कवि श्री नयनसुखदास जी कृत बारह भावना | Barah Bhavna (Poet Shri Nayan Sukh Das Ji)

माता है वैराग्य की , सब जीवन हितकार।
परमारथपद दीपिका , नमूं भावनासार।।

------अनित्य भावना-------

प्रथम अनित्य भावना भाऊँ ,
सकल सृष्टि से दृष्टि हटाऊँ।
चहुंगतिमय यह जगत असारा ,
क्षणभंगुर है धुन्ध पसारा।।

अजि " मै " चेतन चिद्रूप चिदानंद रूप।
जगत दुख कूप हमें क्या करना।।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।टेक।।

सुन जीव अरे जड़मति , भ्रम्यों चहुं गति।
रंक भूपति , सब में हलचल है।
ह्याँ सुरनर नारक तिरयग् में कलकल है।।

धन यौवन जीवन विषैं , दाँत क्यों घिसे।
हाड़ क्यों चसे , तालुआ फाटे।।
तू क्यों भ्रम भारन हेत स्वान सम चाटे।।१।।

सब सगे संगति प्यारे,हो जाएंगे तुमसे न्यारे।
ज्यों सूखे तरुवर डारे,उड़ जाए पक्षी रखवारे।।

ज्यों बिना नीर सुन वीर! न आवे तीर।
पशु बटगीर तजें सब नेहा।।
बिन स्वारथ पूछे कौन थके जब देहा।
है नदी नाव संयोग , कुटुम के लोग।
कर्म के योग से हो रहे भेले।
दिन दो इक के मेहमान हैं फेर अकेले।।
निज निज करनी अनुसारे!
चहुं गति के पंथ सिधारे।
सब थक रहे थामन हारे!
पर हो गये हमसे न्यारे।।४।।

माटी में मिलेगी देह , होएगी खेह।
इसी के नेह पड़ा दुख भरना।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।

अजि " मै " चेतन चिद्रूप चिदानंद रूप।
जगत दुख कूप हमें क्या करना।।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।टेक।।

अरे जीव ! उदय हों कष्ट भोग हो नष्ट।
इन्द्रियाँ भ्रष्ट बिखर जब जावैं।
होंगे अनंत परमाणु पता नही पावैं।
कोई देगा जमीं में दाब कोई ले चाव।
रहैं नहिं ताव, जो फेर जिलावै।
नहिं इन्द्र चन्द्र धरनेन्द्र की पार बसावैं।।५।।

क्या कोट किले रखवारे , क्या मात पिता परवारे।
सब जन्त्र मन्त्र कर हारे वैद्यों ने सिर दै मारे।।६।।

हो नष्ट धाम अरु ग्राम , पड़े रह काम।
रहै नहिं नाम चाम सड़ जावैं।
तब जाति पाति , कुल , गोत की जोत न पावें।।

सब मिटे अंक अरु वंक तथा आतंक
नही कुछ शंक रोवते दीखें।
सम्पत्ति में गावें गीत विपत्ति में झीखें।।७।।

किस किस की कहौं कहानी ,
है जगत बुदबुदा पानी।
इसकी ममता दुखदानी ,
पाथर की नाव समानी।।८।।

कहें नयनानंद सुन यार ,
तू दे धिक्कार।
सकल संसार , अनित्य स्मरण।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरण।।

अजि " मै " चेतन चिद्रूप …।।टेक।।

—अशरण भावना—

दर्शन , ज्ञान , चारित्र तप ,तथा धर्म दश सार।
हे संसारी ! ले शरण ; करो शुद्ध व्यवहार।।९।।

सम्यक् उत्तम पद अनुसारा ,
लीजे शरण शुद्ध व्यवहारा ।
निश्चय आतम शरणाहिं शरणा ,
इनसे इतर शरण नही बरणा।।१०।।
वरणों अशरण भावना ,
परमागम अनुसार।
जाको " भा " भगवत् भये ,
जगत जलधि से पार।।११।।

हे आतम ! तज पर आस , न हो पर दास।
तू शक्ति परकाश , क्यों निजपत खोई।
तू है अशरण त्रिभुवन में शरण न कोई।
तू षट तन धर धर मरा , ढूंढता फिरा।
कि है कोई धरा , सकल सुखदानी।
जग में बसकर सब कर लूं मन की मानी।।१२।।

नहिं भये मनोरथ पूरे , सब रह गये काम अधूरे।
इंद्रादि धनुर्धर सूरे , यमराज ने आ चकचूरे।।१३।।

भये तीर्थंकर से बली , तिनकी नही चली,
मौत नही टली , तो अब क्या करिये।
जिस पंथ चले भगवंत वही आचरिये।।
सब तजकर वस्त्राभरण धर्म की शरण।
से बसकर करण कुमरण मिटाले।
कर संवर सम्यक् मरण से बंध छुटाले।।१४।।

तज अशुभ निर्जरा सारी ,
चल शुभ प्रवृत्ति अनुसारी।
शुभ अशुभ को तज इक वारी ,
हो शुद्ध वरो शिव नारी।।१५।।

मै अतुल चतुष्टय बान , कहौ भगवान ,
कियौ नही ज्ञान हुआ नहिं तरणा।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।

अजि " मै " चेतन चिद्रूप चिदानंद रूप।
जगत दुख कूप हमें क्या करना।।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।टेक।।

-----संसार भावना------

करत चतुरगति में भ्रमण , बीत्यो काल अनंत।
सो संसार विसार कर , करिये शुद्ध तुरंत।।१६।।

रे मन मूढ़ विकलता धारी ,
समझावें तोहि गुरु उपकारी।
किये शुभाशुभ कारज सारे ,
स्वपर स्वरूप लखौ नहि प्यारे।।१७

काल अनादि निगोद वस ,
निकस भ्रम्यो , जग - जाल।
सो उच्छिष्ट अनंत भव ,
मत भख मूढ़ उगाल।।१८।।

मैं उगली नित्य निगोद , उदय - उपयोग।
स्वबल के योग , उछल जग आया।
कर कर भावास्रव चहुँगति में दुख पाया।
कभी पृथ्वी की धर देह , कभी भया मेह ,
जगत की खेह , मैं सड़ पड़ सूखा।
हो अग्नि जलाये , जन्तु जगत को फूंका।।१९।।

हो पवन फिरा भन्नाता,दुनिया में खाक उड़ाता।
पत्थरों में सिर टकराता,अम्बर में शोर मचाता।।२०।।

कभी भया वनस्पति थूल, साधारण फूल,
कन्द अरू मूल , साग अरू पत्ता।
कभी कली - कली भया , गलित काठ में छत्ता।
कभी कृमि पिपील भृंगार , कभी भया स्यार।
कभी झिंगार , कभी भया भैंसा।
हो खर बराह खाये अभक्ष जनम लिया जैसा।।२१।।

हो सैनी अंकुश खाये ,
चल तिस विध जिसने चलाये।
अमनस्कन में दुख पाये ,
जिन चाहा चीर बगाये।।२२।।

लिया जन्म हीन कुल बीच , करम किये नीच,
भूप ने खींच , मीच गल डारे।
कभी हुआ असुर महानीच नारकी मारे।
मैं षट्काया में रूध्या , टांकियों खुद्या ,
उँधा अरु मुधा , खिचा नेचन में।
मैं तप तपाय छिति पिट के भिचा पेंचन में।।२३।।

मैं अचल अनंत चलाये ,
जल थल वन घन प्रचलाये।
अरु वैतरणी में न्हाये ,
मल मूत्र में गोते खाये।।२४।।

मुझे दिया किसी ने छोंक , किसी ने धोंक,
किसी ने झोंक , भाड़ में ठेला।
मुझे चीर विदार सुधार तला अरु पेला।।
कस के संग कस के घसा , पंथ में पिसा,
मधु में फँसा लदा फिरा वन में।
हित अनहित देव धरम न पिछाने मन में।।२५।।

भया अंध पंगु अरु लुंञ्जा,
भया गुङ्ग बधिर अरु खञ्जा।
भया नारि नपुंसक वञ्झा ,
कुष्टी अरु नकटा गञ्जा।।२६।।

