भावना
किसके सम्मुख रुदन करूं मैं किसको मनकी व्यथा सुनाऊं?
किसके आगे नमन करूं मैं, किसको अपना शीश झुकाऊँ॥
रूप उसी का ये जग सारा, तब किसका मैं रूप सजाऊं? सत्-चित्-घनानंद उसमें ही, तज अस्तित्व विलय हो जाऊं॥
मिथ्या-बंधन जगतीतल के, रागों से मन मुक्त बनाऊं।
द्वेषों के दलदल से उठकर, निर्मलता के नीर नहाऊं॥
सभी विषमताओं को तजकर, समता-भाव हृदय में लाऊं। सुख-दुख की अनुभूति नहीं हो, मन कषाय से दूर हटाऊं॥
अन्तर के उद्वेगों से मैं लड़कर अपना पिंड छुड़ाऊं।
सभी विकल्पों से मुख मोडूं संकल्पों का स्वत्व मिटाऊं॥ जलथलनभ-चहुँदिशि प्रभुकाही सुंदर सुभग स्वरूप लखाऊँ॥
जहां जहां जिस ओर निहारूं सब में प्रभु का दर्शन पाऊं॥ इस जीवन के जंजालों को झटक तोड़ निर्भय होजाऊं॥
इस असार-जग को तजकर मैं केवल शरण तिहारी आऊं॥ जड़ चेतन कणकण अणु अणु में व्याप्त, उसी में चित्त रमाऊं।
सबका प्रभुमय जान सभी को नमन करूं मैं शीश झुकाऊं॥
॥इति॥
रचयिता :- श्री कामता प्रसाद जैन, वाराणसी