भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता
भारतीय संस्कृति की अनेक विशेषताएँ हैं, यथा- प्राचीनता, धार्मिकता, विश्वबन्धुत्व, अहिंसा, सदाचार, आनन्दमय जीवन, गुणग्राही, भावप्रधान, न्यायप्रधान, उत्सवप्रधान, सत्यं शिवं सुन्दरम्, इत्यादि; जिन पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है, परन्तु यदि सार-संक्षेप में समझना चाहें तो कह सकते हैं कि निम्नलिखित दो विशेषताएँ भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषताएँ हैं- 1. आध्यात्मिकता और 2. विरोधी से भी प्रेम करना। भारतीय संस्कृति के प्रत्येक उपासक को इन दो विशेषताओं को विशेष ध्यानपूर्वक समझना चाहिए और कभी भी इनकी उपेक्षा नहीं होने देना चाहिए। इनकी रक्षा-सुरक्षा से ही भारत एवं भारतीय संस्कृति का विकास या उत्थान सम्भव है, अन्यथा नहीं। वर्तमान में इन विशेषताओं की कुछ उपेक्षा होती देखी जा रही है, इसीलिए आज यहाँ इन पर कुछ प्रकाश डालने की मुझे इच्छा हुई है। आशा है भारतीय संस्कृति के सभी कर्णधार-साधु-संत, विद्वान् पंडित, शिक्षक, नेता आदि - इन दोनों विशेषताओं पर विशेष गम्भीरता से ध्यान देंगे; क्योंकि जीवन के सभी अंगों - धर्म, दर्शन, समाज, शिक्षा, राजनीति आदि में इनकी महती उपयोगिता है।
(क) आध्यात्मिकता
आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। यथा-
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गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ अर्थात् विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ विद्या अध्यात्मविद्या है।
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‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति प्रदान करे।
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आत्मा वा रे द्रष्टव्य श्रोतव्य …अस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति ।
- बृहदारण्यकोपनिषद् 7/1
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अनासक्त योग/स्थितप्रज्ञ/ज्ञाता-दृष्टा
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कला बहत्तर पुरुष की, जानें दो सरदार। एक जीव की जीविका, दूजा जीवोद्धार ॥
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बहत्तरकलाकुसला पंडिया अपंडिया चेव । सव्वकलाण वि पवरा, धम्मकलं जे ण जाणंति ॥
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‘भारतवर्ष’ नाम ही आध्यात्मिक प्रेरणा के लिए है।
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भारत का राष्ट्रिय पुष्प भी कमल है, जो निर्लिप्तता का प्रतीक है।
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हजारों भजन आध्यात्मिक पाए जाते हैं- आपा नहीं जाना तूने कैसा ज्ञानधारी रे / अब हम अमर भये न मरेंगे।
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हजारों कहानियाँ आध्यात्मिक पाई जाती हैं- तैरना नहीं सीखा / अपने को नहीं गिना/ हीरा ठग की जेब में ही छुपाया / भगवान मनुष्य के हृदय में छुप कर बैठ गये।
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हजारों दृष्टान्त आध्यात्मिक पाए जाते हैं- नाटक / स्वप्न / धर्मशाला/ मुनीम/धाय ।
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हजारों कथन और भी मिलते हैं- जमाने में उसने बड़ी बात कर ली, खुद अपने से जिसने मुलाकात कर ली / अरे सुधारक जगत के चिन्ता मत कर यार, तेरा मन ही जगत है पहले इसे सुधार/ जिन्दगी में आकर शेख…/ जंगल जंगल ढूढ़ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को।
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वासांसि जीर्णानि यथा विहाय / शरीर वस्त्र के समान है।
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मृत्यु महोत्सव है- तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योः ।
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राजा से रंक तक सभी आध्यात्मिक थे। राजा भी राजर्षि कहलाते थे।
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विदेह = देह छता जेनी दशा, वर्ते देहातीत ।
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देशस्यार्थे त्यजेद् ग्रामं, ग्रामस्यार्थे त्यजेद् कुलम् । कुलस्यार्थे त्यजेदेकं, आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेद् ॥
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आध्यात्मिक व्यक्ति सदा प्रसन्न रहता है, क्योंकि हर्ष-विषाद से पार रहता है।
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अध्यात्मविद्या कोई साधु-संतों के ही काम की नहीं है अथवा केवल परलोक सुधारने के लिए ही नहीं है, अपितु उससे लौकिक जीवन भी मंगलमय होता है।
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अध्यात्मविद्या के अभाव में ही अनेक मानसिक, शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं।
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I is always capital.
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अपना घर है सबसे प्यारा।
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बच्चों तक के लिए वर्कशॉप होना चाहिए।
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नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः।
शांतमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ - योगवासिष्ठ, 15
- आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः।
तत्रावगाहं कुरु पांडुपुत्र, न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ॥
- (सच्चा गंगास्नान)
ख) विरोधी से भी प्रेम करना
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जीवन्तु मे शत्रुगणाः सदैव, येषां प्रयत्नेन निराकुलो ऽहम् । यदा यदा मां भजते प्रमादः तदा तदा मां प्रतिबोधयन्ति ।।
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निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ॥
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जो तोको काँटा बुवे, ताहि बोय तू फूल। तोहि फूल के फूल हैं, वाको है तिरशूल ॥
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वादे वादे जायते तत्त्वबोधः ।
- मुद्राराक्षस
-रहीमदास
- कबीरदास
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मतभेद हो, पर मनभेद नहीं। मतभेद विकास का कारण है, मनभेद विनाश का। मतभेद सहयोगी होता है, उपकारी होता है, पूरक होता है, सौन्दर्यवर्धक होता है। धर्म, दर्शन, समाज, शिक्षा, राजनीति सभी क्षेत्रों में विरोध विकास का सहयोगी बनता है।
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यहाँ विरोधी को कुचला मारा नहीं जाता, बल्कि प्यार से पास बिठाया जाता है। पूर्वपक्ष के प्रति भी ईमानदार रहा जाता है।
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बहुत से लोग विरोधी को कुचलने या मारने का कार्य करते हैं। जैसे कि ईसा मसीह, सुकरात आदि के साथ किया, परन्तु भारतीय संस्कृति में ऐसा नहीं किया जाता। यहाँ तो चार्वाक को भी पास बिठाते हैं, दर्शनों में परिगणित करते हैं। उस विचारधारा को नष्ट नहीं करते हैं।
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विरोधी को कुचलनेवाला तो कायर / डरपोक होता है, पापी भी।
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विरोध में ही व्यक्ति की सच्ची परीक्षा भी होती है। अनुकूलता में तो सभी ठीक रहते हैं। तारीफ की बात तो तब है जब प्रतिकूलता में भी शांत रहे। असली धर्मात्मा वही है जो विरोधी से भी प्रेम करे। आदमी सब सह सकता है, विरोधी को नहीं सह पाता।
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जहाँ विरोधी को भी प्रेम से बिठाया जाता है उसे समवसरण या संसद कहते हैं।
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दिल मिले या न मिले, हाथ तो मिलाते रहिए।
-Prof Veersagar Ji Dilli