बाबा ! मैं न काहू का | Baba ! Main n kahu ka

बाबा ! मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे |
सुर नर नारक तिरयक गति में, मोकों करमन घेरा रे || टेक ||

मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे |
तन धन वसन भवन जड़ न्यारे, हूँ चिन्मूरति न्यारा रे || १ ||

मुझ विभाव जड़कर्म रचत हैं, करमन हमको फेरा रे |
विभाव चक्र तजि धारि सुभावा, अब आनंदघन हेरा रे || २ ||

खरच खेद नहिं अनुभव करते, निरखि चिदानंद तेरा रे |
जप तप व्रत श्रुत सार यही है, ‘बुधजन’ कर न अबेरा रे || ३ ||

भावार्थ :-
हे भाई! इस जगत में मेरा किसी से कोई सम्बन्ध नही है, न तो मैं किसी का हुं और न ही कोई मेरा है॥टेक॥
मुझे तो स्वर्ग, नरक, तिर्यन्च और मनुष्य इन चार गतियों में कर्मों ने मेरी स्वयं की भूल से बांध रखा है॥1॥
माता-पिता, पुत्र-पत्नी, कूल-परिवारजन ये सब मोह के कारण होने से मुझे उलझाने वाले है तथा तन,धन,वस्त्र,भवन आदि ये जड पदार्थ तो मुझसे अत्यंत भिन्न हैं और मै तो इनसे पृथक चैतन्यमुर्ति न्यारा तत्त्व हुं॥2॥
मेरे में उत्पन्न होने वाले विकारी भाव पुद्‍गल कर्मों द्वारा उत्पन्न किये गये है, उन कर्मों ने हमें दु:खी किया है, अत: अब मैनें विभावी भावों को चक्र को त्यागकर, अपने आनंद स्वभावी आत्मा का ध्यान करना सिख लिया है॥3॥
अत: बुधजन कवि कहते हैं कि जब से मैनें अपने चैतन्य आनन्द स्वभावी आत्मा को देखा है तब से मैं थोडा भी दु:ख का अनुभव नहीं करता हूं। समस्त जप, तप, व्रत और जिनागम का भी यही सार है, अत: हे जीव! अब तुझे आत्मकल्याण में देर नहीं करनी चाहिये॥4॥

Artist : कविवर पं. बुधजन जी

Meaning Source: Vitragvani

2 Likes