चेतन कौन अनीति गही रे | chetan kon aniti gahi re

चेतन कौन अनीति गही रे, न मानैं सुगुरु कही रे ।
जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे ।।चेतन. ।।

चिन्मय ह्वै देहादि जड़नसौं, तो मति पागि रही रे ।
सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज, तिनकौं गहत नहीं रे।।१ ।।चेतन. ।।

जिनवृष पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे ।
`दौलत’ जिन यह सीख धरी उर, तिन शिव सहज लही रे।।२ ।।चेतन. ।।

Artist - पंडित दौलतराम जी

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अर्थ:
हे चेतन ! तू यह कैसा अनीतिपूर्ण आचरण कर रहा है कि सद्गुरु ने जो सीख दी है , जो तेरे हित की बात कही है , जो उपदेश दिया है तू उसको नहीं मानता ! जिन इन्द्रिय विषयों के कारण तूने बहुत दुखों का उपार्जन किया है , उनमें ही तू प्रीति लगा रहा है , उनसे अपनापन जोड़ रहा है।
तू चैतन्य स्वरूप होकर भी पुद्गल जड़ वस्तुयों में अपनापन जोड़ रहा है , उनको अपना मान रहा है , उनमें मन लगा रहा है । तेरे अपने भाव - स्व भाव तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है , जिन्हे तू स्वीकार नहीं कर रहा है ।
जैनधर्म पाकर तू राग द्वेष को छोड़ दे , तेरा हित इसी में है । दौलतराम कहते है कि जिनने इस सीख को , उपदेश को हृदय में धारण किया , स्वीकार किया उनको मुक्ति का मार्ग सहज हो गया अर्थात वे सुगमता से मुक्त हो गए ।

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