अर्थ:
हे चेतन ! तू यह कैसा अनीतिपूर्ण आचरण कर रहा है कि सद्गुरु ने जो सीख दी है , जो तेरे हित की बात कही है , जो उपदेश दिया है तू उसको नहीं मानता ! जिन इन्द्रिय विषयों के कारण तूने बहुत दुखों का उपार्जन किया है , उनमें ही तू प्रीति लगा रहा है , उनसे अपनापन जोड़ रहा है।
तू चैतन्य स्वरूप होकर भी पुद्गल जड़ वस्तुयों में अपनापन जोड़ रहा है , उनको अपना मान रहा है , उनमें मन लगा रहा है । तेरे अपने भाव - स्व भाव तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है , जिन्हे तू स्वीकार नहीं कर रहा है ।
जैनधर्म पाकर तू राग द्वेष को छोड़ दे , तेरा हित इसी में है । दौलतराम कहते है कि जिनने इस सीख को , उपदेश को हृदय में धारण किया , स्वीकार किया उनको मुक्ति का मार्ग सहज हो गया अर्थात वे सुगमता से मुक्त हो गए ।