बारह भावना | Barah Bhaavnaa

बारह भावना

(हरिगीतिका)

यह भावना माँ की तरह जनती शिशु वैराग्य को |

यह वायु सम भड़कात निज सुख, बढ़ावे निज भाग्य को ||

चिंतन यही चैतन्य का, है चेतना निज भाव की |

यह दुखमयी संसार में, नाविक है मुक्ति नाव की ||

(अनित्य भावना)

(सवैया इकतीसा)

नित्य अरु अनित्य स्वभाव दोनों वस्तु में हैं,

अनित्य भी नित्य के समान ही तो नित्य हैं ||

दोनों भाव शत - प्रतिशत रूप राजत हैं,

दोनों का ही चिंतन अनित्य का औचित्य है ||

मरण में भय नाहिं, जीवन में आनंद है,

मौत आये जब आये स्वागत आतिथ्य है ||

जीवन आनंद मय तनिक न शोक भय,

होगी सारथक तभी भावना अनित्य है ||

(अशरण भावना)

(सवैया इकतीसा)

जब एक द्रव्य अन्य द्रव्य में न करे कछु,

एक द्रव्य अन्य को सरन कैसे दियो है ||

सभी द्रव्य नंत- नंत गुणों से हैं परिपूर्ण,

अन्य के शरण बिनु स्वतंत्र ही जियो है ||

मेरे सिवा मेरो कोई जग में सहाय नाहिं ,

पर को सहाय मान, विष काय पीयो है ||

पञ्च गुरु शुद्धातम सरन ये दोय बस,

अशरण भावना ने सुख मंत्र दियो है ||

(संसार भावना)

(मानव)

पर में करने धरने की, ही बुद्धि तो दुखदायी |

भव वृक्ष बीज का कारण, प्रतिपल चेतन को खाती ||

भव पर्यय एक समय की, यह जान तजें, सुख पावें |

संसार भावना भाकर, हम मुक्ति वधु को व्याहें ||

(सवैया इकतीसा)

मैं हूँ पर, पर मेरा, करता मैं पर का हूँ,

भोगता मैं पर को- ये भाव तो संसार है ||

पर में ये चार बुद्धि- मिथ्यात की आन बान,

ये ही मात्र जीव के संसार का आधार है ||

ज्ञानी जीव अपने को पर से ही भिन्न मान,

स्वातमा को जानना ही, भव का किनार है ||

निज में ही रम जम, शिव सुख पावें हम,

यही भाव संसार की भावना का सार है ||

(एकत्व भावना)

(सवैया इकतीसा)

अकेला ही जीव, पर गंध से रहित जान,

निज सुख-दुःख, जीव एकाकी ही भोगता ||

देत नहीं कोई साथ, नाहिं कोई बाँट हाथ,

अपने ही भाग्य ही का दाना बस चोगता ||

देह से भी राग नहिं ज्ञानी जीव रहे; जैसे

बंदीगृह बंधन में बंदी दुःख भोगता ||

एकत्व की आराधना यदि कोई करता है,

तभी वह नन्तानंत आनंद को भोगता ||

(अन्यत्व भावना)

(वीर)

नीर और पय रहते जैसे देह आतमा बस वैसे |

किन्तु भिन्न हैं दोनों जानें, हंस समान सुभट वैसे ||

जब यह देह भिन्न है तो परिवार जनों की बात नहीं |

निज आतम में लीन रहें -अन्यत्व भावना जान वही ||

(दोहा)

हैं स्वतंत्र सब वस्तुएं, भिन्न भिन्न विलसाय |

ऐसा चितवन जब करें, मुक्ति जलज खिल जाय ||

(अशुचि भावना)

(रोला)

कोले को धो-धोकर भी वह स्वच्छ न होता,

वैसे ही यह देह खून, मल- मैल का थोथा ||

किसी विधि से कभी नहीं यह निर्मल होवे,

मूर्ख व्यर्थ में समय, शक्ति अरु पौरुष खोवे ||

जान देह को अशुचि; आत्म को जानूं निर्मल,

स्वच्छ करूं पर्यायों को, वे बनें सुनिर्मल ||

ऐसी सुखमय मोक्ष देय यह अशुचि भावना,

भाकर वापस कभी भवों में नहीं आवना ||

(आस्रव भावना)

(कुण्डलिया)

दुखमय आस्रव को तजें, आत्म स्वरुप निहार |

चतुर्गति में भ्रमण तज, पाएं सौख्य अपार ||

पाएं सौख्य अपार मात्र इक शुद्ध भाव से,

तजकर ज्वाला अशुभ भाव की भक्तिभाव से |

तथा शुभास्रव को भी तज, पावें शिव सुखमय,

आस्रव भावन भाय तजें आस्रव ये दुखमय ||

(संवर भावना)

(मानव)

ले स्वातम का अवलंबन, ये आस्रव सभी रुकेंगे |

वृद्धी शुद्धी की होगी, जब अपने में ही झुकेंगे ||

आत्मानुभूति है संवर, अरु भेदज्ञान है संवर |

शुद्धात्म तत्व उपलब्धि, है यही भावना संवर ||

(निर्जरा भावना)

(हरिगीतिका)

निज मैं रमें, निज में जमें, निज आतमा में ही लगें |

तब स्वयं ही सब कर्म जर-जर कर स्वयं से ही भगें ||

इस वीतरागी भाव रुपी सुख सदा उर धारना |

विचरन करें निज आतमा में यही निर्जर भावना ||

(लोक भावना)

(हरिगीतिका)

है राजु चौदह लोक यह, है सहज इसकी व्यवस्था |

षट द्रव्य मिलकर के रहें पर नहीं बिगड़े व्यवस्था ||

भ्रम कूप से ही भ्रमें हम इस लोक में ही भटकते |

निज आत्म के श्रद्धान बिन भव लोक में ही अटकते ||

षट द्रव्य मय इस लोक में निज आतमा ही सार है |

रे! अन्य सब कुछ भिन्न हैं, मेरे लिये निस्सार हैं ||

घन सिन्धु सम इस लोक में बस एक ही की भावना |

विचरें अनन्तानन्द सुख में, फिर न भव में आवना ||

(बोधिदुर्लभ भावना)

(हरिगीतिका)

दुर्लभ ये नर पर्याय, उत्तम वास भी दुर्लभ महाँ |

सामर्थ्य इन्द्रिय, पूर्ण आयु, उच्चकुल भी सुलभ ना ||

ये संगती सु, निरोग काया, प्रयोजन भी धरम का |

ये प्राप्त होना महा दुर्लभ; उदय है शुभ करम का ||

संयोग सुलभ सभी मिले पर बोधि की कोशिश न की |

अब चेत होकर, सुन, समझकर, कषायें सब हीन की ||

जब बोधि की प्राप्ति करें, जग कीच की हो चाव ना |

है यही समकित की धरा, यह बोधि दुर्लभ भावना ||

(धर्म भावना)

(हरिगीतिका)

रे! धर्म मय जीवन बनें, है भावना बस एक ही |

निज आतमा की साधना, यह धर्म है बस एक ही ||

यह धर्म ही वह मित्र है, ले जाए मुक्ती में हमें |

निज में अनन्तानन्द लहरे, सदा ही उसमें रमें ||

निज आतमा के लिए तो निज आतमा ही धर्म है |

हम स्वयं में ही लीन हों यह ही धरम का मर्म है ||

है यही सुख का पंथ, यह ही है धरम की भावना |

हम मुक्ति में अब चले ,फिर संसार में नहिं आवना ||

अंतिम मंगल-
जिनवाणी के ये वचन, निमित क्रिया अरु राग।।
मेरा इसमें कुछ नहीं, सब जिनवर का माल।।

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इस बारह भावना के रचयिता कौन है?

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मङ्गलार्थी समकित जैन ईशागढ ने लिखी है। स्वरचित है।

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