उत्तम त्याग सु मंगलदायी, उत्तम दान सर्व सुखदायी।
महापाप कंजूसी जानो, भोग पाप का कारण मानो।।
शक्ति विचार सर्व तज दीजे, पात्र दान भक्ति से दीजे।
दीन दुखी पर करुणा दीजे, दुर्जन में मध्यस्थ रहीजे।।
उत्तम पात्र कहे मुनिराई, देशब्रती मध्यम हैं भाई ।
जघन कहे अविरत समदृष्टि, करना यथायोग्य तुम भाई ।।
श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि सुखकारी, गुण, विज्ञान सु मंगलकारी ।
ईर्ष्या मान लोभ नहीं कीजे, क्षमा सहित हर्षित हो दीजे।।
धर्म वृद्धि का जो कारण हो, जिसमें नहीं विषय पोषण हो ।
आहार औषधि अभय सु देना, तत्त्वज्ञान भी सबको देना।।
तन मन धन करना तुम अर्पण, धर्म हेतु सर्वस्व समर्पण ।
हो निर्ग्रन्थ समाधि करना, यों ही भवसागर से तरना।।
रत्नत्रय-सा और धर्म ना, कृत कारित अनुमोदन करना ।
ये ही निज-पर को हितकारी, हो प्रभावना मंगलकारी ।।
Artist: बाल ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’
Source: बाल काव्य तरंगिणी