(तर्ज : संत साधु बन के विचरूँ वह घड़ी… )
देखने के योग्य जग में, अहो! निज परमात्मा।
समझने के योग्य जग में, एक निज शुद्धात्मा ॥ टेक॥
श्रवण करने योग्य थिर हो, एक निज शुद्धात्मा।
पूछने के योग्य गुरुओं से, अहो शुद्धात्मा॥ 4॥
आस्वादने के योग्य जग में, एक निज शुद्धात्मा।
विश्वास करने योग्य जग में, एक निज शुद्धात्मा॥ 2॥
श्रद्धेय श्रद्धा का परम है, एक निज शुद्धात्मा।
ध्यान का भी ध्येय, शाश्वत एक निज शुद्धात्मा॥ 3॥
नहीं जाना आपको अब तक, सहज शुद्धात्मा।
इसलिए भ्रमता रहा, होता दुःखी बहिरात्मा॥ 4॥
देहादि से अति भिन्न भवि, समझो स्वयं को आत्मा।
सम्यक्त्व प्रगटे सहज ही, हो जाओ अन्तरात्मा॥ 5॥
भाओ सहज आनंद से, क्षण-क्षण अहो शुद्धात्मा।
निश्चित हो एकाग्र हो, हो जाओगे परमात्मा॥ 6॥
अवसर मिला है भाग्य से, कर लो सफल पुरुषार्थ से ।
मोह-रागादिक तजो, निर्मुक्त हो सिद्ध आत्मा॥ 7॥
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण