बारह भावना- एक अनुशीलन| Barah Bhavna Class

रचियता - डॉ. श्री हुकुमचंद जी भारिल्ल

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  • प्रश्न
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मंगलाचरण:

मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ ॥
इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है।
धुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥

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  • अनुप्रेक्षा: भावना
  • दुनिया में सब कुछ सुलभ है, एक सम्यक ज्ञान ही दुर्लभ है |
  • ध्रुवधाम की आराधना ही आराधना का सार है |

बारह भावना पढ़ने से लाभ :

  • इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग में शांत करने वाली
  • विषय- कषायों से विरक्त
  • धर्म से अनुरक्त रखने वाली
  • जीवन के मोह और मृत्यु के भय को क्षीण करने वाली
  • विपत्तियों(प्रतिकूलताओं) में धैर्य एवं संपत्तियों(अनुकूलताओं) में विनम्रता प्रदान करने वाली
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  • स्वामी कार्तिकेय ने बारह भावनाओं को भव्यों के आनंद की जननी कहा है |
  • आचार्य कुंदकुंद देव इन्हे साक्षात् मुक्ति का कारण बताते हैं |
  • भूतकाल में जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और भविष्य में जितने होंगे- वे सब बारह भावनाओं के माहात्म्य से हुए हैं और होंगे |
  • आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं की महान पुरुषों को भावनाओ का चिंतन हमेशा करना चाहिए | क्यूंकि ये भावना कर्मो के क्षय का कारण हैं |
  • शुभचन्द्राचार्य ने लिखा है- " इन बारह भावनाओ के अभ्यास से जीवों की कषायें शांत हो जाती हैं, राग गल जाता है, अंधकार मिट जाता है और ज्ञान रूपी दीपक विकसित होता है |
  • पंडित श्री दौलतरामजी बारह भावनाओ को वैराग्य की जननी बताते हैं |
  • जो संसार शरीर भोगों को भाव न दे, वो सच्ची भावना है।
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  • अनित्य भावना में क्षणभंगुरता बताई है |
  • अशरण भावना में संयोग का वियोग होना बताया है |
  • संसार भावना में संयोगो में दुःख नहीं है ऐसा बताया है |
  • एकत्व भावना में दुःख को अकेले भोगना पड़ेगा ऐसा दृढ़ किया है |
  • अन्यत्व भावना में नास्ति से ऐसा बताया है की कुटुम्वीजन साथ नहीं देंगे |
  • अशुचि भावना में देह से वैराग्य उत्त्पन्न करवाया है | वह देह अत्यंत मलिन है |
  • आश्रव भावना में आत्मा में उत्पन्न मिथ्यात्व आदि कषायों का स्वरुप समझाया है |
  • संवर निर्जरा तत्त्वों का परिज्ञान करते हैं |
  • लोक भावना में लोक का स्वरुप बताते हैं |
  • बोधिदुर्लभ भावना में रत्नत्रय को दुर्लभ बताते हैं |
  • धर्म भावना में रत्नत्रय की आराधना ही इस मनुष्य भव का सार है ऐसा बताते हैं |

  • पहले शरीर आदि को भला जानते थे फिर अनित्य आदि जानने के बाद उनसे द्वेष करने लगे | किन्तु बारह भावनाओ के चिंतन का सच्चा फल तो वीतरागता है |

  • आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कहते हैं -
    "अनित्यादि चिंतवन से शरीरादि को बुरा जान, हितकारी न जान कर उनसे उदास होना; उसका नाम अनुप्रेक्षा (अज्ञानी) कहता है । सो यह तो जैसे कोई मित्र था, तब उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ। उसीप्रकार शरीरादिक से राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोक कर उदासीन हुआ, परन्तु ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है।
    अपना और शरीरादिक का जहाँ-जैसा स्वभाव है, वैसा पहिचान कर, भ्रम को मिटाकर, भला जानकर राग नहीं करना और बुरा जानकर द्वेष नहीं करनाऐसी सच्ची उदासीनता के अर्थ यथार्थ अनित्यत्वादिक का चिंतवन करना ही | सच्ची अनुप्रेक्षा है।’’

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अनित्य भावना

  • अनित्यपने से दृष्टि हटा कर नित्य पर दृष्टि लाना है |

  • बारह भावना मतलब रोना नहीं | चिंतन करना |

  • सब संयोग सूर्योदय के समय होने वाली स्वर्णिम छठा के जैसे हैं |

  • पुण्य से मिली हुई भोग सामग्री कमल के पत्तो पर पड़ी ओस जैसी है |

  • यह यौवन अंजुली में जल के सामान क्षीण होता है रहा है | और बूढ़ापा नजदीक आरहा है |

  • मृत्यु पास आरही है फिर भी विषयों की तृष्णा जवान होती जा रही है |

  • यह आत्मा कभी मरण को प्राप्त नहीं होगा | यह दुःख रूपी पर्याय क्षणभंगुर हैं | फिर किस बात का भय ?

  • वास्तविकता में तो आत्मा की आराधना से विमुख ये जो पर्याय है वो ही संसार है |

  • निज भगवान आत्मा की आराधना ही वास्तविक में इस आराधना का सार है |

  • जब अनित्यता से दृष्टि हट कर नित्य भगवान आत्मा पर गयी तब ही सच्ची अनित्य भावना है |

  • वस्तु का स्वरुप नित्यानित्यात्मक है | द्रव्य अपेक्षा से वो नित्य है, पर्याय अपेक्षा से अनित्य है |

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  • संयोगी पर्यायांश: अनित्य
  • असंयोगी द्रव्यांश: नित्य
  • आत्मा का स्वाभाव तो नित्य-अनित्य दोनों है, फिर सिर्फ नित्य पर दृष्टि क्यों करें ?
    छद्मस्थ जीव भेद को देख कर पर्याय में राग-द्वेष करता है | वस्तु में भला-बुरा मानना ही दुःख का मूल है |
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एक मुख्य बिंदु जो क्लास के अंत में आया :

“भ्रम जनित दुख को मिटाने का उपाय भ्रम दूर करना ही है” इसमें आदरणीय बड़े पंडित जी ने कहा कि भ्रम जनित दुःख भ्रमरूप नही है। वो दुख असलियत है और दुखदायी है। यदि उसको भी भ्रमरूप मान लिया तो फिर दुख को दूर करने का उपाय ही कोई क्यों करेगा!

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दिनाँक 16.02.2019

  • ’अर्पितानर्पित सिद्धे :’ – इस सूत्र के हिसाब से जहाँ अनित्य भावना के कथन में संयोगों की अनित्यता पर दृष्टि कराई (अर्पित) वहाँ पर अपने स्वभाव की नित्यता का भी बोध करना (नित्यता) । तभी अनित्य भावना का सच्चा चिंतन होगा।

  • समयसार गाथा-7 भावार्थ (पं. जयचंदजी छाबड़ा)

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दिनाँक 17.02.2019

  • संयोगों व पर्यायों का स्वभाव ही क्षणिक है। इसलिए उनके बिछड़ने पर द्वेष नहीं करना चाहिए अपितु इस वस्तुस्वरूप को पहचानकर भेदविज्ञान एवं अनित्यता की भावना को प्रबल करना चाहिए।

  • संयोगों की क्षणभंगुरता को आपत्ति के रूप में नहीं, अपितु संपत्ति के रूप में प्रसन्नचित्त से स्वागत करें।

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