मैं परसम्पत्ति लख झुरा , कुगति में परा,
इता कुछ रूला न ठीक ठिकाना।
धारी अनंत पर्याय भरे दुख नाना।।
धिक् धिक् संसार असार जहाँ गति चार।
अनन्ते बार पड़ा दुःख भरना।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।

अजि मै चेतन चिद्रूप…टेक।।

-----एकत्व भावना—

भा ले चौथी भावना , अरे जीव एकत्व।
मत थापै बहु वस्तु में , अपनायत का स्वत्व।।२७।।

जनमत जीव अकेलहि आवैं ,
मरत शरीर पड़ा मुख बावैं।
सब सम्पत्ति तज जाय अकेला ,
बिछुड़ जाय सब बांधव मेला।।२८।।

तीन लोक तिहुँ काल में ,ज्ञान दृष्टि कर जोय।
धर्म संगाती जीव का , और न साथी कोय।।२९।।

अरे इक इक भव मंझार अनन्तीवार
किये सब लार अठारह नाते।
तैं लिया दिया किय सब कुछ पार बसाते।।
जब मरण किसी का आय,तू पच पच धाय,
तेरी सब माया काम नहि आई,
तू मरा वहाँ कहुँ किसकी पार बसाई।।३०।।

जब सुगति कुगति जा भोगी ,
भया इष्ट अनिष्ट संयोगी।
वहाँ पहुँचा कौन नियोगी ,
तेरे बदले विपदा भोगी।।३१।।

तू दुर्गति में जा पड़ा सागरों सड़ा
मिला - जिन - गढ़ा महादुख दीनें।
तहां वचन अगोचर दुःख सहे इस जी ने।।
तेरे सप्त व्यसन के यार जो करते प्यार
नरक में डार पकड़ गये रस्ता।
सब भज गये मीर वजीर बांध कर बस्ता।।३२।।

कोई पास वकील न आया ,
जिन कुमति कानून सिखाया।
मैं परा दीन दुख पाया ,
नहिं किनहूं आन छुड़ाया।।३३।।

तेरे गये कटक , सब गये सटक ,
माल गये गटक , रहे तुम अटक ,
कठिन भया तरना।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।

अजि मै चेतन चिद्रूप , चिदानंद रूप
जगत दुःखकूप , हमें क्या करना
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा ।।टेक।।

----अन्यत्व भावना----

निज तें अन्य विचार सब , सब तें अन्य निजत्व।
भाय भावना पंचमी , अरे जीव अन्यत्व।।३४।।

ज्यों तिल तैल घीऊ दधिकेरा ।
वन्हि वस इक क्षेत्र बसेरा ।
यद्यपि एकमेक प्रतिभासै ।
तदपि जतन कर सुबुधि निकासे।।३५।।

त्यों जड़ चेतन उरझ लखि ,
सुरझ निकस भए भिन्न ।
ते शिव जात बता गये ,
जीव अन्य सब अन्य ।।३६।।

मत पर में आपा गिने तुझे जिन कहें
न करता बनें अरे " मन " भाई ।
कर्ता अरु कर्म की क्रिया नरक ले जाई।।
तुम त्रिविध कर्म से भिन्न सभी से अन्य
उपाय न अन्य भावना भालो।
तज सब परत्व अपरत्व से पिंड छुटा लो।।३७।।

अब सुनले इनकी भाषा ,
’ मै ’ करदूँ अर्थ खुलासा।
तैं जिस तन में किए वासा ,
जड़ तू ’ चेतन ’ खासा।।

तो अन्य वस्तु की बात , कहा सुन भ्रात ,
जगत विख्यात पराई माया ।
क्यों मेरी मेरी करै , किसने बहकाया।
अरे कभी तू हिंसा करै , असत् उच्चरै ,
तू परधन हरै , छले पर - नारी ।
क्यों बांधै पोट परिग्रह पापाचारी।।३८।।

यदि कहे तू जग है मेरा ,
कहो क्या स्वरूप है तेरा।
यदि कहै मुझे नही व्यौरा ,
तेरे भया हिय अंधेरा।।३९।।

