बारह भावना | निज स्वभाव की दृष्टि धर बारह भावन भाय | Barah Bhavna Nij Swabhav ki drishti dhar

बारह भावना

            (दोहा)

निज स्वभाव की दृष्टि धर, बारह भावन भाय ।
माता है वैराग्य की, चिन्तत सुख प्रकटाय ॥

           अनित्य भावना

मैं आत्मा नित्य स्वभावी हूँ, ना क्षणिक पदार्थों से नाता ।
संयोग शरीर कर्म रागादिक, क्षणभंगुर जानो भ्राता ॥
इनका विश्वास नहीं चेतन, अब तो निज की पहिचान करो।
निज ध्रुव स्वभाव के आश्रय से ही, जन्मजरामृत रोग हरो ॥

              अशरण भावना

जो पाप बन्ध के हैं निमित्त, वे लौकिक जन तो शरण नहीं।
पर सच्चे देव शास्त्र - गुरु भी, अवलम्बन हैं व्यवहार सही ॥
निश्चय से वे भी भिन्न अहो ! उन सम निज लक्ष्य करो आत्मन् ।
निज शाश्वत ज्ञायक ध्रुव स्वभाव ही, एक मात्र है अवलम्बन ॥

संसार भावना

ये बाह्य लोक संसार नहीं, ये तो मुझ सम सत् द्रव्य अरे ।
नहिं किसी ने मुझको दुःख दिया, नहिं कोई मुझको सुखी करे |
निज मोह राग अरु द्वेष भाव से, दुख अनुभूति की अबतक ।
अतएव भाव संसार तजूँ, अरु भोगूँ सच्चा सुख अविचल ॥

            एकत्व भावना

मैं एक शुद्ध निर्मल अखण्ड, पर से न हुआ एकत्व कभी ।
जिनको निज मान लिया मैंने, वे भी तो पर प्रत्यक्ष सभी ॥
नहीं स्व-स्वामी सम्बन्ध बने, माना वह भूल रही मेरी ।
निज में एकत्व मान कर के, अब मेटूंगा भव-भव फेरी ॥

               अन्यत्व भावना

जो भिन्न चतुष्टय वाले हैं, अत्यन्ताभाव सदा उनमें ।
गुण पर्यय में अन्यत्व अरे, प्रदेशभेद नहिं है जिनमें ॥
इस सम्बन्धी विपरीत मान्यता से, संसार बढ़ाया है।
निज तत्त्व समझ में आने से, समरस निज में ही पाया है ॥

                   अशुचि भावना

है ज्ञानदेह पावन मेरी, जड़देह राग के योग्य नहीं ।
यह तो मलमय मल से उपजी, मल तो सुखदायी कभी नहीं ॥
भो आत्मन् श्री गुरु ने रागादिक को अशुचि अपवित्र कहा ।
अब इनसे भिन्न परम पावन, निज ज्ञानस्वरूप निहार अहा ॥

                  आस्रव भावना

मिथ्यात्व कषाय योग द्वारा, कर्मों को नित्य बुलाया है।
शुभ-अशुभभावक्रिया द्वारा, नित दुख का जाल बिछाया है ॥
पिछले कर्मोदय में जुड़कर, कर्मों को ही छोड़ा बाँधा ।
ना ज्ञाता - दृष्टा मात्र रहा, अब तक शिवमार्ग नहीं साधा ॥

               संवर भावना

मिथ्यात्व अभी सत् श्रद्धा से, व्रत से अविरति का नाश करूँ।
मैं सावधान निज में रहकर, निः कषाय भाव उद्योत करूँ ।
शुभ-अशुभ योग से भिन्न, आत्म में निष्कम्पित हो जाऊँगा ।
संवरमय ज्ञायक आश्रय कर, नव कर्म नहीं अपनाऊँगा ।

             निर्जरा भावना

नव आस्रव पूर्वक कर्म तजे, इससे बन्धन न नष्ट हुआ ।
अब कर्मोदय को ना देखूँ, ज्ञानी से यही विवेक मिला ।
इच्छा उत्पन्न नहीं होवें, बस कर्म स्वयं झड़ जावेंगे।
जब किञ्चित् नहीं विभाव रहें, गुण स्वयं प्रगट हो जावेंगे ॥

               लोक भावना

परिवर्तन पंच अनेक किये, सम्पूर्ण लोक में भ्रमण किया ।
ना कोई क्षेत्र रहा ऐसा, जिस पर ना हमने जन्म लिया ॥
नरकों स्वर्गों में घूम चुका, अतएव आश सबकी छोडूं ।
लोकाग्र शिखर पर थिर होऊँ, बस निज में ही निज को जोडूं ॥

          बोधिदुर्लभ भावना

सामग्री सभी सुलभ जग में, बहुबार मिली छूटी मुझसे ।
कल्याणमूल रत्नत्रय परिणति, अब तक दूर रही मुझसे ॥
इसलिए न सुख का लेश मिला, पर में चिरकाल गँवाया है।
सद् बोधिहेतु पुरुषार्थ करूँ, अब उत्तम अवसर पाया है ।।

             धर्म भावना

शुभ-अशुभ कषायों रहित होय, सम्यक्चारित्र प्रगटाऊँगा ।
बस निज स्वभाव साधन द्वारा, निर्मल अनर्घ्यपद पाऊँगा ॥
माला तो बहुत जपी अबतक, अब निज में निज का ध्यान धरूँ ।
कारण परमात्मा अब भी हूँ, पर्यय में प्रभुता प्रकट करूँ ।

                (दोहा)

ध्रुव स्वभाव सुखरूप है, उसको ध्याऊँ आज
दुखमय राग विनष्ट हो, पाऊँ सिद्ध समाज |

रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: वैराग्य पाठ संग्रह

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