चिर संचित अरमानों का | Chir Sanchit Armanon Ka

चिर संचित अरमानों का
रचयिता - बाबू ‘युगल’ जैन, कोटा

चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला

चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला।
स्वयं समर्पित करके जीवन जिसको मैंने गले लगाया
स्वयं गरल की घूंटें पी-पी जिसको प्रेम-पीयूष पिलाया,
जिसके एक-एक इंगित पर खून पसीना बना तरल हो,
प्रिय-चुम्बन सा लगा मरण भी सदा मधुर अत्यन्त सरल हो।
जिसको समझा था चिर नाता वही एक दिन टूट चला
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला |1|

जीवन की वे मधुमय घड़ियां और प्रणय की प्यारी रातें,
यौवन की गोदी में होती क्रीड़ायें मद की बरसातें
अरे रूपहली रातों में जो सरस सुनहले स्वप्न संजोये
आज हृदय के स्पंदन में वे मौन गीत बनकर हैं सोये
थी सब जड़ता की उपासना चेतन फिर भी रिक्त चला
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला |2|

सदा पराये से जो परिचित बोलो वह निज को क्या जाने
विष को जीवन मान चला जो जीवन को वह क्या पहिचाने
रहा अविद्या के मद में यों अरे मरण को जीवन समझा
रे वियोग जिसका सहचर हो उसको प्रेमालिंगन समझा
यही समझ का भ्रम हो मेरी प्रज्ञा पर आरूढ़ चला
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला |3|

प्रतिपल जो आकुल रहता हो कौन उसे कहता है जीवन
पद-पद पर जो झुक जाता हो, यह पौरुष का एक विडम्बन
महा प्रलय के प्लावन में जो, बन जाता उत्तुङ्ग हिमाचल,
मधुशाला की मधु बालायें करती जिस पर जादू निष्फल
इसको पौरुष कहना सीखो यह जीवन की एक कला
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला।4|

जिसकी खोज रही युग-युग से वही छिपा देखो अन्तर में
तुम बहिरात्म रहे विभ्रम से वह बैठा था अन्तस्तल में,
कहां खोजते ऐ मतवाले! जहां खोजते वहां नहीं है
अरे विलक्षण सुख की निधियां सदा तुम्हारे पास रही हैं।
उसका जग में कौन सहारा, जो अपने से रूठ चला,
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला।5|

कितना करते हो प्रयास पर बोलो कितना पा लेते हो,
विफल-सफलता सफल-विफलता में बस गोते खा लेते हो
कौन कह सका रही सफलता मेरे जीवन की थाती है।
स्वयं देह भी अन्तिम क्षण जब उसको छोड़ चली जाती है।
सभी चलाचल चलते रहते रही चेतना ही अचला
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला।6|

महामान के शिखर चढ़ा जो गर्वित मिट्टी की काया पर
पड़ा अचेतन सा जो गाफिल रे केवल सुख की छाया पर
अरे शलभ सा टूट पड़ा जो इस फिरती जग की माया पर
किन्तु अभीप्सित जीवन का क्या उसके हाथ कभी आया पर
सुधासित्त गागर समझी थी विष का निर्झर छूट चला।
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला।7|

अरे स्नेह से हीन बालुका कितना स्नेह कहो दे देगी
शुष्क तृणावलि पागल मृग को बोलो कितनी सौरभ देगी
अरे कभी क्या मृगतृष्णा से चिर पिपासु की प्यास बुझेगी
क्या करील से कभी भूलकर आम्र मंजरी भी निकलेगी?
रे! अभाव में सद्भावों की आशा सदा रही विफला,
चिर संचित अरमानों का घट एक दिवस ही फूट चला।8|

स्वर : तन्मय भवल्कर
संगीत : अन्वय जैन दिव्य ध्वनि स्टूडीओ, उज्जैन
कम्पोज़िंग : अचिंत्य जैन, ग्वालियर

Source: https://youtube.com/channel/UCwHEgaL-YHrconDekZ-EF8A

(बाबूजी की अन्य रचनायें भी इस youtube channel पर उपलब्ध हैं)

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