जो है उभरण का चाव , परत्व हटाव ,
सुभाव में आव , निजत्व स्मरणा ।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।

अजि " मै " चेतन चिद्रूप चिदानंद रूप।
जगत दुख कूप हमें क्या करना।।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।टेक।।

----अशुचि भावना----

अशुचि अंग के संग कर ,अशुचि भये अज्ञान ।
सो अशौचता शोधिये , ज्यों शोधी भगवान ।।४०।।

रे बहिरातम निज घर आजा ।
बहुत फिरा निज माहिं समाजा ।।
परमातम गुण असल चितारो ।
फिर स्वातम की ज्योति उजारो ।।४१।।

शोधत शोधत आत्मा , हो परमातम रूप ।
शुद्ध होय जग जालतें , निकस होय शिव भूप ।।४२।।

हैं परमातम अरहंत , सिद्ध भगवंत ,
परम अकलंक , सकल निष्कल दो।
द्रव्यार्थिक नय कर , तद्धत निज लख इक जो।।
दुरध्यान की तज दे विकल , अगर है अकल ,
असल अरु नकल को दिल में रचा ले ,
सांचे में धर सांचे से जांच जचाले।।४३।।

अब बात घनी मत खोदो , तुम इंद्री पाँच निरोधो।
षटमास ह्रदय में शोधो , हो निश्चय प्रापत दो दो।।४४।।

तू करले आप्त स्वरूप , सेवा शिव भूप से ,
आतम रूप के गुण संघर्षण ,
हो निश्चय परमातम , आतम का दर्शन।।
है समयसार में साख , तू निश्चय राख ,
कहै कोई लाख , अरे जगवासी ,
कहें कुन्दकुन्द तू हो षट मास उदासी।।४५।।

बिन ज्ञान ध्यान तन तेरा , है चाण्डाल का डेरा।
जिसने भीतर से हेरा , उन थू थू कर मुँह फेरा।।४६।।

मल मूत्र माँस का घड़ा , रात दिन सड़ा ,
तुझे नित पड़ा , उठाकर धरना ।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।

अजि " मै " चेतन चिद्रूप चिदानंद रूप।
जगत दुख कूप हमें क्या करना।।
अब लिया सिद्ध परमेष्ठि तुम्हारा शरणा।।टेक।।

------आस्रव भावना------

भाऊँ आस्रव भावना ,
जो भावें भगवान।
सो भावो अज्ञान तज ,
ज्यों पावो विज्ञान।।४७।।

जहँ त्रियोग की चपलता ,
तहाँ शुभाशुभ दोय।
करमन का आस्रव रहे ,
बन्ध बढावै सोय।।४८।।

जिन कारण जारी रहै ,
कर्मास्रव का श्रोत।
तिनको कारण मूल है ,
मिथ्या भाव उद्योत।।४९।।

वस्तु दोय मुख एक हमारा।
मिथ्या भावरु आस्रव प्यारा।।
द्रव्यार्थिक नय कर जड़ जाती।
दोउ हैं चेतन के घाती।।५०।।

युगपत ही उत्पत्ति जिन गाई।
वचन द्वार वरणी नहिंं जाई।
क्रम वरती है वचन हमारा।
अवचनीय जिन गोचर प्यारा।।५१।।

तिनको मनन करें मुनि ध्यानी।
सो आस्रव भावना बखानी।
भावें मुनि आगम अनुकूला।
त्यों तू भाय फिरै मत भूला।।५२।।

भावन में चिंतवन करो ,
आस्रव मूल मिथ्यात्व।
मिथ्या पोषक भाव फिर ,
ढूंढत जो इक साथ।।५३।।

लब्धिसार अनुसार , अरे मन ,
बात मेरी सुनना चाहिए ।
मिथ्या पोषक , दोष हैं ,
पच्चीस सो गुनना चाहिए ।।टेक।।

सम्यक् के हैं शत्रु मूढत्रिक ,
तज वसुमद निर्मद विचरो।
शंकादिक मल आठ तज ,
षट् अनायतन में न परो।।५४।।

तीन प्रकृति दर्शन मोहिनी की ,
मिथ्या तन है ; तिनसे न डरो।
करें मिथ्याती बिगाड़े ,
शुद्ध दृष्टि सो बेग हरी।।५५।।

पहली है मिथ्यात्व ,
दूसरी सम्यक् मिथ्यातन उचरो।
तथा तीसरी सम्यक् ,
महा - मल की बदरो।।५६।।

पुनि चतुष्क चारित्र मोह की ,
अनंतानुबंधी चतुरो।
क्रोध,मान,छल,लोभ अरु ,
विध्नकरन हारी हैं नरो!।।५७।।

दोष पचीस लगा इनके संग ,
प्रथम नाक सबकी कतरो ।
मूड़ मूड़ के चढ़ा दो खर पै ,
कुछ संशय न करो।।५८।।

काला मुख इनका करके ,
दो जगत निकाला ध्यान धरो।
उपशम सम्यक् तथा क्षय ,
उपशम क्षायक पंथ परो।।५९।।

अरे जीव मिथ्या भावस्रव तज ,
निजगुण चुनना चाहिए।
मिथ्या पोषक , दोष हैं ,
पच्चीस सो गुनना चाहिए।
लब्धिसार अनुसार,अरे मन,
बात मेरी सुनना चाहिए।।टेक।।

----संवर भावना-----

अब सुन अष्टम भावना , संवर शर्म्म निधान।
भाकर आस्रव स्रोत में , ठोकौ डाट समान।।६१।।

अरे जीव कर अशुभ निवृत्ति ।
फिर तू कर शुभ माहि प्रवृत्ती।।
फेर शुभाशुभ कर्म निवारो ।
सो संवर भगवान उचारो।।६२

तहां भाव ऐसे धरो , कर्म वेदनी जन्य।
पुण्य पाप दो पुत्र हैं , 'अहम् ’ अन्य ये अन्य।।६३।।

मैं पर सुत निज सुत सम पोखे।
इन दुष्टन मोय दिये बहु धोखे।।
कर कर पाप एक ’ मै ’ पाला।
तिन मोह अकट बंध में डाला।।६४।।

सागरान् जल अन्न निवारो।
नाना भांति कष्ट दे मारो।।६५।।

ताड़न तापन शूल दिखाये।
छेद भेद दुरवचन सुनाये।।६६।।

वचन अगोचर उन दुख दीने।
परवस होय सहे सब ’ जी ’ ने।।६७।।

चार लाख गति नर्क मंझारा।
भुगताई जब तब बहुबारा।।६८।।

फेर मोह वस में उर लायो।
इन मुझ पशु गति में भरमायो।।६९।।

बासठ लाख कुगति दिखलाई।
खाई पाप कपूत कमाई।।७०।।

थिति पूरी कर जब तब आयो।
पुण्य सपूत जान हर्षायों।।७१।।

तिन चौदह लाख मनुगति मूकौ।
दै दै दुःख नानाविधि फूंकौ।।७२।।

अंध पंगु गंजा कर त्राया।
गुंग बधिर हरि सपरस नासा।।७३।।

बाल वृद्ध निर्धन कर दीना।
इष्ट अनिष्ट मिलाप सु कीना।।७४।।

सप्त व्यसन कर कियो कलंकी।
नारि नपुंसक अधम असंगी।।७५।।

जोगी भोगी मूरख ज्ञानी।
राव रंक सेवक अभिमानी।।७६।।

जपी तपी दाता जगनामी।
कुगुरू कुदेव कुमति अनुगामी।।७७।।

अंतिम ग्रीवक लों पहुँचाओ।
हीन अधिक सुख दे ललचायो।।७८।।

बार - अनंत - अनंत - घनेरे।
चार लाख ’ सुर - गति ’ के फेरे।।७९।।

करवाये - चाण्डाल - भकाके।
गिनूँ कहाँ लगि तिनके साके।।८०।।

चौरासी लख योनि मझारा।
दोनों मिल संकट में डारा।।८१।।

पञ्च परावर्तन करवाये।
हा हा कर्म्मनि नाच नचाये।।८२।।

बिना दोष हमको दुख दीनो।
कहुं इनको हमने कह छीनो।।८३।।

मुख नासा द्रग श्रोत मुदाये।
नित्य निगोद पटक दुख पाये।।८४।।

अति अबध्य को बध किया ,
बिना दोष दुख दीन।
हा हा ए बिध निर्दई ,
हते तुण्ड कर दीन।।८५।।

