और सबै जगद्वन्द मिटावो, लो लावो जिन आगम-ओरी ।।टेक॥
है असार जगद्वन्द बन्धकर, यह कछु गरज न सारत तोरी।
कमला चपला, यौवन सुरधनु, स्वजन पथिकजन क्यों रति जोरी॥1॥
विषय कषाय दुखद दोनों ये, इनतें तोर नेहकी डोरी।
परद्रव्यनको तू अपनावत, क्यों न तजै ऐसी बुधि भोरी 2॥
बीत जाय सागरथिति सुरकी, नरपरजायतनी अति थोरी।
अवसर पाय ‘दौल’ अब चूको, फिर न मिलै मणि सागर बोरी ।।3।।
इस भक्ति में कवि सभी भव्य जीवों से आग्रह कर रहे हैं, कि जग के द्वन्दों को मिटाकर जिनागम (जिनवाणी) की ओर अपनी लौ अर्थात उपयोग लाइये।
प्रथम अन्तरे में कवि कहते हैं, ये जगत के द्वंद असार हैं और बंध के कारण हैं और इनसे तुम्हारी कोई गरज (उद्देश्य) पूरी नहीं होने वाली।
आगे वे लिखते हैं, कमला अर्थात पत्नी, यौवन, धन संपत्ति चपला अर्थात बिजली की चमकार के समान और स्वजन (परिवारजन) पथिक (राहगीर) के समान हैं।
द्वितीय अंतरा कहता है, कि विषय कषाय ये दुख देने वाले हैं अतः इनसे नेह (स्नेह/राग) की डोरी को तोड़ देना चाहिए।
आगे कहता है, हे जीव! तू परद्रव्यों को अपनाता है, ऐसी मिथ्या मान्यता का त्याग तू क्यों नहीं करता (क्योंकि वास्तविकता में कोई किसी को नहीं अपनाता/अपना सकता, मात्र मान सकते हैं कि अपनाया है)।
तृतीय एवम अंतिम अन्तरे में कविवर लिखते हैं, कि सागरों (काल की गणना का एक माप) पर्यन्त का देवायु का काल एवम थोड़े काल का मनुष्य भव, दोनों ही जल्दी बीत जाते हैं।
अब जो अवसर पाया है, उसे रत्नों की बोरी सागर में डालने के समान, गंवाओ नहीं।