बारह भावना/Barah Bhawna

बारह भावना

(दोहा)

ज्ञानमात्र शाश्वत प्रभो, समयसार अविकार ।
जनम-मरण जामें नहीं, निर्भय तत्त्व विचार ॥१॥
जग में कोई नहीं शरण, सोच तजो दुखकार |
चिन्मय ध्रुव निज शरण ले, जावे भव से पार॥२॥
कहूँ न सुख संसार में, आतम सुख की खान ।
निज आतम में लीन हो, भोगो सुख अमलान ॥३॥
उपजे विनशे परिणति, आतम है ध्रुव रूप ।
विलसे प्रतिक्षण एक सम, यह एकत्व स्वरूप ॥४॥
जहाँ न भेद विकल्प है, पर्यायें भी भिन्न ।
कर्मादिक में मोहकर, तू क्यों होवे खिन्न ||५||
अशुचि देह सों ममत तज, पावन आतम जान।
निज स्वभाव साधन करे, पहुँचे शिवपुर थान ॥६॥

(सोरठा)

सत्गुरु रहे जगाय, मूढ़ जीव तोहू न जगे ।
करे नहीं पुरुषार्थ, दोष देय नित कर्म को ||७||
ज्ञान सूर्य के जोर, ज्ञानी जन जागे सदा ।
जिनका ओर न छोर, शक्ति अनन्तों उछलती ॥८॥

(दोहा)

निज चैतन्य प्रकाश में, कर्म दिखे अति दूर ।
शुद्ध परिणति में रहे, बहता समता नीर ॥ ९ ॥
अतीन्द्रिय की शरण ही, इन्द्रिय जय कहलाय ।
व्रत समिति गुप्ति सभी, साम्यभाव पर्याय ॥१०॥
आलोकित निज लोक हो, लोकालोक दिखाय ।
तब लोकान्त सुथिर बने, चहुँगति भ्रमण मिटाय ॥११॥
धन-कन-कंचन राजसुख, पराधीन सब जान ।
सहज प्राप्त स्वाधीन नित, सुखमय आतमज्ञान ॥ १२॥

आत्मस्वभाव ही धर्म है, सम्यग्दर्शन मूल।
बाहर में क्यों ढूढ़ते, निजस्वभाव को भूल ॥

रचयिता - बाल ब्र. श्री रवींद्र जी आत्मन