धनि ते साधु रहत वनमाहीं ।
शत्रु-मित्र सुख-दुःख सम जानैं, दिरसन देखत पाप पलाहीं ।। टेक ।।
अट्ठाईस मूलगुण धारै, मन वच काय चपलता नाहीं ।
ग्रीषम शैल शिखा हिम तटिनी, पावस बरखा अधिक सहाहीं ।।१।।
क्रोध मान छल लोभ न जानैं, राग-दोष नाहीं उनपाहीं ।
अमल अखंडित चिद्गुण मंडित, ब्रह्मज्ञान में लीन रहाहीं ।।२।।
तेई साधु लहैं केवल पद, आठ काठ दह शिवपुरी जाहीं ।
‘द्यानत’ भवि तिनके गुण गावैं, पावैं शिवसुख दुःख नसाहीं ।।३।।
Artist- पं. द्यानतराय जी