इस भजन में कवि ने वृद्धावस्था का वर्णन किया है। इस शरीर को चरखे की उपमा दी गयी है।
प्रथम अन्तरे में पग खूंटे अर्थात 2 पैरों के बारे में लिखा है।
द्वितीय अन्तरे में रसना तकली अर्थात जीभ ने किस प्रकार कार्य करना बंद कर दिया है, वह बताया।
बाद के अंतरों में कवि कहते हैं कि अब इसके चलने का कोई भरोसा नहीं रह गया है। इसे वैद्य-हकीमों के द्वारा मरम्मत की प्रतिदिन ज़रूरत पड़ने लगी है।
और कहते हैं कि जब ये नया था तब सभी को अच्छा लगता था, सबका मन प्रसन्न करता था। अब यह सबको बुरा लगने लगा है।
अंतिम अन्तरे में कवि लिखते हैं कि ‘मोटा मही कातकर, कर अपना सुरझेरा’ अर्थात स्वयं के लिए अधिक समय निकाल कर अपना काम बना लो क्योंकि अंत समय में तो यह आग में ही झोंका जाना है।
यहां बुढ़ापे की अवस्था को चरखे के पुरानेपन से जोड़ा गया है।
छंद में आए चरखे से सम्बन्धित शब्दावली -
• खूंटे - जिस पर चरखा रखा होता है।
• पांखड़ी - चक्के की पंखुड़ी
• तकली - जिस खूंटे से सूत को लपेटा जाता है (टेकुआ)
• सूत - धागा
• माल - टेकुआ का धागा
• बढ़ी - बढ़ई
• बरन - चरखे का रंग
इसमें निम्न सुधार करना चाहिए -
• बल खाना - ये एक ही क्रियापद बलखाना है
• तीसरे अन्तरे में