अमृत वचन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’ | Amrut/Amrit Vachan

  1. धर्मतीर्थ परमार्थतः आत्मानुभवन रूप ही है ।

  2. ज्ञानीजन निरन्तर आत्मानुभवपूर्वक ही मुक्तिमार्ग का उपदेश देते हुए जगत में धर्मतीर्थ को प्रवर्ताते हैं ।

  3. नैतिकतापूर्ण धार्मिक जीवन (सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र) के बिना आत्मसाधना असम्भव है ।

  4. विनय और मर्यादा संयुक्त विवेक ही श्रेयस्कर है ।

  5. समय ज्ञेय है, परसमय हेय है, स्वसमय प्रगट करने योग्य उपादेय है और समयसार ध्येय है आश्रय करने योग्य उपादेय है ।

  6. आत्मार्थ के लक्ष्यपूर्वक ध्रुवात्मा को ध्येय बना कर निरन्तर आत्मभावना भाना ही आत्महित का सम्यक् उपाय है ।

  7. अन्तरंग जिज्ञासा एवं लगन, योग्य विनय एवं पुरुषार्थ से मुक्ति का मार्ग सहज समझ में आता है ।

  8. जैसे कृषक को बीज में होने वाला वृक्ष, फूल-फलादि प्रत्यक्ष-सम दिखते हैं, वैसे ज्ञानी को आत्मानुभव होने पर आने वाला मुक्तिमार्ग एवं मोक्ष सहज दिखता है ।

  9. बाह्य सर्व अनुबन्धों से रहित सहज ज्ञान वैराग्यमय एवं प्रचुर स्वसंवेदनजनित आनन्दमय दशा ही परमार्थ मुनिदशा है ।

  10. वस्तु के अनेकान्तातमक पर से भिन्न और अपने अनन्त धर्मों से अभिन्न स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही स्वाश्रय से मुक्ति की साधना होती है ।