क्रमबद्ध पर्याय में विश्वास करने पर रोज़ की जिंदगी कैसे जी जा सकती है?
और आप यह भी मानते हैं की हर द्रव्य का परिणमन अपने आप होता है कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता। फिर जब भूख लगती है तो आप क्या सोचते हैं ? क्या उस समय आपका दिमाग खाने की वस्तुओं पर नहीं जाता ?
क्योंकि भूख मिटना भोजन पर निर्भर नहीं करता। द्रव्य की भूख अपने आप मिटती है, भोजन तो निमित्त मात्र है और अगर भूख को मिटना होगा तो निमित्त तो अपने आप मिल जाएंगे तो क्या आप भविष्य के भोजन के लिए पैसे इकट्ठा नहीं करते ?
तो फिर इस कॉन्सेप्ट को सर्वथा एकांत रूप से माना जा सकता है ?
क्या गलत कर्म करके अपना दोष क्रमबद्ध पर्याय और द्रव्य का स्वतंत्र परिणमन कंसेप्ट पर लगा सकते हैं ? अगर नहीं तो क्या यह कांसेप्ट सार्वभौमिक सत्य (universal truth) माना जा सकता है ?
हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ? आत्मा का चिंतन भी तभी होगा जब हमारी वैसी योग्यता होगी। तो हमारे हाथ में है क्या ? कठपुतली के खेल में और हमारे जीवन में क्या अंतर है ?
मोक्ष और संसार में भी अंतर ही क्या है। infinite से एक बाहर निकल गया और infinite में एक जुड़ गया । मोक्ष गति पाकर कौन सा बड़ा काम कर लिया।
अगर इस कॉन्सेप्ट से “स्वच्छंदता” भी आ जाए तो वह भी तो द्रव्य का अपना उपादान हुआ ।