राग: विराग
अरे मन चल रे, श्रीहथनापुर की जात ॥ टेक ॥
रामा-रामा धन-धन करते, जावै जनम विफल रे ॥ १ ॥ अरे ॥
करि तीरथ जप तप जिनपूजा, लालच वैरी दल रे ॥ २ ॥ अरे. ॥
‘शांति कुंथु-अर’ तीनों जिनका, चारु कल्याणकथल रे || ३ || अरे. ॥
जा दरसत परसत सुख उपजत, जाहिं सकल अघ गल रे ॥ ४ ॥ अरे.।।
देश दिशन्तरके जन आवैं, गावैं जिन गुन रल रे ॥ ५ ॥ अरे. ॥
तीरथ गमन सहामी मेला, एक पंथ द्वै फल रे ।। ६ ।। अरे. ।
कायाके संग काल फिरै है, तन छायाके छल रे ॥ ७ ॥ अरे.।।
माया मोह जाल बंधनसौं, ‘भूधर’ वेगि निकल रे ॥ ८ ॥ अरे. ॥
रचना में प्रयुक्त कुछ शब्दों के अर्थ:
जात= यात्रा
रामा= स्त्री
अर्थ: अरे मन ! तू हस्तिनापुर की यात्रा के लिए चल । स्त्री और धन की कामना करते-करते यह सारा जनम विफल हो रहा है। तू तीर्थयात्रा, जप-तप व जिनपूजा कर। तृष्णा और लालच बैरी हैं। यह हस्तिनापुर शांतिनाथ, कुंथनाथ और अरहनाथ इन तीनों तीर्थंकरों का कल्याणक स्थान है। उस भूमि के दर्शन से, उस भूमि के स्पर्श से ही चित्त में आनन्द होता है, सुख उपजता है और सारे पापों का क्षय होता है। दूर-दूर से देश-देशान्तर से लोग वहाँ आते हैं और सब मिलकर जिनेन्द्र का गुणगान करते हैं। तीर्थयात्रा और मेले का सुअवसर ‘एक पंथ दो काज’ होते हैं। मृत्यु सदैव इस काया के साथ (लगी) रहती है और छाया के समान क्षणिक तन / देह को छलती है। भूधरदास जी कहते हैं कि माया, मोह के बंधन के जाल से तू जल्दी ही बाहर निकल ।
रचयिता: पंडित श्री भूधरदास जी
सोर्स: भूधर भजन सौरभ