(तर्ज : एक तुम्हीं आधार हो… )
चिदानंद चैतन्य प्रभु का वर्ते क्षण-क्षण ध्यान,
कि जिससे आनंद रहे महान॥ टेक ॥
जब ही प्रभु का परिचय पाया, अपना प्रभु ही मुझे सुहाया ।
स्व-पर हिताहित का फिर सहजहिं हुआ भेद-विज्ञान॥1॥
पर की झूठी आशा टूटी, करने की आकुलता छूटी।
हुआ सहज निर्भार, पूर्ण प्रभुता दीखे अम्लान॥ 2॥
झूठे नव तत्त्वों के स्वांग, एक रूप ज्ञायक भगवान।
मग्न रहूँ, संतुष्ट रहूँ, ध्रुव में ही आठों याम॥ 3॥
ज्ञान प्रकाश सहज सुखदायी, अपनी अक्षय निधि प्रगटाई ।
विलसे सहज चतुष्टय मंडित, शुद्धातम भगवान॥ 4॥
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण