चौबीसौं को वंदना हमारी ॥ टेक ॥
भवदुखनाशक सुखपरकाशक, विघनविनाशक मंगलकारी ॥ १ ॥
तीनलोक तिहुँकालनिमाहीं, इन सम और नहीं उपगारी ॥ २ ॥
पंच कल्यानक महिमा लखकै अद्भुत हरष लहैं नरनारी ॥ ३ ॥
‘द्यानत’ इनकी कौन चलावै, बिंब देख भये सम्यकधारी ॥ ४ ॥
अर्थ- हम ऋषभदेव से वर्धमान तक चौबीस तीर्थकरों की वंदना करते हैं।
ये भव-भ्रमण के दुःख का नाश करनेवाले हैं, सुख के प्रकाशक हैं, सब विघ्न-बाधाओं को मेटनेवाले हैं, नाश करनेवाले हैं व सदा मंगल करनेवाले हैं।
तीन लोक और तीनों काल में इनके समान दूसरा कोई उपकारी नहीं है।
इनके पंचकल्याणक ध्यान के उत्कृष्ट माध्यम हैं, उनको देखकर उनकी महिमा जानकर सभी नर-नारी प्रसन्नता को प्राप्त होते हैं।
द्यानतराय जी कहते हैं कि इनकी क्या बात करें इनके प्रतिबिम्ब को देखकर ही प्राणी सम्यक्त्व को धारण कर लेते हैं।
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी