आस्रव, संवर, निर्जरा ,पुण्य, पाप को कैसे संतुलित (balance) करें?

कोई कहता है कि अगर किसी वस्तु का नियम न लो तो उसे ग्रहण करने का दोष / पाप लगता है।

दूसरा कहता है कि अगर नियम ले लो तो पुण्य आस्रव होता है, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और स्वर्ग में भोगों में मन जाता है और संसार बढ़ जाता है। तो नियम मत लो।

कोई कहता है कि एक बार जिनेंद्र भगवान की भाव पूर्वक पूजा करने से जन्म जन्म के पाप खत्म / कर्म नष्ट हो जाते हैं।

दूसरा कहता है कि पूजा करने से सिर्फ पुण्य का संचय होता है, पाप नहीं धुलते। पूजा बंध का ही कारण है।

कोई कहता है कि केवल शुद्धोपयोग से ही कर्म निर्जरा होती है,
दूसरा कहता है कि शुद्ध परिणति से कर्म निर्जरा होती है। मतलब शुभोपयोग में भी कर्म निर्जरा हो सकती है।

कोई कहता है कि तत्वार्थ सूत्र के चैप्टर ७ में आस्रव तत्व का वर्णन दिया है इसलिए उस में बताए गए व्रत पुण्य आस्रव के ही कारण हैं। फिर उन्हें क्यों लिया जाए।

दूसरा कहता है कि उन व्रतों को ग्रहण नहीं करोगे तो सूक्ष्म पापों का दोष लगेगा।

अब एक आम आदमी क्या करे ? वह जैन धर्म को कैसे समझे ?

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कोई कहता है कि अगर किसी वस्तु का नियम न लो तो उसे ग्रहण करने का दोष / पाप लगता है। :+1:

दूसरा कहता है कि अगर नियम ले लो तो पुण्य आस्रव होता है, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और स्वर्ग में भोगों में मन जाता है और संसार बढ़ जाता है। :+1: तो नियम मत लो। :-1: wrong conclusion

कोई कहता है कि एक बार जिनेंद्र भगवान की भाव पूर्वक पूजा करने से जन्म जन्म के पाप खत्म / कर्म नष्ट हो जाते हैं। :+1:

दूसरा कहता है कि पूजा करने से सिर्फ पुण्य का संचय होता है, पाप नहीं धुलते। पूजा बंध का ही कारण है। :+1: punya bhi to bndh hai, paap bhi dhulte hai

कोई कहता है कि केवल शुद्धोपयोग से ही कर्म निर्जरा होती है,
दूसरा कहता है कि शुद्ध परिणति से कर्म निर्जरा होती है। मतलब शुभोपयोग में भी कर्म निर्जरा हो सकती है। :+1:

कोई कहता है कि तत्वार्थ सूत्र के चैप्टर ७ में आस्रव तत्व का वर्णन दिया है इसलिए उस में बताए गए व्रत पुण्य आस्रव के ही कारण हैं। :+1: फिर उन्हें क्यों लिया जाए। :-1: wrong conclusion

दूसरा कहता है कि उन व्रतों को ग्रहण नहीं करोगे तो सूक्ष्म पापों का दोष लगेगा। :+1:

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A quote from मोक्षमार्गप्रकाशक (p. 298) -

जो उपदेश हो, उसे यथार्थ पहिचानकर जो अपने योग्य उपदेश हो उसे अंगीकार करना। जैसे — वैद्यक शास्त्रोंमें अनेक औषधियाँ कही हैं, उनको जाने; परन्तु ग्रहण उन्हींका करे जिनसे अपना रोग दूर हो। अपनेको शीतका रोग हो तो उष्ण औषधिका ही ग्रहण करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करे; यह औषधि औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने। उसीप्रकार जैनशास्त्रोंमें अनेक उपदेश हैं, उन्हें जाने; परन्तु ग्रहण उसीका करे जिससे अपना विकार दूर हो जाये। अपनेको जो विकार हो उसका निषेध करनेवाले उपदेशको ग्रहण करे, उसके पोषक उपदेशको ग्रहण न करे; यह उपदेश औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।

यहाँ उदाहरण कहते हैं — जैसे शास्त्रोंमें कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषक उपदेश है। वहाँ अपनेको व्यवहारका आधिक्य हो तो निश्चयपोषक उपदेशका ग्रहण करके यथावत् प्रवर्ते और अपनेको निश्चयका आधिक्य हो तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहण करके यथावत् प्रवर्ते।

- मोक्षमार्गप्रकाशक, आठवाँ अधिकार, अनुयोगों दिखाई देनेवाले परस्पर विरोध का निराकरण, pp. 294-303

To put this in perspective, just an example from प्रथमानुयोग -

जब भील को कौए के माँस का त्याग करवाया और उसे संबोधन भी दिया गया कि इस नियम के पालन से तेरा अवश्य ही कल्याण होगा, वहाँ मुनिराज का अभिप्राय तो सर्व प्रकार के माँस को छुड़ाने का था, और प्रथम उपदेश भी उसी का दिया था, अब जब भील से नहीं बन पाया तो मात्र कौए के माँस के त्याग का नियम ग्रहण करवाया |

अब इससे न तो यह सिद्ध होता है कि मुनिराज ने बाकी समस्त प्रकार के माँस की अनुमति दी; और न ही यह सिद्ध होता है कि कौए का माँस छोड़ने मात्र से कल्याण हो जाएगा | तथा उसी समय कोई अन्य श्रावक (जिसके सभी प्रकार के माँस का त्याग हो), यह बात सुने, और सोचने लगे कि यदि भील का कल्याण हो सकता है तो मेरा तो मोक्ष पक्का, सो यह भी भ्रम है |


जो विद्यार्थी अध्ययन न करता हो उसे तो बार-बार पढ़ाई करने का ही उपदेश दिया जाएगा । परंतु जो बहुत ज्यादा अध्ययन करता हो, उसे कभी कभी ऐसा भी कहा जाएगा कि ‘अब बहुत हो गया, बाद में पढ़ना’ । उपदेश तो दोनों सही है, किन्तु ‘किस के लिए कौन-सा उपदेश है’ - यह समझ में आने पर समस्त विरोध दूर हो जाता है ।


सार इतना है -

  • विकार असंख्यात लोक प्रमाण है |

  • जिनवाणी की कोई भी बात अज्ञान / असंयम का पोषण नहीं करती |

  • देव-शास्त्र-गुरु की आज्ञा में रहकर हम अपने विकार पहिचानें और उन्हें दूर करें |

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लेकिन अगर हम उन व्रतों को ग्रहण नहीं करेंगे तो हमको उससे जुड़ा पाप लगेगा। तो विकार तो तभी दूर होगा जब उन सभी व्रतों को ग्रहण किया जाए क्योंकि उनका त्याग किए बिना उसका दोष तो अनादि काल से लग ही रहा है। वह कर्म तो आत्मा के चिपक ही रहे हैं।

और अगर एक बार व्रत ले लिया तो जीवन भर पालना भी पड़ेगा । उसे छोड़ा भी नहीं जा सकता है।

मेरा प्रश्न बस यही है की व्रतों को लेकर पुण्य आस्रव होता है और अगर व्रत नहीं ग्रहण करें तो उसका दोष लगता है अर्थात पाप आस्रव होता है तो दोनों में संतुलन कैसे बैठाया जाए ?

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यहाँ ग्रहण से तात्पर्य है उपदेश का ग्रहण, उसमें व्रत तो आएंगे ही, और पूरा मोक्षमार्ग भी आएगा ।

दोनों में से अधिक हानि किसमें है ?


विद्यार्थी को uniform पहनना भी है और साथ साथ यह भी श्रद्धान रखना है कि इसमें से ज्ञान नहीं आनेवाला ।

यदि ज्ञान नहीं आता तो पहनना क्यों ?

→ बिना उस uniform के तो school में जाने भी नहीं मिलेगा । अतः वह अनिवार्य है । लेकिन उतने मात्र से काम नहीं होगा । ज्ञान तो स्वयं जब अध्ययन करें एवं गुरुओं के उपदेश का अनुसरण स्वयं करें तब आएगा ।


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Thank you. Mera doubt clear ho gaya. Good example.

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सार रूप स्पष्ट समाधान… :ok_hand:

सुन्दर उदाहरण👍