धन्य धन्य जिनरूप अहो | Dhanya dhanya jinrup aaho

(तर्ज : चाह जगी …)

धन्य धन्य जिनरूप अहो, धन्य धन्य चिद्रूप प्रभो।
मोहजयी इन्द्रियविजयी, कर्मजयी निर्मुक्तप्रभो । टेक।।

युगपद् लोकालोक अनन्त, तीनकाल जिनवर झलकंत ।
निर्मल गुण अनंत शोभन्त, आत्मीक सुख वीर्य अनंत ।।
दर्शन ज्ञान अनंत विभो, हो वन्दन निष्काम प्रभो ।।1।।

नहीं फरस रस गन्ध अरू वर्ण, स्वाभाविक छवि हो न विवर्ण ।
धर्ममूर्ति अविकार प्रभो, आप समान सहजपद ध्याय ।।
भविजन कर्म कलंक नशाय, होवें आप समान प्रभो ।।2।।

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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