एक तरफ से अरथी आई, एक तरफ से डोली ।
दोनों सखियां मिली राह में, करने लगी ठिठोली ॥
चार इधर हैं, चार उधर हैं, दोनों संग बराती ।
एक राह मरघट को जाती, एक महल को जाती।
दोनों के ऊपर बिखरे हैं, फूल मखाने रोली ॥ १ ॥
इधर मरण है, उधर वरण है, दो पहलू हैं जीवन के ।
एक तरफ है अन्त, दूसरी तरफ महल हैं सपनों के ॥
छूटा साथी इधर एक का, उधर मिला हमजोली ॥२॥
एक अंधेरा, एक उजेला, है पर्याय विनाशी ।
किन्तु आत्मा ध्रौव्य रूप है, है अक्षय अविनाशी ।।
आना-जाना लगा हुआ है, जिनवाणी की बोली || ३ ||
जिसकी डोली आज उठी है, कल अर्थी उठ जाये।
ऐसा कोई नहीं जगत में, जिसको मौत न आये ॥
अतः बढ़ो संयम के पथ पर, ले जीवन की डोली ॥४॥
अरथी वाला जले आग में, जले राग में डोली ।
इस प्रकार दोनों ही जलते, आग राग की होली ॥
सुखी सदा वे रहें जिन्होंने, समता केशर घोली ॥५॥
एक रुला अपनों को आई, आई एक हंसाने ।
उजड़ गया संसार एक का, आई एक बसाने ॥
सुख-दुःख देती सदा जीव को, निजकृत कर्म की टोली ।
दोनों सखियां मिली राह में, करने लगी ठिठोली ॥६॥
- पं. लालचन्द जैन ‘राकेश’ गंजबासौदा