भारतीय संस्कृति की अखंडता | Bharteey Sanskriti ki Akhandata

भारतीय संस्कृति की अखंडता

भारतीय संस्कृति एक ऐसी पवित्र गंगा नदी है जो बहुत प्राचीन काल से आज तक अनवरत रूप से प्रवाहित हो रही है और उसमें असंख्य जीव स्नान करके स्वयं को निर्मल एवं कृतकृत्य बना चुके हैं। भारतीय संस्कृति रूपी गंगा नदी के आदिकाल से ही दो तट रहे हैं- एक श्रमण और दूसरा वैदिक।

श्रमण और वैदिक संस्कृति को आज सर्वथा पृथक-पृथक दो धाराओं के रूप में समझा-समझाया जाता है, किंतु प्राचीन परंपरा के सूक्ष्म अन्वेषण से यह बात अत्यंत स्पष्ट होती है कि भारतीय संस्कृति यदि एक नदी है तो वैदिक और श्रमण संस्कृति उसके दो किनारे हैं। भारतीय संस्कृति यदि दीवार है तो वैदिक और श्रमण संस्कृति उसके पूर्वापर दो भाग हैं। भारतीय संस्कृति यदि एक रथ है तो वैदिक और श्रमण संस्कृति उसके दो मजबूत पहिए हैं।

वैदिक और श्रमण संस्कृति एक-दूसरे की विरोधी नहीं, अपितु पूरक हैं। वस्तुतः ये दो संस्कृतियाँ ही नहीं हैं, अपितु एक ही संस्कृति के दो पाट हैं। कोई भी व्यक्ति इन दोनों संस्कृतियों को ठीक से समझकर और अपनाकर ही सच्चा भारतीय बन सकता है।

दर्शनशास्त्र के प्रकांड पंडित श्री वाचस्पति गैरोला लिखते हैं-

“भारतीय विचारधारा हमें अनादि काल से ही दो रूपों से विभक्त मिलती है। पहली विचारधारा परंपरामूलक, ब्राह्मण या ब्रह्मवादी रही है जिसका विकास वैदिक साहित्य के बृहद् रूप में प्रकट हुआ है। दूसरी विचारधारा पुरुषार्थमूलक, प्रगतिशील, श्रामण्य या श्रमणप्रधान रही है। दोनों विचारधाराएँ एक-दूसरे की प्रपूरक रही हैं और विरोधी भी। इस देश की एकता बनाए रखने में दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण विचारधारा के जनक थे जैन।”

इसी प्रकार डॉ. विश्वम्भरनाथ पाण्डेय लिखते हैं-

  • भारतीय दर्शन, 86

“किंतु इतिहास में एक और बात बिल्कुल स्पष्ट है। वह यह कि जैन, बौद्ध और सनातन तीनों धर्मों के विद्वान उन दिनों एक साथ दूर-दूर के देशों में जाते थे। तीनों हर जगह मिलकर प्रेम के साथ रहते थे और उनमें से अनेकों का रहन-सहन और उनके उपदेश तीनों धर्मों के सामान्य सिद्धांतों और बहुमूल्य रत्नों का एक सुंदर समन्वय होते थे।”

इसी प्रकार डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं-

  • भारत और मानव संस्कृति, भाग 2, पृष्ठ 127-128

“भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। इसकी संरचना में वैदिक धारा और श्रमण धारा का महत्त्वपूर्ण अवदान है।… वस्तुतः भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है।”

  • जैन धर्म का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 10-11

इसी प्रकार के विचार अन्य भी अनेक विद्वानों ने व्यक्त किये हैं।

वैदिक एवं श्रमण संस्कृति में समन्वय

भारत की इस अखंड संस्कृति के प्रवर्तक ऋषभदेव रहे और वे आज भी सर्वमान्य हैं। ऋषभदेव ने प्रजा को द्विविध धर्म का उपदेश दिया था- मुनिधर्म और श्रावकधर्म। प्रतीत होता है कि धर्म के ये दो रूप ही कालान्तर में श्रमण एवं वैदिक के रूप में विभाजित हो गये। आज भी ज्ञानी व्यक्ति इनका समन्वय करके बात को ठीक से समझ सकते हैं। यथा-

