अर्घ्यावलि। Arghyawali


श्री देव-शास्त्र-गुरु का अर्घ्य

क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है।
काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है।।
अनुपमसुख तब विलसित होता, केवलरवि जगमग करता है।
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है।
यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्घ बनाऊँगा।
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाऊँगा।।

ऊँ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यो नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्रीपंचपरमेष्ठी का अर्घ
जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ।
अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुञ्ज जलाने आया हूँ।।
यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्यपद दो स्वामी।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुःख मेटो अन्तर्यामी।।
ऊँ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री सिद्ध भगवान का अर्घ्य
तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता-मोदक से सघन हुए।
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूत अनुभूति लिये।।
हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण निजअन्तरवैभव की मस्ती।
है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती।।
ऊँ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने नमः अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री तीस चौबीसी भगवान का अर्घ्य
दरब आठों जु लीना है, अर्घ्य कर में नवीना है।
पूजते पाप छीना है, भानुमल जोर कीना है।।
दीप अढ़ाई सरस राजे, क्षेत्र दश ताविषें छाजे।
सात शत बीस जिनराजे, पूजता पाप सब भाजे।।
ऊँ ह्रीं श्री पाँच भरत पाँच ऐरावत दश क्षेत्र के विषैं तीस चौबीसी के सातसौ बीस जिनेन्द्रेभ्यो नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री बाहुबली स्वामी का अर्घ्य
पुण्यभाव से स्वर्गादिक पद, बार-बार पा जाता हूँ।
निज अनर्घ्यपद मिला ना अबतक इससे अर्घ्य चढ़ाता हूँ।।
श्री बाहुबली स्वामी प्रभुवर चरणों में शीश झुकाता हूँ।
अविनश्वर सुख पाने को अब नाथ शरण में आता हूँ।।
ऊँ ह्रीं श्रीबाहुबलीस्वामिने नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री सप्तऋषि मुनिवरों को अर्घ्य
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना।
फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्घ कीजे पावना।।
मन्वादि चारण-ऋद्वि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ।।
ऊँ ह्रीं श्रीमन्व-स्वरमन्व-निचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनय-लालस-जयमित्र-सप्तऋषिभ्यो नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री रत्नत्रय धर्म का अर्घ
आठ दरव निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूँ।।
ऊँ ह्रीं श्रीसम्यक् रत्नत्रयाय नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री पंचमेरु जिनालय का अर्घ्य
आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत’ पूजौं श्रीजिनराय।
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय।।
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करहुँ प्रमाण।
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालीपंचमेरुसम्बन्धि अशीतिः जिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

1 Like