दस दस दो दो व जिणे, दस दो अणुपेहणं वोच्छे ॥1॥
अन्वयार्थ- जिन्होंने उत्तम ध्यान के द्वारा दीर्घ संसार का नाश कर दिया है ऐसे समस्त सिद्धों तथा चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार कर बारह अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा ॥१॥
आसवसंवरणिज्जर, धम्मं बोहिं च चिंतेज्जो ॥2॥
अन्वयार्थ- अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन बारह अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करना चाहिए ॥२॥
मादुपिदुसजणभिच्चसंबंधिणो य पिदिवियाणिच्चा ॥3॥
अन्वयार्थ- उत्तम भवन, यान, वाहन, शयन, आसन, देव, मनुष्य, राजा, माता, पिता, कुटुंबी और सेवक आदि सभी अनित्य तथा पृथक् हो जाने वाले हैं ॥३॥
सोहग्गं लावण्णं, सुरधणुमिव सस्सयं ण हवे ॥4॥
अन्वयार्थ- सब प्रकार की सामग्री- परिग्रह, इंद्रियाँ, रूप, नीरोगिता, यौवन, बल, तेज, सौभाग्य और सौंदर्य ये सब इंद्रधनुष्य के समान/शाश्वत रहने वाले नहीं हैं अर्थात् नश्वर हैं ॥४॥
अहमिंदट्ठाणाहिं, बलदेवप्पहुदिपज्जाया ॥5॥
अन्वयार्थ- अहमिंद्र के पद और बलदेव आदि की पर्यायें जल के बबूले, इंद्रधनुष्य, बिजली और मेघ की शोभा के समान/स्थिर रहने वाली नहीं हैं ॥५॥
भोगोपभोगकारणदव्वं णिच्चं कहं होदि ॥6॥
अन्वयार्थ- जब दूध और पानी की तरह जीव के साथ मिला हुआ शरीर शीघ्र नष्ट हो जाता है तब भोगोपभोग का कारणभूत द्रव्य- स्त्री आदि परिकर नित्य कैसे हो सकता है? ॥६॥
वदिरित्तो सो अप्पा, सस्सदमिदि चिंतए णिच्चं ॥7॥
अन्वयार्थ- परमार्थ से आत्मा देव, असुर और नरेंद्रों के वैभवों से भिन्न है और वह आत्मा शाश्वत है ऐसा निरंतर चिंतन करना चाहिए ॥७॥
जीवाणं ण हि सरणं, तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥8॥
अन्वयार्थ- मरण के समय तीनों लोकों में मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक सामग्री, हाथी, घोड़े, रथ और समस्त विद्याएँ जीवों के लिए शरण नहीं हैं अर्थात् मरण से बचाने में समर्थ नहीं हैं ॥८॥
अइरावणो गइंदो, इंदस्स ण विज्जदे सरणं ॥9॥
अन्वयार्थ- स्वर्ग ही जिसका किला है, देव सेवक हैं, वज्र शस्त्र है और ऐरावत गजराज है उस इंद्र का भी कोई शरण नहीं है- उसे भी मृत्यु से बचाने वाला कोई नहीं है ॥९॥
चक्केसस्स ण सरणं, पेच्छंतो कद्दये काले ॥10॥
अन्वयार्थ- नौ निधियाँ, चौदह रत्न, घोड़े, मत्त हाथी और चतुरंगिणी सेना चक्रवर्ती के लिए शरण नहीं हैं। देखते-देखते काल उसे नष्ट कर देता है ॥१०॥
तम्हा आदा सरणं, बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो ॥11॥
अन्वयार्थ- जिस कारण आत्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से आत्मा की रक्षा करता है उस कारण बंध उदय और सत्तारूप अवस्था को प्राप्त कर्मों से पृथक् रहनेवाला आत्मा ही शरण है आत्मा की निष्कर्म अवस्था ही उसे जन्म जरा आदि से बचाने वाली है ॥११॥
ते वि हु चिट्ठदि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ॥12॥
अन्वयार्थ- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। चूँकि ये परमेष्ठी भी आत्मा में निवास करते हैं अर्थात् आत्मा स्वयं पंच परमेष्ठीरूप परिणमन करता है इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है ॥१२॥
चउरो चिट्ठदि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ॥13॥
अन्वयार्थ- चूँकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ये चारों भी आत्मा में स्थित हैं इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है ॥१३॥
एक्को जायदि मरदि य, तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥14॥
अन्वयार्थ- जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही दीर्घ संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही कर्म का फल भोगता है ॥१४॥
णिरयतिरिएसु जीवो, तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥15॥
अन्वयार्थ- विषयों के निमित्त तीव्र लोभ से जीव अकेला ही पाप करता है और नरक तथा तिर्यंच गति में अकेला ही उसका फल भोगता है ॥१५॥
मणुवदेवेसु जीवो, तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥16॥
अन्वयार्थ- धर्म के निमित्त पात्रदान के द्वारा जीव अकेला ही पुण्य करता है और मनुष्य तथा देवों में अकेला ही उसका फल भोगता है ॥१६॥
सम्मादिट्ठी सावय, मज्झिमपत्तो हु विण्णेओ ॥17॥
सम्मत्तरयणरहिओ, अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो ॥18॥
अन्वयार्थ- सम्यक्त्वरूप गुण से युक्त साधु को उत्तम पात्र कहा गया है, सम्यग्दृष्टि श्रावक को मध्यम पात्र जानना चाहिए, जिनागम में अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है और जो सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से रहित है वह अपात्र है। इस प्रकार पात्र और अपात्र की परीक्षा करनी चाहिए ॥१७-१८॥
सिज्झंति चरियभट्टा, दंसणभट्टा ण सिज्झंति ॥19॥
अन्वयार्थ- जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे ही भ्रष्ट हैं। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य का मोक्ष नहीं होता। जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो (पुनः चारित्र के धारण करने पर) सिद्ध हो जाते हैं, परंतु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते ॥१९॥
सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ संजदो ॥20॥
अन्वयार्थ- मैं अकेला हूँ, ममत्व से रहित हूँ, शुद्ध हूँ तथा ज्ञान-दर्शनरूप लक्षण से युक्त हूँ इसलिए शुद्ध एकत्वभाव ही उपादेय है- ग्रहण करने के योग्य है। इस प्रकार संयमी साधु को सदा विचार करते रहना चाहिए ॥२०॥
जीवस्स ण संबंधो, णियकज्जवसेण वट्टंति ॥21॥
अन्वयार्थ- माता, पिता, सगा भाई, पुत्र तथा स्त्री आदि बंधुजनों- इष्ट जनों का समूह जीव से संबंध रखने वाला नहीं है। ये सब अपने कार्य के वश साथ रहते हैं ॥२१॥
अप्पाणं ण हु सोयदि, संसारमहण्णवे बुड्ढं ॥22॥
अन्वयार्थ- यह मेरा स्वामी था, यह मर गया इस प्रकार मानता हुआ अन्य जीव अन्य जीव के प्रति शोक करता है परंतु संसाररूपी महासागर में डूबते हुए अपने आपके प्रति शोक नहीं करता ॥२२॥
णाणं दंसणमादा, एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥23॥
अन्वयार्थ- यह जो शरीरादिक बाह्य द्रव्य है वह सब मुझसे अन्य है, ज्ञान दर्शन ही आत्मा है अर्थात् ज्ञान दर्शन ही मेरे हैं। इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिंतन करो ॥२३॥
जिणमग्गमपेच्छंतो, जीवो परिभमदि चिरकालं ॥24॥
अन्वयार्थ- जिन भगवान के द्वारा प्रणीत मार्ग की प्रतीति को नहीं करता हुआ जीव, चिरकाल से जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से परिपूर्ण पाँच प्रकार के संसार में परिभ्रमण करता रहता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पाँच परिवर्तन ही पाँच प्रकार का संसार कहलाते हैं ॥२४॥
असयं अणंतखुत्तो, पुग्गलपरियट्टसंसारे ॥25॥
अन्वयार्थ- पुद्गलपरिवर्तन (द्रव्यपरिवर्तन) रूप संसार में इस जीव ने अकेले ही समस्त पुद्गलों को अनंत बार भोगकर छोड़ दिया है ॥२५॥
उग्गाहणेण बहुसो, परिभमिदो खेत्तसंसारे ॥26॥
अन्वयार्थ- समस्त लोकरूपी क्षेत्र में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह क्रम से उत्पन्न न हुआ हो। समस्त अवगाहनाओं के द्वारा इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार भ्रमण किया है ॥२६॥
जादो मुदो य बहुसो, परिभमिदो कालसंसारे ॥27॥
अन्वयार्थ- यह जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल की समस्त समयावलियों में उत्पन्न हुआ है तथा मरा है। इस तरह इसने काल संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया है ॥२७॥
मिच्छत्तसंसिदेण दु, बहुसो वि भवट्ठिदी भमिदो ॥28॥
अन्वयार्थ- मिथ्यात्व के आश्रय से इस जीव ने नरक की जघन्य आयु से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक की भवस्थिति को धारण कर अनेक बार भ्रमण किया है ॥२८॥
जीवो मिच्छत्तवसा, भमिदो पुण भावसंसारे ॥29॥
अन्वयार्थ- इस जीव ने मिथ्यात्व के वश समस्त कर्मप्रकृतियों की सब स्थितियों, सब अनुभागबंधस्थानों और सब प्रदेशबंध स्थानों को प्राप्त कर बार-बार भाव संसार में परिभ्रमण किया है ॥२९॥
परिहरदि दयादाणं, सो जीवो भमदि संसारे ॥30॥
अन्वयार्थ- जो जीव पुत्र तथा स्त्री के निमित्त पापबुद्धि से धन कमाता है और दयादान का परित्याग करता है वह संसार में भ्रमण करता है ॥३०॥
चइऊण धम्मबुद्धिं, पच्छा परिपडदि दीहसंसारे ॥31॥
अन्वयार्थ- जो जीव, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धनधान्य है इस प्रकार की तीव्र आकांक्षा से धर्मबुद्धि को छोड़ता है वह पीछे दीर्घ संसार में पड़ता है ॥३१॥
कुधम्मकुलिंगकुतित्थं, मण्णंतो भमदि संसारे ॥32॥
अन्वयार्थ- मिथ्यात्व के उदय से यह जीव जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित धर्म की निंदा करता हुआ तथा कुलिंग और कुतीर्थ को मानता हुआ संसार में भ्रमण करता है ॥३२॥
परदव्वपरकलत्तं, गहिऊण य भमदि संसारे ॥33॥
अन्वयार्थ- जीवराशि का घात कर, मधु मांस और मदिरा का सेवन कर तथा परद्रव्य और परस्त्री को ग्रहण कर यह जीव संसार में भ्रमण करता है ॥३३॥
मोहंधयारसहियो, तेण दु परिपडदि संसारे ॥34॥
अन्वयार्थ- मोहरूपी अंधकार से सहित जीव विषयों के निमित्त यत्नपूर्वक पाप करता है और उससे संसार में पड़ता है ॥३४॥
सुरणिरयतिरियचउरो, चौद्दस मणुए सदसहस्सा ॥35॥
अन्वयार्थ- नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक इन छह प्रकार के जीवों में प्रत्येक की सात सात लाख, प्रत्येक वनस्पतिकायिक की दस लाख, विकलेंद्रियों की छह लाख, देव, नारकी तथा पंचेंद्रिय तिर्यंचों में प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ हैं। इनमें संसारी जीव भ्रमण करता है ॥३५॥
संसारे भूदाणं, होदि हु माणं तहावमाणं च ॥36॥
अन्वयार्थ- संसार में जीवों को संयोग वियोग, लाभ अलाभ, सुख दुःख तथा मान अपमान प्राप्त होते हैं॥३६॥
जीवस्स ण संसारो, णिच्चयणयकम्मविम्मुक्को ॥37॥
अन्वयार्थ- कर्मों के निमित्त से यह जीव संसाररूपी भयानक वन में भ्रमण करता है, किंतु निश्चय नय से जीव कर्मों से रहित है इसलिए उसका संसार भी नहीं है ॥३७॥
संसारदुहक्कंतो, जीवो सो हेयमिति विचिंतेज्जो ॥38॥
अन्वयार्थ- संसार से छूटा हुआ जीव उपादेय है ऐसा विचार करना चाहिए और संसार के दुःखों से आक्रांत जीव छोड़ने योग्य हैं ऐसा चिंतन करना चाहिए ॥३८॥
तिविहो हवेइ लोगो, अहमज्झिमउड्ढभेएण ॥39॥
अन्वयार्थ- जीव आदि पदार्थों का जो समूह है वह लोक कहा जाता है। अधोलोक, मध्यमलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से लोक तीन प्रकार का होता है ॥३९॥
सग्गो तिसट्ठिभेओ, एत्तो उड्ढो हवे मोक्खो ॥40॥
अन्वयार्थ- नीचे नरक है, मध्य में असंख्यात द्वीपसमुद्र हैं ऊपर त्रेसठ भेदों से युक्त स्वर्ग हैं और इनके ऊपर मोक्ष है ॥४०॥
तित्तिय एक्केंकेंदियणामा उडुआदि तेसट्ठी ॥41॥
अन्वयार्थ- सौधर्म और ऐशान कल्प में इकतीस, सनत्कुमार और माहेंद्र कल्प में सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्प में चार, लांतव और कापिष्ठ कल्प में दो, शुक्र और महाशुक्र कल्प में एक, शतार और सहस्रार कल्प में एक तथा आनत प्राणत और अच्युत इन चार अंत के कल्पों में छह इस तरह सोलह कल्पों में कुल ५२ पटल हैं। इनके आगे अधोग्रैवेयक, मध्यम ग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयकों के त्रिक में प्रत्येक के तीन अर्थात् नौ ग्रैवेयकों के नौ, अनुदिशों का एक और अनुत्तर विमानों का एक पटल है। इस तरह सब मिलाकर ऋतु आदि त्रेसठ पटल हैं ॥४१॥
सुद्धेण लहइ सिद्धिं, एवं लोयं विचिंतिज्जो ॥42॥
अन्वयार्थ- अशुभोपयोग से नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है, शुभोपयोग से देव और मनुष्यगति का सुख मिलता है और शुद्धोपयोग से जीव मुक्ति को प्राप्त होता है- इस प्रकार लोक का विचार करना चाहिए ॥४२॥
किमिसंकुलेहिं भरियमचोक्खं देहं सयाकालं ॥43॥
अन्वयार्थ- यह शरीर हड्डियों से बना है, मांस से लिपटा है, चर्म से आच्छादित है, कीटसंकुलों से भरा है और सदा मलिन रहता है ॥
सडणप्पडणसहावं, देहं इदि चिंतए णिच्चं ॥44॥
अन्वयार्थ- यह शरीर दुर्गंध से युक्त है, घृणित है, गंदे मल से भरा हुआ है, अचेतन है, मूर्तिक है तथा सड़ना और गलना स्वभाव से सहित है ऐसा सदा चिंतन करना चाहिए ॥४४॥
दुग्गंधमसुचि चम्ममयमणिच्चमचेयणं पडणं ॥45॥
अन्वयार्थ- यह शरीर रस, रूधिर, मांस, चर्बी, हड्डी तथा मज्जा से युक्त है। मूत्र, पीब और कीड़ों से भरा है, दुर्गंधित है, अपवित्र है, चर्ममय है, अनित्य है, अचेतन है और पतनशील है-नश्वर है ॥४५॥
चोक्खो हवेइ अप्पा, इदि णिच्चं भावणं कुज्जा ॥46॥
अन्वयार्थ- आत्मा इस शरीर से भिन्न है, कर्मरहित है, अनंत सुखों का भंडार है तथा श्रेष्ठ है इस प्रकार निरंतर भावना करनी चाहिए ॥४६॥
पण पण चउ तिय भेदा, सम्मं परिकित्तिदा समए ॥47॥
अन्वयार्थ- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव हैं। उक्त मिथ्यात्व आदि आस्रव क्रम से पाँच, पाँच, चार और तीन भेदों से युक्त हैं। आगम में इनका अच्छी तरह वर्णन किया गया है ॥४७॥
अविरमणं हिंसादी, पंचविहो सो हवइ णियमेण ॥48॥
अन्वयार्थ- एकांत, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान यह पाँच प्रकार का मिथ्यात्व है तथा हिंसा आदि के भेद से पाँच प्रकार की अविरति नियम से होती है ॥४८॥
मण वचिकाएण पुणो, जोगो तिवियप्पमिदि जाणे ॥49॥
अन्वयार्थ- क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार प्रकार की कषाय है। तथा मन, वचन और काय के भेद से योग के तीन भेद हैं यह जानना चाहिए ॥४९॥
आहारादी सण्णा, असुहमणं इदि विजाणेहि ॥50॥
अन्वयार्थ- मन वचन काय इन तीनों योगों में से प्रत्येक योग अशुभ और शुभ के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। आहार आदि संज्ञाओं का होना अशुभ मन है ऐसा जानो ॥५०॥
ईसा विसादभावो, असुहमणं त्ति य जिणा वेंति ॥51॥
अन्वयार्थ- कृष्णादि तीन लेश्याएँ, इंद्रियजन्य सुखों में तीव्र लालसा, ईर्ष्या तथा विषादभाव अशुभ मन है ऐसा जिनेन्द्रदेव जानते हैं ॥५१॥
थूलो वा सुहुमो वा, असुहमणो त्ति य जिणा वेंति ॥52॥
अन्वयार्थ- राग, द्वेष, मोह तथा हास्यादिक नोकषायरूप परिणाम चाहे स्थूल हों चाहे सूक्ष्म, अशुभ मन है ऐसा जिनेन्द्रदेव जानते हैं ॥५२॥
बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति ॥53॥
अन्वयार्थ- भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा अशुभ वचन है ऐसा जानो। तथा बंधन, छेदन और मारणरूप जो क्रिया है वह अशुभ काय है ॥५३॥
वदसमिदिसीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे ॥54॥
अन्वयार्थ- पहले कहे हुए अशुभ भाव तथा अशुभ द्रव्य को व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणामों का होना शुभ मन है ऐसा जानो ॥५४॥
जिणदेवादिसु पूजा, सुहकायं त्ति य हवे चेट्ठा ॥55॥
अन्वयार्थ- जो वचन संसार का छेद करने में कारण है वह शुभ वचन है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। तथा जिनेन्द्रदेव आदि की पूजारूप जो चेष्टा- शरीर की प्रवृत्ति है वह शुभकाय है ॥५५॥
जीवस्स परिब्भमणं, कम्मासवकारणं होदि ॥56॥
अन्वयार्थ- अनेक दोषरूपी तरंगों से युक्त तथा दुःखरूपी जलचर जीवों से व्याप्त संसाररूपी समुद्र में जीव का जो परिभ्रमण होता है वह कर्मास्रव के कारण होता है। अर्थात् कर्मास्रव के कारण ही जीव संसारसमुद्र में परिभ्रमण करता है ॥५६॥
जं णाणवसं किरिया, मोक्खणिमित्तं परंपरया ॥57॥
अन्वयार्थ- कर्मास्रव के कारण जीव संसाररूपी भयंकर समुद्र में डूब रहा है। जो क्रिया ज्ञानवश होती है वह परंपरा से मोक्ष का कारण होती है ॥५७॥
आसवकिरिया तम्हा, मोक्खणिमित्तं ण चिंतेज्जो ॥58॥
अन्वयार्थ- आस्रव के कारण जीव संसाररूपी समुद्र में शीघ्र डूब जाता है इसलिए आस्रवरूप क्रिया मोक्ष का निमित्त नहीं है ऐसा विचार करना चाहिए ॥५८॥
संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण ॥59॥
अन्वयार्थ- परंपरा से भी आस्रवरूप क्रिया के द्वारा निर्वाण नहीं होता। आस्रव संसारगमन का ही कारण है। इसलिए निंदनीय है ऐसा जानो ॥५९॥
उहयासवणिम्मुक्कं, अप्पाणं चिंतए णिच्चं ॥60॥
अन्वयार्थ- पहले जो आस्रव के भेद कहे गये हैं वे निश्चयनय से जीव के नहीं हैं, इसलिए आत्मा को दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित ही निरंतर विचारना चाहिए ॥६०॥
मिच्छत्तासवदारणिरोहो होदि त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठं ॥61॥
अन्वयार्थ- चल, मलिन और अगाढ़ दोष को छोड़कर सम्यक्त्वरूपी दृढ़ कपाटों के द्वारा मिथ्यात्वरूपी आस्रवद्वार का निरोध हो जाता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥६१॥
कोहादि आसवाणं, दाराणि कसायरहियपल्लगेहि ॥62॥
अन्वयार्थ- पंचमहाव्रतों से युक्त मन से अविरतिरूप आस्रव का निरोध नियम से हो जाता है और क्रोधादि कषायरूप आस्रवों के द्वार कषाय के अभावरूप फाटकों से रुक जाते हैं- बंद हो जाते हैं।
सुहजोगस्स णिरोहो, सद्धुवजोगेण संभवदि ॥63॥
अन्वयार्थ- शुभयोग की प्रवृत्ति अशुभ योग का संवर करती है और शुद्धोपयोग के द्वारा शुभयोग का निरोध हो जाता है ॥६३॥
तम्हा संवरहेदू, झाणो त्ति विचिंतए णिच्चं ॥64॥
अन्वयार्थ- शुद्धोपयोग से जीव के धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान होते हैं, इसलिए ध्यान संवर का कारण है ऐसा निरंतर विचार करना चाहिए ॥६४॥
संवरभावविमुक्कं, अप्पाणं चिंतए णिच्चं ॥65॥
अन्वयार्थ- परमार्थनय-निश्चयनय से जीव के संवर नहीं है क्योंकि वह शुद्ध भाव से सहित है। अतएव आत्मा को सदा संवरभाव से रहित विचारना चाहिए ॥६५॥
जेण हवे संवरणं, तेण दु णिज्जरणमिदि जाण ॥66॥
अन्वयार्थ- बंधे हुए कर्मों का गलना निर्जरा है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। जिस कारण से संवर होता है उसी कारण से निर्जरा होती है ॥६६॥
चदुगदियाणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥67॥
अन्वयार्थ- फिर वह निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए- एक अपना उदयकाल आने पर कर्मों का स्वयं पककर झड़ जाना और दूसरी तप के द्वारा की जानेवाली। इनमें पहली निर्जरा तो चारों गतियों के जीवों की होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवों के होती है ॥६७॥
सागारणगाराणं, उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥
अन्वयार्थ- उत्तम सुख से संपन्न जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि गृहस्थों तथा मुनियों का वह धर्म क्रम से ग्यारह और दश भेदों से युक्त है तथा सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है ॥६८॥
बम्हारंभपरिग्रह, अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदेदे ॥69॥
अन्वयार्थ- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभक्तव्रत, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये देशविरत अर्थात् गृहस्थ के भेद हैं ॥६९॥
तवचागमकिंचण्हं, बम्हा इदि दसविहं होदि ॥70॥
अन्वयार्थ- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये मुनिधर्म के दश भेद हैं ॥७०॥
ण कुणदि किंचि वि कोहो, तस्स खमा होदि धम्मो त्ति ॥71॥
अन्वयार्थ- यदि क्रोध की उत्पत्ति का साक्षात् बहिरंग कारण हो फिर भी जो कुछ भी क्रोध नहीं करता उसके क्षमा धर्म होता है ॥
जो ण वि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्मं हवे तस्स ॥72॥
अन्वयार्थ- जो मुनि कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत तथा शील के विषय में कुछ भी गर्व नहीं करता उसके मार्दव धर्म होता है ॥
अज्जवधम्मं तइओ, तस्स दु संभवदि णियमेण ॥73॥
अन्वयार्थ- जो मुनि कुटिलभाव को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करता है उसके नियम से तीसरा आर्जव धर्म होता है ॥
जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मं हवे सच्चं ॥74॥
अन्वयार्थ- दूसरों को संताप करनेवाले वचन को छोड़कर जो भिक्षु स्वपरहितकारी वचन बोलता है उसके चौथा सत्यधर्म होता है ॥७४॥
जो वड्ढदि परममुणी, तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं ॥75॥
अन्वयार्थ- जो उत्कृष्ट मुनि कांक्षा भाव से निवृत्ति कर वैराग्यभाव से रहता है उससे शौचधर्म होता है ॥७५॥
परिणममाणस्स पुणो, संजमधम्मो हवे णियमा ॥76॥
अन्वयार्थ- मन वचन काय की प्रवृत्तिरूप दंड को त्यागकर तथा इंद्रियों को जीतकर जो व्रत और समितियों से पालनरूप प्रवृत्ति करता है उसके नियम से संयमधर्म होता है ॥७६॥
जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥77॥
अन्वयार्थ- विषय और कषाय के विनिग्रहरूप भाव को करके जो ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा की भावना करता है उसके नियम से तप होता है ॥७७॥
जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ॥78॥
अन्वयार्थ- जो समस्त द्रव्यों के विषय में मोह का त्याग कर तीन प्रकार के निर्वेद की भावना करता है उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥७८॥
णिद्दंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स किंचण्हं ॥79॥