श्रमण

  1. साक्षात् मोक्ष का कारण

  2. मोक्षदं (मुक्ति)

  3. श्रेय को महत्त्व (निःश्रेयस)

  4. निवृत्तिप्रधान

  5. शुद्धोपयोगरूप धर्म की मुख्यता

  6. अपवर्ग की साधना

  7. महाव्रतरूप साधना

  8. मुनि

  9. श्रमण

  10. निश्चयप्रधान

वैदिक

परम्परा मोक्ष का कारण

कामदं (भुक्ति)

प्रेय को महत्त्व (अभ्युदय)

प्रवृत्तिप्रधान

शुभोपयोगरूप धर्म (पुण्य) की मुख्यता

त्रिवर्ग की साधना

अणुव्रतरूप साधना

ऋषि

ब्राह्मण

व्यवहारप्रधान

भारतीय संस्कृति मूलतः एक थी -

"मेरे छह पुत्र हैं। एक दिन मैं उनके लिए बाजार से एक बहुत अच्छा मिश्रित नमकीन खरीदकर लाया। जब मैंने उस नमकीन को अपने पुत्रों को खाने के लिए दिया तो उन्होंने उसके एक-एक सामान को अलग-अलग कर दिया। जैसे- सबसे छोटे बेटे को मूंगफली बहुत अच्छी लगती है अतः उसने उसमें से मूंगफली-मूंगफली अलग कर ली। दूसरे बेटे को किसमिस अच्छी लगती है अतः उसने उसमें से किसमिस किसमिस अलग कर ली। तीसरे बेटे को दालमोठ अच्छी लगती है अतः उसने उसमें से दालमोठ दालमोठ अलग कर ली। इसी प्रकार अन्य ने भी कर लिया और उसके बाद उसमें अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कुछ और सामान भी यहाँ वहां से लेकर मिला लिया। अंत में वे सब आपस में लड़ने-झगड़ने लगे कि मेरी नमकीन अच्छी है और तेरी नमकीन बुरी है।

इसप्रकार उन्होंने उस मिश्रित नमकीन को, जो वास्तव में एक ही थी और सबको सुख देने के लिए आई थी, छह प्रकार की बना दी और आपसी कलह का कारण भी बना दिया, उसीप्रकार भारतीय संस्कृति भी मूलतः एक थी, सर्वजनहितकारी थी, किन्तु हम लोगों ने उसे अनेक बना दिया और आपसी कलह का कारण भी बना दिया।"

भारतीय संस्कृति के आद्य-निर्माता ऋषभदेव

अखण्ड भारतीय संस्कृति के आद्य-निर्माता ऋषभदेव हैं, क्योंकि वैदिक एवं श्रमण दोनों ही संस्कृतियों में उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म के तो वे प्रथम तीर्थकर हैं ही, वैदिक ग्रन्थों में भी सर्वत्र उनका स्मरण किया गया है। वेद, उपनिषद और पुराण तो उनका गुणगान करते ही हैं, परवर्ती अनेक साहित्यकारों ने भी उनका अतीव श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के पुरोधा महाकवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपनी कृति ‘जैन कुतूहल’ में लिखते हैं-

"जय जय जयति ऋषभ भगवान ।

जगत ऋषभ बुध ऋषभ धरम के, ऋषभ पुरान प्रमान ॥ प्रगटित करन धरम पथ धारत, नाना बेश सुजान । ‘हरीचंद’ कोउ भेद न पायो, कियो यथारुचि गान ॥"

अर्थ- जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की बारम्बार जय हो, वे ही पुराणों के प्रामाणिक आदि पुरुष हैं, उन्होंने ही जगत में सर्वप्रथम धर्मपथ प्रकट किया है, दुनिया के सब लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार नाना वेशों या नामों से उनका ही गुणगान करते हैं।

