिं करकचेहिं य अंगं फाडंति रोवमाणस्स।
सिंचंति पापयम्मा पुणरवि खारेण सलिलेण ॥48॥
चक्रैः क्रकचैश्च अङ्गं विदारयन्ति रुदतः।
सिञ्चन्ति पापकर्माणः पुनरपि क्षारेण सलिलेन ॥48॥
वे नारकी चक्र अर्थात् एक तीक्ष्ण गोल अस्त्र और आरों से, रोते हुए उस पापी के शरीर को फाड़ डालते हैं और फिर क्षारयुक्त जल से वे उस पापी को नहलाते हैं।
चंपंति सव्वदेहं तिक्खसलाएहिं अग्गिवण्णाहिं।
णहसंधिपएसेसु य भिंदंति जलंति सूईहिं ॥49॥
छिन्दन्ति सर्वदेहं तीक्ष्णशलाकाभिः अग्निवर्णाभिः।
नखसन्धिप्रदेशेषु च भिन्दन्ति ज्वलन्तीभिः सूचीभिः ॥49॥
वे आग के समान लाल तीक्ष्ण शलाकाओं (कीलों) से उसके समस्त शरीर को छेद डालते हैं और नाखूनों के सन्धिस्थलों पर जलती हुई सुइयाँ चुभाते (घुसाते) हैं।
पाडित्ता भूमीए पाएहि मलंति पावयम्मस्स।
सिंघाडयाण उवरिं अंगे वेएण लोदंति ॥50॥
पातयित्वा भूमौ पादैः मलन्ति पापकर्माणम्।
सिंघाटकानामुपरि अङ्गे वेगेन दोलयन्ति ॥50॥
उस पापकर्मा को भूमि पर गिराकर वे उसे पैरों से कुचलते हैं तथा उसके शरीर को सिंघाटक अर्थात् लोहे के यन्त्रविशेष के ऊपर रखकर तेजी से इधर-उधर रौंदते हैं।
अलियस्स फलेण पुणो गीवाए चंपिऊण पाएहिं।
तस्स य खणंति जीहा समूला हु णारइया ॥51॥
अलीकस्य फलेन पुनः ग्रीवां चम्पयित्वा पादैः।
तस्य च खनन्ति जिह्वां समूलां हि नारकाः ॥51॥
असत्यभाषण के फलस्वरूप फिर उसकी ग्रीवा को पैरों से दबाकर नरकवासी उसकी जीभ को समूल (जड़सहित) उखाड़ते हैं।
खंडंति दो वि हत्था तेणिक्कफलेण तिक्खवंसीए।
सूलम्मि छुहंति पुणो णारइया सुट्ठु तिक्खेहिं ॥52॥
खण्डयन्ति द्वावपि हस्तौ तेजितफलेन तीक्ष्णवंश्या।
शूलैः स्पर्शयन्ति पुनः नारकाः सुष्ठु तीक्ष्णैः ॥52॥
वे नरकवासी उसके दोनों हाथों को धातु के फलक के पैने सिरे से काट डालते हैं और फिर (उस पापी के शरीर में) जोर से पैना शूल (बर्छी या भाला) चुभाते हैं।
परदारस्स फलेण य आलिंगावंति लोहपडिमाओ।
ताओ डहंति अंगं तत्ताओ अग्गिवण्णाओ ॥53॥
परदाराणां फलेन च आलिङ्गयन्ति लोहप्रतिमाः।
ताः दहन्ति अङ्गं तप्ताः अग्निवर्णाः ॥53॥
वे नारकी, उस पापी की परस्त्री के सेवन की अभिलाषा के फलस्वरूप, उसका आग से तपी हुई (अतः) लाल लौह-प्रतिमाओं से आलिंगन करवाते हैं, जो प्रतिमाएँ उसके शरीर को जला डालती हैं।
तत्ताइं भूषणाइं चित्ते परिहावंति अग्गिवण्णाइं।
ताइ वि डहंति अंगं परमहिलाहिलासेण फलेण ॥54॥
तप्तानि भूषणानि चित्ते परिधारयन्ति अग्निवर्णानि।
तान्यति दहन्ति अंङ्गं परमहिलाभिलाषेण फलेन ॥54॥
परस्त्रियों की अभिलाषा के फल के रूप में ,वे नारकी उस पापी के वक्ष पर तपे हुए (अतः) आग की तरह लाल आभूषण धारण कराते हैं। वे आभूषण भी उसके शरीर को जलाते हैं।
तस्स चडावंति पुणो णारइया कूडसम्मलीयाओ।
तत्थ वि पावइ दुक्खं फाडिज्जंतम्मि देहम्मि ॥55॥
तम् आरोहयन्ति पुनः नारकाः कूटशाल्मलीषु।
तत्रापि प्राप्नोति दुःखं विदारिते देहे ॥55॥
पुनःवे नारकी उस पापी को तीक्ष्ण काँटों वाले कूटशाल्मली वृक्ष पर चढ़ाते हैं। वहाँ भी वह देह के विदीर्ण होने पर दुःख प्राप्त करता है।