अन्वयार्थ- जो मुनि निःसंग-निष्परिग्रह होकर सुख और दुःख देने वाले अपने भावों का निग्रह करता हुआ निर्द्वंद्व रहता है अर्थात् किसी इष्ट-अनिष्ट के विकल्प में नहीं पड़ता उसके आकिंचन्य धर्म होता है ॥७९॥
सो बम्हचेरभावं, सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं ॥80॥
अन्वयार्थ- जो स्त्रियों के सब अंगों को देखता हुआ उनमें खोटे भाव को छोड़ता है अर्थात् किसी प्रकार के विकार भाव को प्राप्त नहीं होता वह निश्चय से अत्यंत कठिन ब्रह्मचर्य धर्म को धारण करने के लिए समर्थ होता है ॥८०॥
सो णय वज्जदि मोक्खं, धम्मं इदि चिंतए णिच्चं ॥81॥
अन्वयार्थ- जो जीव श्रावक धर्म को छोड़कर मुनिधर्म धारण करता है वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है अर्थात् उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है इस प्रकार निरंतर धर्म का चिंतन करना चाहिए ॥८१॥
मज्झत्थभावणाए, सुद्धप्पं चिंतए णिच्चं ॥82॥
अन्वयार्थ- निश्चयनय से जीव गृहस्थधर्म और मुनिधर्म से भिन्न है इसलिए दोनों धर्मों में मध्यस्थ भावना रखते हुए निरंतर शुद्ध आत्मा का चिंतन करना चाहिए ॥८२॥
चिंता हवेइ बोहो, अच्चंतं दुल्लहं होदि ॥83॥
अन्वयार्थ- जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय की चिंता बोधि है, यह बोधि अत्यंत दुर्लभ है ॥८३॥
सगदव्वमुवादेयं, णिच्छयत्ति होदि सण्णाणं ॥84॥
अन्वयार्थ- कर्मोदय से होने वाली पर्याय होने के कारण क्षायोपशमिक ज्ञान हेय है और आत्मद्रव्य उपादेय है ऐसा निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है ॥८४॥
परदव्वं सगदव्वं, अप्पा इदि णिच्छयणएण ॥85॥
अन्वयार्थ- मिथ्यात्व को आदि लेकर असंख्यात लोकप्रमाण जो कर्मों की मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ हैं वे परद्रव्य हैं और आत्मा स्वद्रव्य है ऐसा निश्चयनय से कहा जाता है ॥८५॥
चिंतिज्जइ मुणि बोहिं, संसारविरमणट्ठे य ॥86॥
अन्वयार्थ- इस प्रकार स्वद्रव्य और परद्रव्य का चिंतन करने से हेय और उपादेय का ज्ञान हो जाता है अर्थात् परद्रव्य हेय है और स्वद्रव्य उपादेय है। निश्चयनय में हेय और उपादेय का विकल्प नहीं है। मुनि को संसार का विराम करने के लिए बोधि का विचार करना चाहिए ॥८६॥
आलोयणं समाहिं, तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥87॥
अन्वयार्थ- ये बारह अनुप्रेक्षाएँ ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि हैं इसलिए इन अनुप्रेक्षाओं की निरंतर भावना करनी चाहिए ॥८७॥
आलोयणं पकुव्वदि, जदि विज्जदि अप्पणो सत्तिं ॥88॥
अन्वयार्थ- यदि अपनी शक्ति है तो रातदिन प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि और आलोचना करनी चाहिए ॥८८॥
परिभाविऊण सम्मं, पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥89॥
अन्वयार्थ- जो पुरुष अनादिकाल से बारह अनुप्रेक्षाओं को अच्छी तरह चिंतन कर मोक्ष गये हैं मैं उन्हें बार बार प्रणाम करता हूँ॥८९॥
सिज्झिहदि जेवि भविया, तं जाणह तस्स माहप्पं ॥90॥
अन्वयार्थ- बहुत कहने से क्या लाभ है? भूतकाल में जो श्रेष्ठ पुरूष सिद्ध हुए हैं और जो भविष्यत् काल में सिद्ध होवेंगे उसे अनुप्रेक्षा का महत्व जानो ॥९०॥
जो भावइ सुद्धमणो, सो पावइ परमणिव्वाणं ॥91॥
अन्वयार्थ- इस प्रकार कुंदकुंद मुनिराज ने निश्चय और व्यवहार का आलंबन लेकर जो कहा है, शुद्ध हृदय होकर जो उसकी भावना करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त होता है ॥९१॥