दशधर्म द्वादशी
अहो दशलक्षण धर्म महान, अहो दशलक्षण धर्म महान ।
धर्म नहीं दशरूप एक, वीतराग - भावमय जान ।
सम्यग्दर्शन सहित परम आनन्दमय उत्तम मान ॥ टेक॥
तत्त्वदृष्टि से देखें जग में इष्ट-अनिष्ट न कोई,
सुख-दुख-दाता-मित्र-शत्रु की व्यर्थ कल्पना खोई ।
स्वयं-स्वयं में सहज प्रगट हो क्षमाभाव अम्लान ॥ अहो…॥
जो दीखे सब ही क्षणभंगुर किसका मान करे,
पल में छोड़ हमें चल देता अपना जिसे कहे।
ज्ञानमात्र आतम- अनुभवमय प्रगटे मार्दव आन ॥ अहो… ॥
कौन किसे ठगता इस जग में अरे स्वयं ठग जाय,
पर्ययमूढ़ हुआ मूरख विषयों में काल गँवाय ।
भेदज्ञान कर अंतरंग में हो आर्जव सुखखान
॥ अहो…॥
अशुचिरूप मिथ्यात्व कषायें तज, विवेक उर लावें,
व्यसन, पाप, अन्याय, अभक्ष को त्याग पात्रता पावें ।
परमशुद्ध आतम-अनुभव ही शौचधर्म पहिचान ॥ अहो…॥
गर्हित निंद्य और हिंसामय भाव वचन परिहार,
परम सत्य ध्रुव ज्ञायक जानो अभूतार्थ व्यवहार ।
ज्ञायकमय अनुभूति लीनता सत्यधर्म अभिराम ॥ अहो…॥
अहो अतीन्द्रिय शुद्धातम सुख ज्ञान अतीन्द्रिय जान,
इन्द्रिय विषय - कषायें जीतो हो हिंसा की हानि ।
आत्मलीनतामय संयम से ही पावें शिवधाम ||
अहो दशलक्षण धर्म महान, अहो दशलक्षण धर्म महान ॥
अनशनादि बहिरंग प्रायश्चित आदि अंतरंग जान,
निजस्वरूप में विश्रान्ति इच्छानिरोध तप मान ।
तप अग्नि प्रज्वलित होय तब जले कर्म दुःखखान ॥ अहो…॥
सर्प काँचली मात्र तजे से ज्यों निर्विष नहीं होय ।
केवल बाह्य-त्याग से त्यों ही सुख शान्ति नहीं होय ॥
मिथ्या राग-द्वेष को त्यागें शुद्धभावमय दान ॥ अहो… .ll
नहिं परमाणु मात्र भी अपना, सम्यक् श्रद्धा लावें,
मूर्च्छा भाव परिग्रह दुःखमय तज शाश्वत सुख पावें ।
स्वयं-स्वयं में पूर्ण अनुभवन आकिंचन अम्लान ॥अहो…॥
ब्रह्मस्वरूप सहज आनन्दमय अकृत्रिम भगवान,
दूर रहे जहँ पुण्य - पापमय भाव कुशीली म्लान ।
ब्रह्मभावमय मंगलचर्या ब्रह्मचर्य सुखखान ॥ अहो…॥
धर्मी शुद्धातम को जाने बिना धर्म नहीं होय,
अरे अटक कर विषय-कषायों में मत अवसर खोय ।
कोटि उपाय बनाय भव्य अब करले आतमज्ञान ॥ अहो…॥
भावें नित वैराग्य भावना धरें भेद - विज्ञान,
त्याग अडम्बर होय दिगम्बर ठानें निर्मल ध्यान ।
धर्ममयी श्रेणी चढ़ जावें बनें सिद्ध भगवान ॥ अहो…॥
रचयिता : आदरणीय बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्
Source : जिनेन्द्र आराधना संग्रह