चिकने घड़े हम चिकने घडे; चिकने घड़े हम चिकने घड़े।
क्रोध-मान-माया-लोभ मोह से मड़े… चिकने घड़े… हम चिकने।।
निशदिन पल-पल, कितना ही डालो जल;
एक बूँद पियें नाहीं त्यागी हैं बड़े || १ ||
जिनवाणी सुने नाहीं, सुने भी तो तो माने नाहीं;
तत्काल झाड़ के होते हैं खड़े || २ ||
एक कान सुन लेवें, दूजे से निकाल देवें:
अन्तर में झेलें नाहिं, लोहे से कड़े || ३ ||
मोह-राग चिकनाई, हमको सदा ही भाई;
कभी नहीं हम परभावों से लड़े ॥४॥
देह जीव एक मानें भेदज्ञान नहीं जानें;
याही भूल से संसार में पड़े || ५ ||
निज की न ज्योति जोई, त्रस पर्याय खोई;
बेर-बेर गिरकें निगोद में पड़े || ६ ||
चिकनाई फैंक देवें, तत्त्वज्ञान नैंक लेवें;
फिर कोई कहे नाहिं ये हैं बिगड़े ||७||
निज में निवास करें, संयम प्रकाश करें;
मिट जायें सारे कर्मों के झगड़े ॥ ८ ॥
पर्याय दृष्टि गई, तत्त्व दृष्टि आज भई;
पाए हैं अनन्त गुण निज में जड़े ॥ ९ ॥
निज का स्वभाव साधा, मिट गई सारी बाधा;
धीरे-धीरे मुक्ति के शिखर पर चढ़े ।। १० ।।
अब नहीं रहे हम चिकने घड़े, अब नहीं रहे हम चिकने घड़े ॥
- कविवर राजमल पवैया, भोपाल