मैं बालक , पागल परमादि।
अपर्याप्त लघु जन्म अनादि।।८६।।

द्रव्य कर्म बस अवस विचारा।
अति अशक्त था जन्म हमारा।।८७।।

प्रति स्वास जन्म ठारा धराय।
जो विपत सही कछु कहि न जाय।
अक्षर स्वभाव थौ मोर खास।
दुख सहो तदपि न भयौ विनास।।८८।।

अक्षर को अक्षय अर्थ जान।
है नाम भेद पर एक मान।
है जीव तत्व ‘अक्षर’ अनूप।
सो चेतन केवल एक रूप।।८९।।

परिपूर्ण अक्षय लब्धिवान।
सो तौं अरहत् अरु सिद्ध जान।
क्षय रूप सकल संसार बीच।
सब जन्तु रहे , फँस कर्म कीच।।९०।।

लग रहे घातिया कर्म साथ ।
तिन कीनो चेतन ज्ञान घात।
सब तें लघु ज्ञान दशा हमार।
कछु कियौ न कर्मन को बिगार।।९१।।

जिसको स्वभाव जो होय मीत।
सो नष्ट होय नहिं जगत रीत।
मोह काल लब्धि दीनों उछार।
उपयोगी लक्षण के अधार।।९२।।

आय पड़ा व्यवहार मँझारे।
इष्ट अनिष्ट पदार्थ निहारे।
जो नोकर्म कहे जिनवानी।
तिन्हे देख भये भाव अज्ञानी।।९३।।

सो शठ भाव कर्म कहलाये।
इन तीनों शुभ अशुभ कराये।
ताते पुण्य पाप किये भारी।
तिनते भये दो आस्रव जारी।।९४।।

यद्यपि शुभाशुभ मन वचन , काय योग चपलाय।
मैं लीनों मिथ्यात्व बस , आस्रव द्वार बनाय।।९५।।

तदपि युगल बदन के जाये।
इन दुष्टन आस्रव करवाये।।९६।।

ताते आस्रव आड़ लगाऊँ।
संवर की दृढ़ डाट अड़ाऊँ।।९७।।

तो यह कर्म रूकें दुख दाता।
धर चारित्र लहों सुख साता।।९८।।

मैं चेतन यह जड़ अधिकारी।
मेरी इनकी कैसी यारी।।९९।।

सिद्ध समान स्वरूप हमारा।
" ओंकार " अक्षर अनुसारा।।१००।।

मैं आनंद मूर्ति गति ज्ञानी।
ये आकुलता सहित अज्ञानी।।१०१।।

मैं तो अजर अमर पदधारी।
ये जर मरण सहित सविकारी।।१०२।।

मैं करूणा में परम पुनीता।
ये हिंसक अति अधम अनीता।।१०३।।

इत्यादिक परिणाम कर ,दर्शन ज्ञान चरित्र।
पालें ते टालें सकल , आस्रव होय पवित्र।।१०४।।

एक घड़ी आधी घड़ी रे , जिय तजि सब धंध।
संवर भावना भाइये , बढ़े न फिर ज्यों बंध।।१०५।।

नैन चैन जिन बैन सुन , बाल बुद्धि अनुसार।
कथन कांधना नगर मैं , कियो स्वपर हितकार।।१०६।।

दो सहस माहिं पचपन विसार ,
सित भादव दशमी शुक्रवार।
हम भाये संवर भाव तोय।
याही में मन लवलीन होय।।१०७।।

सुथिर होय संसार में , जिन शासन जयवंत।
जो डूबत भव भँवर में , बाँह गहै जग जन्तु।।१०८।।

Audio of first six भावना
छन्द 1-46
(आ. बा. ब्र. श्री सुमत प्रकाश जी)

-to be continued

16 Likes

Audio is from 1 to 46 chhand only.

Corrected. Thanks.
Can you sing the entire bhavna and upload here?