महाकवि सूरदास अपने ‘सूरसागर’ (पंचम स्कन्ध) में लिखते हैं-

“बहुरि रिसभ बड़े जब भये। नाभि राज दे वन को गये। रिसभ राज परजा सुख पायो। जस ताको सब जग में छायो । रिसभदेव जब वन को गये। नव सुत नवों खंड नृप भये। भरत सो भरत खंड को राव। करे सदा ही धर्म रु न्याव ॥”

अर्थ- जब ऋषभदेव बड़े हुए तो उनके पिता नाभिराय उनको राज्य सौंपकर वन को चले गये। ऋषभदेव के राज्य में सारी प्रजा ने बहुत ही सुख पाया, अतः उनका यश सारे जगत में छा गया। इसके बाद जब ऋषभदेव बड़े होकर वन को
गये तो उन्होंने भी अपना राज्यभार अपने पुत्रों को सौंप दिया। उनमें से उनके बड़े पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ हुआ, क्योंकि भरत सदा ही धर्म और न्याय के मार्ग पर चलता था।

ऋषभदेव को विश्व की लगभग सभी संस्कृतियों में परमपूज्य परमाराध्य माना गया है, भले ही उसके नाम-रूप में कुछ अन्तर हो। भारतवर्ष के अनगिनत सम्प्रदाय उन्हें ब्रह्मा, आदिब्रह्मा, प्रजापति, विधाता, पुरुदेव, पशुपति, तिरुपति, कैलाशपति, भूतनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, नन्दीश्वर, विश्वम्भर, जटाधारी, त्रिशूलधारी, योगी, महायोगी, हठयोगी, नाथ, निर्ग्रन्थ, सिद्ध, हिरण्यगर्भ, हरि, विष्णु, महेश, महादेव, शिव, शंकर, दिगम्बर, स्वयंभू इत्यादि असंख्य नामों से नित्य स्मरण करते हैं। इसी प्रकार भारतवर्ष के बाहर भी लगभग सभी संस्कृतियों में ऋषभदेव को सबसे बड़ा देव माना है, यद्यपि वहाँ उनके नाम में कुछ अंतर दिखाई देता है। जैसे - मध्य एशिया की संस्कृति उन्हें ‘बुलगोड’ (बैल वाला देवता) कहती है, जापान की संस्कृति ‘राँक शब’ (Rok shab) कहती है, फोनेशिया की संस्कृति ‘रेशेफ’ (Reshef) कहती है और यूनान की संस्कृति ‘आर्गिव’ (अग्रदेव, आदिदेव) के नाम से पूजती है। इसीप्रकार कोई उन्हें ‘कृषि के देवता’ (कृषिकर्म सिखाने के कारण) कहता है तो कोई उन्हें ‘सूर्यदेव’ (केवलज्ञानी होने के कारण) के रूप में पूजता है, कोई उन्हें ‘नबी’ का बेटा ‘रसूल’ कहता है तो कोई उन्हें ‘बाबा आदम’ के नाम से पुकारता है।

इस प्रकार ऋषभदेव केवल श्रमण संस्कृति के ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के आदि-पुरुष सिद्ध होते हैं। भारतीय संस्कृति के भी क्या, विश्व संस्कृति के आद्य-निर्माता सिद्ध होते हैं।

जैन ग्रन्थों में वैदिक सन्दर्भ

“यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।”

-भावना बत्तीसी, 12

“त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् ।”

वैदिक ग्रन्थों में जैन सन्दर्भ

  • भक्तामरस्तोत्र, 25

“तापसा भुंजते चापि श्रमणाश्चैव भुंजते ।” - वाल्मीकि रामायण,

बालकाण्ड, 14/22

"संतुष्टा करुणाः मैत्राः शान्ताः दान्ताः तितिक्षणः।

आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाः जनाः ॥"

"नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः।

शांतमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।"

“कदा शम्भो भविष्यामि पाणिपात्रो दिगम्बरः।”

“यं शैवा… अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः।”

  • भागवत, 12/3/19

  • योगवाशिष्ठ, 15

  • भर्तृहरि, 1/13

  • हनुमन्नाटक

-Prof Veersagar Ji